पवार बेपरवाह है!
आखिर वह क्षण आ ही गया। बहुत देर आनाकानी करने तथा लुकन-छिपाई खेलने के बाद राहुल गांधी ने घोषणा कर दी है कि वह बड़ी भूमिका निभाने के लिए तैयार है चाहे कब और कैसे होगा इसका फैसला उन्होंने सोनिया गांधी तथा मनमोहन सिंह पर छोड़ दिया। जब सलमान खुर्शीद ने कहा कि राहुल केवल झलक ही दिखलाते हैं और उन्हें आगे आकर दिशा और नेतृत्व देना चाहिए तब ही समझ आ गया था कि कुछ खिचड़ी पक रही है नहीं तो सलमान खुर्शीद की यह जुर्रत नहीं कि युवराज पर कटाक्ष कर सके। उसके बाद केंद्रीय मंत्रियों तथा पार्टी के वरिष्ठ नेताओं ने ऊंची-ऊंची मांग करनी शुरू कर दी कि ‘राहुल लाओ, हमें बचाओ।’ पर ऐसी कांग्रेस की संस्कृति है। बड़े और वरिष्ठ मंत्री और नेता भी गांधी परिवार के सहारे के बिना नहीं रह सकते, अपना आधार नहीं है।
इन परिस्थितियों में यह अच्छा निर्णय है वह कब तक छिपते-छिपाते रहेंगे और इंतजार करते रहेंगे कि उनके लिए मौसम सुहावना हो? राजनीति में अच्छा समय भी आता है बुरा समय भी आता है। दोनों का सामना करना पड़ता है जैसा दिलेरी से इंदिरा गांधी ने किया था। अभी तक राहुल का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा जो बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब जैसे प्रांतों में पार्टी के फ्लाप शो से पता चलता है। न ही मालूम है कि देश की ज्वलंत समस्याओं के बारे उनके विचार क्या हैं, क्योंकि संसद में उनकी दखल न्यूनतम हैं। उत्तर प्रदेश में हाल ही में हुए स्थानीय निकाय के चुनावों में 12 सीटों में से भाजपा को 10 सीटें मिली। एक सपा और एक ही बसपा जीतने में सफल रही जिससे पता चलता है कि शहरी मिडल क्लास एक बार फिर भाजपा को पसंद कर रहा है। शहरी मिडल क्लास, सारा भारत नहीं है; पर देश में मिडल क्लास की संख्या बढ़ रही है और अगर याद करें कि पिछले आम चुनाव में कांग्रेस को हर बड़े शहर में समर्थन मिला था और अब वह बैंगलोर से लेकर अमृतसर तक शहरों में हार गई है तो पता चलता है कि तलाक हो रहा है। कांग्रेस की जो हालत बन रही है उससे तो यह संकेत मिलता है कि 100 सीटों तक भी पहुंचना उनके लिए मुश्किल होगा। अर्थात् जिस समय राहुल गांधी की ताजपोशी की तैयारी की जा रही है कांग्रेस तथा मनमोहन सिंह सरकार की हालत खस्ता नजर आ रही है, पर यही तो राहुल की परीक्षा है। उन्हें सरकार की साख बहाल करनी और वर्षांत तक गुजरात तथा हिमाचल के कठिन चुनावों का सामना करना है। अभी तक उनका न कोई दायित्व था न जवाबदेही, अब यह बदलने वाला है। यह उनके लिए और पार्टी दोनों के लिए अच्छा है। उनकी पलायनवादी छवि बदल जाएगी और कांग्रेस में अनिश्चिेतता और अस्पष्टता खत्म हो जाएंगी। जीत हार तो होती रहती हैं।
शरद पवार ममता बनर्जी नहीं हैं। वे सोच समझ कर कदम उठाते हैं इसीलिए उनकी नाराजगी से यूपीए में हड़कम्प मच गया है जबकि उनके पाए केवल 9 सांसद हैं और महाराष्ट्र में भी उनकी एनसीपी की कांग्रेस के बिना गति नहीं है। अपनी हैसियत से अधिक की उनकी हसरत सदा रही है। उन्होंने खुद माना है कि उनकी पार्टी छोटी है लेकिन साथ ही कह दिया है कि आम चुनाव को दो वर्ष रह गए हैं और उन्हें अपनी पार्टी की देखभाल करनी है। अगले चुनाव की चर्चा कर उन्होंने कांग्रेस के नेतृत्व को सावधान कर दिया है कि वह अगले विकल्प पर सोच रहे हैं। बहुत से मसले हैं जिनसे शरद पवार नाराज हो सकते हैं पर इनमें अधिकतर तो बहुत पहले से हैं। इस वक्तै उन्होंने इन्हें उठाने का फैसला क्यों किया है,? इसका उत्तर तो यही है कि वह हवा का रुख भांप रहे हैं और देख रहे हैं कि महंगाई, भ्रष्टाचार तथा प्रशासनिक तथा आर्थिक अनिर्णय ने इसे डूबता जहाज बना दिया है इसलिए देर सवेर छलांग लगाने की तैयारी में हैं।
उनकी यह कोशिश भी हो सकती है कि वे गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा गठबंधन का केंद्र बन कर उभरे पर इस वक्तह उनकी राजनीतिक सरगर्मियां देश का घोर अहित कर रही हैं। देश में बारिश की भारी कमी रही है। कई जगह तो मानसून 60-70 प्रतिशत कम है। अगर अगले कुछ सप्ताह में सुधार नहीं होता तो देश में तबाही मच जाएगी क्योंकि 60 प्रतिशत जनसंख्या अभी भी खेती पर निर्भर है। छ: प्रांतों में तो सूखे की स्थिति बन रही है। खरीफ की बुवाई प्रभावित हो गई है। खेती से लेकर, पीने के पानी से लेकर, मवेशियों से लेकर बिजली उत्पादन की समस्या खड़ी हो रही है। यह सही है कि हमारे पास अनाज का पर्याप्ति भंडार है। 2 करोड़ टन अनाज तो बाहर पड़ा सड़ रहा है। भूखमरी की स्थिति नहीं होगी पर देश की जनसंख्या की बहुसंख्या की आर्थिकता तो डांवाडोल होने वाली है। किसान के अस्तित्व को खतरा खड़ा हो जाएगा पहले ही कई क्षेत्रों मंथ किसान आत्महत्या कर रहे हैं। यह समय है कि बाकी सब कुछ छोड़ कर सरकार इस से निपटने की योजना बनाए। खाने की चीजों में पहले ही मुद्रास्फीती दर 10 प्रतिशत पहुंच गई है, यह रिकार्ड तोड़ सकती है। रोजगार का क्या होगा, कर्जे वापिसी का क्या होगा,? सरकार को बैठ कर आपातकालीन योजनाएं तैयार करनी चाहिए; पर इस वक्तो कृषि मंत्री जिनकी प्रमुख भूमिका होनी चाहिए, अपनी राजनीतिक शतरंज में व्यस्त हैं। उन्हें सूखे की चिंता नहीं, 2014 के चुनाव की है। उन्हें अपने विदर्भ इलाके में आत्महत्या करते किसान की चिंता नहीं, मंत्रिमंडल में नम्बर 2 की हैसियत की है। हां, बीच में पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलने की भी चिंता है। बड़ी आबादी का अस्तित्व संकट में है पर पवार की सेहत पर कोई असर नहीं। वे फिर साबित कर गए कि उनके लिए राजनीतिक उठक बैठक सब कुछ है। यह अकारण नहीं कि वे देश के सबसे अलोकप्रिय नेताओं में से हैं।
कांग्रेस अपना आखिरी पत्ता चलने की तैयारी कर रही है। हो सकता है कि राहुल में छिपी क्षमता हो जो हमें नजर न आती हो। आपातकाल कई बार मनुष्य की छिपी हुई क्षमता को बाहर निकाल देता है। अब भाजपा को भी फैसला करना है कि उनका भावी नेता कौन होगा? कांग्रेस अस्पष्टता खत्म करती जा रही है पर भाजपा में अगली पीढ़ी में भावी प्रधानमंत्री को लेकर उलझन और टकराव है। उधर ममता ने कह दिया कि वह अकेले चुनाव लड़ेगी और मुलायम सिंह यादव एफडीआई का विरोध कर अपनी फटी प्रतिष्ठा को सीने की कोशिश कर रहे हैं। वह भी 2013 में आम चुनाव की बात कह रहे हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है कि ‘मौसम के मुर्गे’ शरद पवार ने बदलते हालात का संकेत दे दिया है! अर्जुन सिंह ने अपनी किताब में लिखा है कि राजीव गांधी की हत्या के बाद जब उन्होंने पीवी नरसिंहाराव को यह सुझाव दिया कि सोनिया गांधी को नेता बनाया जाए तो राव चिल्ला उठे कि क्या कांग्रेस कोई ट्रेन है जिसे चलाने के लिए नेहरू-गांधी परिवार का इंजन चाहिए।? राव खुद पांच वर्ष इंजन बने पर आखिर में पार्टी ने उनकी बात को साबित कर दिया कि वास्तव में कांग्रेस की ट्रेन का इंजन गांधी परिवार ही है। पर अब हालत है कि एक इंजन (सोनिया गांधी) क्योंकि कुछ स्लो हो गया है इसलिए एक और इंजन (राहुल गांधी) को लाने की तैयारी है चाहे इस इंजन को स्टार्ट करने में कुछ दिक्कत आ रही है! एक और इंजन भी है, मनमोहन सिंह पर वह अलग लाईन पर अकेले खड़े हैं। पीछे कोई डिब्बा नहीं और ब्रेक जैम है। हो सकता है कि सोनिया और राहुल के दो इंजन मिल कर ट्रेन चलाने का प्रयास करें जैसे पहाड़ों में होता है। आखिर यहां भी तो पहाड़ जैसी परिस्थिति का सामना है!
-चन्द्रमोहन