हंगामा करने से कोई देश नहीं चलता
अपनी आरपार की लड़ाई की धमकी, तथा अरविंद केजरीवाल की ‘बलिदान’ देने की घोषणा से पीछे हटते हुए अन्ना टीम ने अनशन खत्म कर दिया है। अब अन्ना का कहना है कि इस पर समय क्यों बर्बाद किया जाए? साथ ही घोषणा भी कर दी कि वह राजनीति के मैदान में उतरेंगें। यह होता है या नहीं कहा नहीं जा सकता क्योंकि राजनीति करना सबके बस की बात नहीं है। जयप्रकाश नारायण ने भी सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान देकर आंदोलन चलाया था। वह इंदिरा शासन को उखाडऩे में सफल रहे थे लेकिन व्यवस्था वह भी बदल नहीं सके। वीपी सिंह, चंद्र शेखर, लालू प्रसाद यादव या मुलायम सिंह यादव सब जयप्रकाश आंदोलन की पैदायश हैं। वे कितने साफ-सुथरे सुच्चे थे या हैं यह सारा देश जानता है। खुद जयप्रकाश नारायण का अंत निराशा में हुआ था। उनका कहना था कि बाग उजड़ गया। अर्थात् नेक इरादा ही सब कुछ नहीं होता उसे व्यावहारिक शक्ल भी देनी पड़ती है। खुद गांधी जी कांग्रेस को खत्म करना चाहते थे। अन्ना टीम से जुड़े संतोष हैगड़े तथा मेधा पाटेकर जैसे लोग सक्रिय राजनीति में कदम रखने के खिलाफ हैं। लगातार एक ही मुद्दे पर आंदोलन चलाना भी आसान नहीं है। चार-पांच लोग देश भर में जाति/धर्म की राजनीति कैसे कर लेंगे? मुंबई में ही पता चल गया था कि अन्ना के आंदोलन की भाप कम हो रही है। लोगों में वह उत्साह और जोश नहीं रहा था। इस बार जंतर-मंतर पर भीड़ और भी कम हो गई थी। इस तथाकथित राजनीति प्रयास के तो बाबा रामदेव भी समर्थक नहीं। पहली बार सरकार भी इस आंदोलन से सोच विचार से निबटी है; वह घबराहट नहीं थी जो पहले देखने को मिली। अब टीम अन्ना सरकार की बेरुखी की शिकायत करती है पर जब आप खुद सरकार के 15 मंत्रियों तथा 162 सांसदों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाओगे तो आप सरकार से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह आपके गले में हार डालेगी।
गांधीजी ने अनशन को अंतिम हथियार कहा था लेकिन अन्ना की टीम तो उस वक्त अनशन पर बैठ गई जब मामला अभी संसद में लंबित है। गांधीजी ने कहा था, ‘एक सिद्धान्त मैं रखना चाहता हूं। एक सत्याग्रही को अनशन तब करना चाहिए जब समाधान के बाकी सभी रास्तों को खोजा गया हो और वे असफल रहे हों।’ यह सही है कि पिछले अधिवेशन में लोकपाल विधेयक पास करवाए बिना सरकार राज्यसभा से भाग गई थी लेकिन मामला अभी संसद में है, जो देश की सर्वोच्च संस्था है। अगर संसद विधेयक पारित नहीं करती तो कुछ नहीं किया जा सकता। बर्दाश्त करना पड़ेगा। टीम अन्ना के कुछ उग्रवादी सदस्य तो यह प्रभाव देने लग पड़े थे कि उन्हें संसद पर ही विश्वास नहीं है। जैसे मैंने पहले भी इस कालम में लिखा है, हमने व्यवस्था बदलनी है उसे उखाड़ना नहीं। जो हश्र हुआ इसके लिए मैं पूरी तरह से अरविंद केजरीवाल को जिम्मेवार ठहराता हूं जो इस आंदोलन को हाईजैक करने में सफल रहे। यह नौजवान पूरी तरह से ईमानदार है, वचनबद्ध है पर उग्रवादी है। उन्हें समझना चाहिए कि जैसी-तैसी भी है हमारी अपनी हकूमत है। इसे बदलने का मौका 2014 में हमें मिल जाएगा और हम इसे बदलेंगे। जिस तरह वह राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री के खिलाफ अपशब्दों का इस्तेमाल करते रहे हैं उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। फिर उनका कहना था कि मैं बलिदान दे दूंगा, यहां से मेरी लाश ही जाएगी, सब बहुत नाटकीय है लेकिन केवल जज़्बात से लड़ाई नहीं जीती जा सकती। अपनी कुर्बानी देना बहुत आसान नहीं। दर्शन सिंह फेरुमान जैसे बहुत कम लोग हैं। यहां भी गांधीजी के शब्दों का उल्लेख करना चाहता हूं कि एक सत्याग्रही के लिए, ‘असीमित धैर्य, दृढ़ निश्चय, पूर्ण शांति तथा किसी भी प्रकार का गुस्सा नहीं होना चाहिए।’ केजरीवाल तो राष्ट्रपति तथा प्रधानमंत्री तक को गालियां निकालते रहे हैं।
अब कहा गया कि वह राजनीतिक दल बनाएंगे। मुझे मालूम नहीं कि ये लोग इस मामले में गंभीर है या किसी तरह अनशन खत्म करने का बहाना ढूंढ रहे थे क्योंकि कोई सोची समझी रणनीति नहीं हैं। ‘राजनीतिक विकल्प’ खड़ा कैसे होगा? 543 सीटों पर आप चुनाव कैसे लड़ेंगे? पैसा कहां से आएगा? योग्य ईमानदार लोग कैसे इकट्ठा करेंगे? संगठन कैसे चलेगा? जय प्रकाश नारायण के आंदोलन भी संघ के संगठन के बल पर चला था। विशेष तौर पर उत्तर भारत में इतना समर्थन संघ के कारण था दक्षिण में संघ कमजोर था इसलिए वहां कांग्रेस फिर भी कायम रही। वैसे तो अच्छा है कि वे राजनीति में कदम रखें ताकि उन्हें आटे-दाल का भाव मालूम हो जाए। बाहर से आलोचना करना आसान है, अंदर घुस कर भ्रष्ट व्यवस्था बदलना बहुत मुश्किल। उन्हें संवैधानिक तथा प्रशासनिक कठिनाईयों का भी मालूम हो जाएगा। राजनीति की असलियत से सामना होगा लेकिन इसके बावजूद मैं उन्हें सलाह दूंगा कि वे इस पचड़े में न पड़ें। चार पांच आदर्शवादी लोगों का टोला राजनीतिक दल खड़ा नहीं कर सकता। कोई जयप्रकाश नारायण जैसी शख्सियत नहीं है जो नेतृत्व दे और न ही वैसा माहौल है। इतना बड़ा राजनीतिक परिवर्तन लाते हुए भी गांधी जी ने खुद को राजनीति से अलग और ऊपर रखा था। अन्ना हजारे बहुत भले और सही इरादे वाले सज्जन पुरुष हैं पर उनका जयप्रकाश वाला कद नहीं, न ही वह विवेक है। गांधीजी की तो बराबरी ही नहीं की जा सकती। गांधी जी बनिया तथा बैरिस्टर दोनों थे! अभी से अन्ना यह प्रभाव दे रहे हैं कि दिशा देने की जगह वह अपनी टीम के उग्रवादियों को दिशा तय करने दे रहे हैं; जिसका अंजाम इस अनशन की असफलता में नजर आ रहा है। ठीक है देश की तकदीर बदलनी चाहिए। जनता की भावना व्यवस्था के बिल्कुल विपरीत है। भ्रष्टाचार से त्रस्त लोग विकल्प चाहते हैं। हमारी राजनीति ही भ्रष्टाचार को पोषित करती है लेकिन यह सब कुछ करना सिविल सोसायटी के चार पांच लोगों के बस का योग नहीं। संतोष हैगड़े, मेधा पाटेकर जैसे लोग इस राजनीतिक कदम का विरोध कर रहे हैं। याद रखना चाहिए कि भारत में कभी क्रांति सफल नहीं हुई। इतनी गरीबी के बावजूद हमने साम्यवादियों को कोने में लगा दिया है। वही मिडल क्लास जिसने पिछले साल इतना समर्थन दिया था अब नकारती नजर आती है। उनके सामने और भी मुद्दे हैं। फोकस बदल गया।
पर एक मायने में उनका आंदोलन सफल हो चुका है। वे देश को जागरूक करने निकले थे वे इसमें सफल रहे। भ्रष्टाचार तथा कालाधन अब बड़े मुद्दे बन चुके हैं। यह अन्ना हजारे तथा बाबा रामदेव का योगदान है। कोई भी सरकार अब इन मुद्दो की अनदेखी नहीं कर सकती। देर-सवेर लोकपाल कानून बनाना पड़ेगा। उन्हें इन मुद्दों को लेकर देश भर में प्रचार करना चाहिए। सरकार पर दबाव बढ़ाने का यही सही रास्ता है। अगर वे राजनीतिक दल बनाएंगे तो सरकार के चक्रव्यूह में फंस जाएंगे, जहां से वे कभी निकल नहीं पाएंगे। अनशन करना भी आसान नहीं पर नक्सलवादियों, आतंकवादियों, असम में शरणार्थियों, महंगाई, सूखे, बाढ़ इत्यादि से निबटना और भी मुश्किल है। कोई भी राजनीतिक आंदोलन केवल एक मुद्दे, भ्रष्टाचार, पर आधारित नहीं हो सकता। जैसा एक पाठक अंकित गोयल ने हाथरस से मुझे मेल में लिखा है, ‘हंगामा करने से कोई देश नहीं चलता।’
-चन्द्रमोहन