2024 की इंतजार में राहुल गांधी (Rahul Gandhi: Waiting For 2024)

वैसे तो बिल्ली थैले से बाहर उस दिन ही आ गई थी जब अमेठी में कार्यकर्त्ताओं से चुनाव की तैयारी के बारे बात करते वक्त प्रियंका गांधी वाड्रा ने कहा था, “इस वाले चुनाव की नहीं 2022 वाले की।“ प्रियंका का यह कहना पहला यह संकेत था कि कांग्रेस का प्रथम परिवार आज से शुरू होने वाले चुनाव पर नहीं बल्कि भावी चुनावों पर केन्द्रित है। प्रियंका 2022 के विधानसभा की बात कर रहीं थीं पर राहुल गांधी द्वारा केरल में वायनाड से भी चुनाव लडऩा बताता है कि कांग्रेस अध्यक्ष 2022 से भी आगे 2024 के लोकसभा चुनाव पर केन्द्रित है।

कहने को तो कहा जा रहा है कि राहुल गांधी के वायनाड से लडऩे का दक्षिण भारत के पांच प्रदेशों, केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश तथा तेलंगाना की 130 सीटों पर असर पड़ेगा लेकिन असली मुद्दा है कि राहुल गांधी उस केरल से लड़ रहे हैं जहां उनका मुकाबला भाजपा से नहीं माकपा से है जिसके नेता कुछ समय पहले तक नरेन्द्र मोदी के खिलाफ तैयार हो रहे विपक्षी गठबंधन के चाणक्य बनने की कोशिश कर रहे थे। राहुल के इस एक कदम से विपक्षी एकता के इस प्रयास की हवा निकल गई है। सीताराम येचूरी अब विलाप कर रहें हैं कि  ‘राहुल तय करें कि वह हमारे खिलाफ है या भाजपा के’। पार्टी में येचूरी के प्रबल विरोधी प्रकाश कारत ने तो चेतावनी दी है कि राहुल को हरा कर ही रहेंगे।

राहुल गांधी का दो चुनाव क्षेत्रों से लडऩा कोई नई बात नहीं पर हैरानी है कि उन्होंने उस केरल से चुनाव लडऩे का फैसला किया है जहां सीधी टक्कर अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे कामरेडों से हैं। अगर राहुल ने दक्षिण से ही लडऩा था तो वह कर्नाटक से भी लड़ सकते थे जहां उनकी पार्टी गठबंधन सरकार में है। केरल में वायनाड चुन उन्होंने खुद विपक्षी सहयोग को खत्म कर दिया और आज जबकि एनडीए ने अपना घर सही कर लिया है, विपक्षी क्षेत्रों में असमंजस, अलगाव तथा असहमति की हालत है। इससे पहले राहुल पश्चिम बंगाल में ममता सरकार पर आरोप लगा चुके हैं जिस पर ममता बैनर्जी ने उन्हें  ‘बच्चा’ कह दिया था। इसके साथ अगर यह जोड़ा जाए कि कांग्रेस आप के साथ गठबंधन की बहुत इच्छुक नहीं है और प्रियंका गांधी को पूर्वी उत्तर प्रदेश में उतार कर लड़ाई त्रिकोणी कर दी गई जिसका फायदा भाजपा को होगा, तो मामला साफ है। राहुल गांधी को कोई आशा नहीं कि 2019 के चुनाव में वह नरेन्द्र मोदी तथा भाजपा को हरा सकेंगे इसलिए भविष्य के लिए पार्टी को मजबूत करने में लगे हैं। वह प्रमुख विपक्षी दल उभरना चाहते हैं इसलिए समझ गए हैं कि वामदलों या आप या तृणमूल कांग्रेस या बसपा को मज़बूत रहना कांग्रेस के हित में नहीं।

देश की राजनीतिक स्थिति साफ होती जा रही है। (1) कांग्रेस ने 2019 की आशा छोड़ दी है। प्रियंका का जरूर कहना है कि राहुल ही अगले पीएम बनेगा पर खुद भी प्रियंका मार्क टल्ली के शब्दों में, गंगा में कोई लहर पैदा नहीं कर सकीं। (2) राहुल गांधी नरेन्द्र मोदी की वापिसी के लिए तैयार है और समझते हैं कि मजबूत गैर-भाजपा गठबंधन जिसमें कांग्रेस की प्रमुख भूमिका नहीं होगी उनके हित में नहीं है। (3) तीसरा मोर्चा और कांग्रेस अब एक-दूसरे को उस नफरत की नज़र से देखते नज़र आ रहे हैं जितना शायद वह नरेन्द्र मोदी को भी न देखते हों। मायावती कांग्रेस को लगातार रगड़ा लगा रही है पर कांग्रेस बेपरवाह है। माकपा जो इतनी चिढ़ी हुई है कि मलयालम में उनके मुख्य पत्र ने राहुल गांधी को  ‘पप्पू‘ कह दिया है।

लेकिन राहुल गांधी तथा कांग्रेस पार्टी की अपनी मजबूरियां हैं। कांग्रेस 1967 से तमिलनाडु से बाहर हैं। 1977 से पश्चिम बंगाल तथा 1981 से उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी के अमेठी चुनाव क्षेत्र की सभी चारों सीटों से कांग्रेस पराजित हो गई थी। खतरे की घंटी ऊंची बज रही है इसीलिए सेफ्टी के लिए केरल जाना बेहतर समझा गया। अमेठी से राहुल गांधी का वोट लगातार गिरता जा रहा है। पहली बार जब 2004 में उन्होंने चुनाव लड़े तो उन्हें 68.18 प्रतिशत वोट मिला था। 2009 में यह बढ़कर 71.78 प्रतिशत हो गया लेकिन 2014 में यह 25 प्रतिशत गिर कर 46.71 प्रतिशत रहा गया जबकि भाजपा की स्मृति ईरानी को 34.38 प्रतिशत मिला था। दशकों  गांधी परिवार के पास रहने के बावजूद अमेठी अभी भी बहुत पिछड़ा इलाका है। कोई बदलाव नहीं आया जिसकी कीमत परिवार चुका रहा है।

पिछले चुनाव में स्मृति ईरानी नई-नई थी तब से वह लगातार अमेठी का दौरा कर रही हैं इसलिए राहुल का एक और जगह से चुनाव लडऩा समझदारी है। परिवार (आखिर परिवार ही पार्टी है) यह भी महसूस करता है कि अगर वह प्रदेश-प्रदेश दूसरी विपक्षी पार्टियों के लिए छोड़ते रहे तो एक दिन बिलकुल सफाया हो जाएगा इसलिए राहुल गांधी ने अपनी मां की बाकी विपक्षी पार्टियों के साथ सहयोग की नीति को छोड़ दिया है। अब ध्यान केवल कांग्रेस को खड़ा करने पर लग रहा है। यह आसान काम नहीं पर और विकल्प भी नहीं है। जहां तक राहुल गांधी द्वारा 2024 के इंतजार का सवाल है, यह भी जोखिम भरा निर्णय है क्योंकि कौन कह सकता है कि पांच साल के बाद क्या होगा?  पांच वर्ष के बाद मोदी उन्हें मुकाबला करने लायक छोड़ेंगे भी या नहीं?

राहुल गांधी ने कहा था कि भाजपा तथा संघ को हराने के लिए वह कोर्इ भी बलिदान देने को तैयार है लेकिन बलिदान तो क्या देना उनकी नीति तो केवल आत्म-रक्षण की लगती है विपक्षी एकता भाड़ में जाए। मोदी के वैकल्पिक कथित सैक्यूलर गठबंधन के हीरो बनने का अब उनका इरादा नहीं है। जब से उन्होंने सॉफ्ट हिन्दुत्व अपनाया है सबको जोडऩे वाली सैक्यूलरिज़्म की गोंद भी नहीं रही। 2009 और 2014 के बीच पार्टी का वोट बैंक 9 प्रतिशत गिरा है कांग्रेस अध्यक्ष की प्राथमिकता इसे बेहतर करना है। कांग्रेस के  ‘न्याय’ प्रस्ताव में कुछ फायदा मिलेगा पर पार्टी ने यह नहीं बताया कि गरीबों में बांटने वाला 3.6 लाख करोड़ रुपया आएगा कहां से? क्या मिडल क्लास पर और टैक्स लगेंगे? केवल यह ही बताया गया कि कमेटी बनाई जाएगी जो इसे लागू करने का रास्ता ढूंढेगी। जिस प्र्रस्ताव पर वह खुद स्पष्ट नहीं वह झुनझुना गरीबों के आगे लटका दिया गया है।

राजनीति की धारा अब नरेन्द्र मोदी के पक्ष में बहती नजर आती है। दिल्ली में बैठे हुए बुद्धिजीवी या पत्रकार चाहे कुछ भी कहें नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता की बराबरी कोई नेता नहीं कर सकता क्योंकि देश तथा जनता के प्रति उनकी  प्रतिबद्धता के बारे किसी को शंका नहीं है। प्रधानमंत्री मेहनती और ईमानदार हैं और उनके पांच साल के शासनकाल में एक भी घोटाला नहीं हुआ। राहुल के राफेल पर शोर की देश में कहीं गूंज नहीं है क्योंकि कहीं भी पैसा खाने के निशान नहीं मिले। नरेन्द्र मोदी की डिगिटाईज़ेशन की धुन से भ्रष्टाचार कम हुआ है। लोग यह भी समझते हैं कि चाहे अच्छे दिन नहीं आए पर बुरे दिन भी नहीं आए। गलतियां हुई हैं नोटबंदी प्रमुख है लेकिन इरादा नेक था। देश मज़बूत हुआ। पुलवामा के बाद चीन को छोड़ कर बाकी बड़ी ताकतों ने भारत सरकार में अपना विश्वास व्यक्त कर दिया है। स्वच्छ भारत, सख्त दिवालियापन कानून, जनधन योजना, जीएसटी, ग्रामीण आवास, टॉयलेट बनाना, उज्जवला योजना आदि के द्वारा नरेन्द्र मोदी यह प्रदर्शित कर चुके हैं कि वह देश को सही दिशा में धकेलना चाहते हैं।

नरेन्द्र मोदी को यह बड़ा फायदा है कि दूसरी तरफ बिल्कुल घपला है। बेतैयार और उलझा हुआ विपक्ष केवल नरेन्द्र मोदी से ही नहीं अपने से भी भिड़ रहा है। कुछ प्रादेशिक पार्टियां अच्छा प्रदर्शन कर सकती हैं पर इनका अखिल भारतीय नज़रिया नहीं है। विपक्ष में बिलकुल अराजक स्थिति है और नरेन्द्र मोदी को हराने के सिवाय उनके पास पेश करने को कुछ और नहीं है। देश के विकास के लिए स्थायित्व चाहिए और यह इस वकत केवल नरेन्द्र मोदी ही दे सकते हैं। इसलिए आज इस पहले चुनावी दिन एक लोकप्रिय फिल्मी डायलॉग का सहारा लेकर कहा जा सकता है, चुनाव से डर नहीं लगता साहिब, महागठबंधन से लगता है!

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.