मिस्र में धुंधला सवेरा
कट्टरवादी इस्लामी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड के मुहम्मद मुर्सी मिस्र में हुए पहले आजाद चुनाव में राष्ट्रपति बने हैं। उनसे पहले राष्ट्रपति हुसनी मुबारिक 30 वर्ष सेना की मदद से सत्ता में रहे थे और काहिरा के तहरीर चौक में शुरू हुए जन आंदोलन के बाद उन्हें हटाया गया था। सवाल यह है कि मुर्सी को सेना आजाद तरीके से सरकार चलाने भी देगी? मुर्सी का कहना है कि वह सेना द्वारा भंग संसद को बहाल करने तथा राजनीतिक बंदियों को रिहा करवाने का प्रयास करेंगे। इसी से पता चलता है कि नए राष्ट्रपति के पास पूरी ताकत नहीं हैं और वह फूंक-फूंक कर कदम उठाने के लिए मजबूर हैं। उन्होंने अपने अधिकारियों को आदेश दिया है कि संसद जो चुनाव से पहले भंग कर दी गई थी, को बहाल करवाने तथा राजनीतिक कैदियों को रिहा करवाने का रास्ता ढूंढे। सेना ने सुप्रीम कोर्ट के साथ मिल कर संसद को भंग कर दिया था। इस संसद में मुस्लिम ब्रदरहुड जो एक कट्टरवादी जमात है, का बहुमत था। अगर यह संसद बहाल हो जाती है तो वह मिस्र की राजनीति पर सेना के नियंत्रण के खिलाफ कदम उठा सकेगी। मुर्सी ने सेना को सलाह भी दी है कि वह सत्ता में दखल छोड़ कर सीमा पर मोर्चा संभाल लें क्योंकि यही उसकी मुख्य जिम्मेवारी हैं लेकिन सेना का कहना है कि जब तक नई संसद का गठन नहीं हो जाता वह सत्ता में भागीदारी करते रहेंगे। अर्थात् सेना पुरानी संसद की बहाली के विरुद्ध है। सेना के रूप में उनके कमरे में हाथी बैठा है जो निकलने को तैयार नहीं। अभी तक तो राष्ट्रपति की अधिकतर शक्तियां सेना के पास हैं यहां तक कि देश का बजट भी सेना ही बनाती हैं। ऐसी स्थिति में नए राष्ट्रपति केवल मूक दर्शक बन कर तो नहीं रह जाएंगे?
मुर्सी के लिए एक और बड़ी समस्या है कि मुस्लिम ब्रदरहुड की भी वह पहली पसंद नहीं थे। ब्रदरहुड ने कहा है कि वह तहरीर चौक से तब तक नहीं हटेंगे जब तक पुरानी संसद बहाल नहीं हो जाती लेकिन चुनौतियां और भी हैं। अर्थ-व्यवस्था लडख़ड़ा रही है। बेरोजगारी बहुत है। उदारवादी तथा अल्पसंख्यक मुस्लिम ब्रदरहुड को अविश्वास से देखते हैं। अमेरिका और दूसरी पश्चिमी ताकतें भी मुस्लिम ब्रदरहुड को शंका से देखते हैं। चुनाव में मिस्र के उदारवादियों तथा अल्पसंख्यकों ने मुर्सी का विरोध किया था जिससे उनके प्रतिद्वंद्वी हुसनी मुबारिक के पूर्व प्रधानमंत्री शफीक सम्मानजनक मुकाबला देने में सफल रहे थे। उन्हें लगभग आधे वोट मिले थे। यह जो आधा मिस्र है उसे मुर्सी को संतुष्ट करने की जरूरत है। इस्रायल के साथ संबंधों का भी मामला है। कई बार आपसी युद्ध रने के बाद राष्ट्रपति सद्दात के समय दोनों में शांति हो गई थी चाहे सद्दात को इसकी कीमत अपनी जान गवां कर देनी पड़ी थी। इस शांति का दोनों देशों को बहुत फायदा हुआ है। अब इस्रायल भी आशंकित है कि कट्टरवादी इस्लामी जमात की सरकार शांति कायम रख सकेंगी या नहीं? इस क्षेत्र में ईरान भी बहुत बड़ा खिलाड़ी है जिसे अलग-थलग करने की असफल कोशिश अमेरिका करता रहता है। अभी तक मिस्र तथा ईरान के बीच संबंध गहरे नहीं रहे। 30 वर्ष पहले संबंध विच्छेद कर लिए गए थे पर अब मुर्सी का कहना है कि उस क्षेत्र में सत्ता का संतलुन कायम करने के लिए वह ईरान से फिर से संबंध स्थापित करना चाहते है। ईरान ने भी मुर्सी की जीत का यह कहते हुए स्वागत किया है कि यह लोकतंत्र की शानदार जीत है और इस्लामिक जागृति का प्रमाण है। निश्चित तौर पर पश्चिमी देशों को यह भाषा पसंद नहीं आएगी। पश्चिम को आशंका है कि मुस्लिम ब्रदरहुड की सरकार इस्रायल के साथ शांति समझौते पर पुनर्विचार कर सकती हैं। यह समझौता मिस्र में बहुत लोकप्रिय नहीं है पर इसके बावजूद हुसनी मुबारिक ने इसका पालन किया और मुस्लिम ब्रदरहुड का दमन किया था।
अर्थात् अब मिस्र में बहुत कुछ बदलने वाला हैं। छ: दशक तक जिस ब्रदरहुड पर मिस्र में पाबंदी रही उसी की अब वहां सरकार हैं। सेना के साथ फिर टकराव हो सकता है लेकिन उल्लेखनीय है कि मुस्लिम ब्रदरहुड जैसी कट्टरवादी जमात को भी लोकतांत्रिक आंदोलन का सहारा लेना पड़ा जिसके तहरीर चौक पर शांतमय प्रदर्शन के चित्र हम देख चुके हैं। यह अच्छा संकेत है। यह बहुत दिलचस्प है कि मिस्र के लोगों ने हुसनी मुबारिक की तानाशाही को हटाने के लिए उन अहिंसात्मक तरीकों का इस्तेमाल किया जो गांधीजी दुनिया को बता गए हैं। उनके युवकों ने गांधी के योगदान को स्वीकार किया। तानाशाही को पलटने के लिए उन्होंने इंटरनैट, ट्विटर तथा फेसबुक जैसे आधुनिक साधनों का भी इस्तेमाल किया पर सारा आंदोलन अहिंसात्मक रखा ताकि सेना को दमन का मौका न मिले। उनकी नैतिक शक्ति की जीत हुई। भारत को अब उस देश की मदद करनी चाहिए ताकि उनका एक संपूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्था में परिवर्तन कष्टदायक न हो। जवाहरलाल नेहरू के समय मिस्र के साथ हमारे बहुत घनिष्ठ संबंध थे जब नेहरू-नासिर-टीटो के त्रिकोण का विश्व में विशेष स्थान था। तब से लेकर बहुत कुछ बदल गया है। टीटो का युगोस्लाविया बिखर गया है तो मिस्र और भारत बहुत दूर चले गए हैं। इस दूरी को कम करने की जरूरत हैं।
-चन्द्रमोहन