
कौन राहजन, कौन रहनुमा?
चाहे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने शायराना अंदाज में कहा है कि ‘हजारों जवाबों से अच्छी है मेरी खामोशी, न जाने कितने सवालों की आबरु रखी,’ पर बेहतर होता कि ‘सवालों की आबरु’ रखने की जगह वे बताते कि जून 2004 में कोयला ब्लाक आबंटन के नीलामी का निर्णय लेने के बाद आठ साल तक उस पर कार्रवाई क्यों नहीं की गई; उनकी तो खुद सरकार की आबरु खतरे में है। वे कहते हैं कि इस्तीफा नहीं दूंगा। कोई उन्हें मजबूर भी नहीं कर सकता पर इस जर्जर हालत में यह सरकार चलेगी भी कैसेॽ जिस सरकार का इकबाल खत्म हो गया वह फैसले कैसे लेगीॽ अपने जवाब में प्रधानमंत्री ने अपने सिवाय बाकी सब पर दोष मढ़ दिया। सीएजी गलत है, कोयला नीति बनाने में आठ साल की देरी के लिए या प्रदेश सरकारें जिम्मेवार हैं या कानून मंत्रालय की सलाह जिम्मेवार है या संसदीय प्रणाली जिम्मेवार है। अर्थात् अगर राजस्व का नुकसान हुआ तो प्रधानमंत्री जो तीन वर्ष कोयला मंत्री भी थे, जिम्मेवार नही हैं। और यह भी बताया नहीं गया कि इन निजी कंपनियों का चयन किस आधार पर किया गया? मनमर्जी क्यों हुई? सच्चाई है कि खुद यह सरकार प्रतिस्पर्धी बोली के कदम से पीछे हट गई। कैग पर भड़ास निकालने का कोई फायदा नहीं। वह एक संवैधानिक संस्था है और अगर उसने राष्ट्रीय हित में सीमा पार भी कर ली है तो भी कोई गुनाह नहीं किया। कैग ने अपनी रिपोर्ट के शुरू में लिखा है कि प्रतियोगी बोली की प्रक्रिया शुरू करने में देरी से देश का भारी नुकसान हुआ है। सरकार की छींटाकशी से कैग का नुकसान नही हुआ, सरकार की अपनी विश्वसनीयता कम हुई है। कैग का कहना है कि अगर 2005-2009 के बीच कोयला ब्लाक नीलाम कर दिए जाते तो 1.86 लाख करोड़ अतिरिक्त राजस्व प्राप्त होता। सरकार का पक्ष है कि इन खदानों से कोयला निकला ही नहीं फिर नुकसान क्या।? यह तो इस प्रकार का तर्क है कि किसी को कौड़ियों के भाव सरकारी जमीन दे दो और कह दो कि वहां निर्माण तो हुआ नहीं, इसलिए सरकार को नुकसान क्या हुआ? और कोयले की खदानें तो देश के सबसे गरीब और पिछड़े क्षेत्र में हैं। सरकार गरीबों की गरीबी का मजाक उड़ा रही लगती है। हैरानी नहीं कि माओवादी वहां पैर जमा चुके हैं। अब भाजपा जहां कोयला ब्लाक आबंटन को रद्द कर नए सिरे से नीलामी की मांग कर रही है, वहां सुषमा स्वराज का कहना है कि कांग्रेस ने इसमें ‘मोटा माल’ खाया है। हमारे राजनीतिक शब्दकोष में मनमोहन सिंह, मुलायम सिंह, ममता बनर्जी तथा मायावती के बाद एक और ‘म’ जुड़ गया है- मोटा माल! अब तो वित्तमंत्री पी. चिदंबरम भी कह रहे हैं कि उन्होंने कभी नहीं कहा कि ‘जीरो लॉस’ अर्थात् शून्य नुकसान हुआ था लेकिन यह तो साफ ही है कि अगर इन्हें नीलाम किया जाता तो राजस्व में भारी वृद्घि होती। अगर प्रधानमंत्री अड़ जाते तो 2जी में भी गड़बड़ न होती और कोयला ब्लाक आबंटन में भी घपला नहीं होता। जिस तरह की प्रतिबद्घता उन्होंने अमेरिका के साथ परमाणु समझौता करने में दिखाई वह इन आर्थिक मामलों में क्यों गायब रहीॽ
प्रधानमंत्री का जवाब बराबर सवाल खड़े कर गया है। इस सरकार को सुरक्षात्मक बनाने का काम मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा ने बहुत बढ़िया ढंग से किया है। विपक्ष का दायित्व भी है कि वह सरकार की गलतियों और कमजोरियों को उजागर करे। एक जगह सी. राजागोपालाचारी ने लिखा है कि ‘हमें ऐसा विपक्ष चाहिए जो अलग सोचता हो और उन्हीं बातों को न दोहराए।’ इस मामले में भाजपा खरी उतरी है। चाहे 2जी का मामला हो, या राष्ट्रमंडल खेलों का मामला हो या अब यह कोयला खदानों के आबंटन का मामला हो, भाजपा सरकार को क्षतिग्रस्त करने में कामयाब रही है पर अब संसद में बस करने का समय आ गया है। लोग रोज-रोज के शोर-शराबे से तंग आ गए हैं और चाहते हैं कि संसद चले। देश के आगे और भी बहुत सी चुनौतियां हैं। चाहिए यह था कि भाजपा संसद के अंदर प्रधानमंत्री को घेरती पर भाजपा तो संसद को ही ठप्प कर बैठ गई है जो एक संसदीय लोकतंत्र में बिल्कुल अनुचित है। साफ है प्रधानमंत्री इस्तीफा नहीं देंगे तो क्या 20 महीने संसद चलने नहीं दी जाएगी।
केंद्रीय सरकार बुरी तरह से जकड़ी गई है। कांग्रेस के लिए यह घोटाला बहुत बुरे समय में आया है। ‘परिवार’ का ही अवमूल्यन हो गया और युवराज जिम्मेवारी उठाने से भाग गए लगते हैं। एक तरफ वह महंगाई, गिरते विकास, बढ़ती बेरोजगारी से जूझ रही थी कि कैग की नवीनतम रिपोर्ट से तो सरकार ही लड़खड़ा गई है। इस बार तो सरकार यह भी नहीं कह सकती कि ए. राजा जैसे किसी छुटभैय्या मंत्री ने इतनी बड़ी भारत सरकार को गुमराह कर दिया क्योंकि दायित्व सीधा प्रधानमंत्री का था। अभी तक यूपीए हर मामले पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ईमानदारी का हवाला देकर बचने का प्रयास करती रही है। भारी घपले, भ्रष्टाचार तथा अनियमितताओं को लेकर विपक्ष के वार से बचने के लिए डा. मनमोहन सिंह की ईमानदारी को कवच के तौर पर इस्तेमाल किया गया। अब इस कवच में भी बड़े-बड़े छिद्र हो गए हैं। अब तो मुलायम सिंह यादव भी विरोध कर रहे हैं पर वे कल क्या पैंतरा अपना लें कोई निश्चित नहीं कह सकता। कब्र से तीसरा मोर्चा निकालने का प्रयास लगता है। कैग की रिपोर्ट के अनुसार कोयल ब्लाक आबंटन में खजाने को 1.86 लाख करोड़ का चूना लगा है, दिल्ली हवाई अड्डे के लिए सस्ती जमीन देने का घोटाला 1.63 लाख करोड़ रुपए का है और बिजली की परियोजनाओं का घपला 29033 करोड़ रुपए का है। रिपोर्ट के अनुसार हमारी संभावित हानि 38,00,00,00,00,000 रुपए की है। अर्थात् यह घोटाला तो 2जी घोटाले का भी बाप है। अगर इस मामले में घपला न होता तो देश में इन्फ्रास्ट्रक्चर का कायाकल्प हो सकता था लाखों लोगों को गरीबी की रेखा से ऊपर निकाला जा सकता था। पर पवन बांसल का कहना है कि भाजपा ‘कुछ नहीं में से मुद्दा निकाल रही है।’ याद करिए कि 2जी के बाद भी इस सरकार की लगभग ऐसी ही प्रतिक्रिया थी जब मुस्कराते कपिल सिब्बल ने घोषणा कर दी थी कि कुछ नहीं हुआ, शून्य नुकसान हुआ है, विपक्ष खामखाह शोर मचा रहा है। उसी के बाद ए. राजा को गिरफ्तार कर तिहार जेल भेज दिया गया था। एक बात और कहना चाहूंगा। मामला केवल कांग्रेस बनाम भाजपा का ही नहीं हैं। यह मामला भारत की सवा सौ करोड़ जनता से जुड़ा हुआ है। वे जानना चाहते हैं कि इस सरकार के कार्यकाल में इतने महाघोटाले बार-बार क्यों हो रहे हैंॽ
भ्रष्टाचार के मामलों की सुनामी ने सरकार का इकबाल तबाह कर रख दिया है। स्पैक्ट्रम के बारे अधिकतर को समझ नहीं थी लेकिन ‘कोयले की कालिख’ तो सब समझते हैं। आम आदमी का हाथ पकड़ने का दावा करने वाली कांग्रेस बड़े-बड़े औद्योगिक घरानों को लाखों करोड़ों रुपए का फायदा क्यों पहुंचाती रहीॽ? पार्टी की समस्या यह भी है कि विपक्ष की ऊंची लहरों से बचने के लिए मनमोहन सिंह की ईमानदारी का जो बांध था, उसमें भी अब दरारें नजर आने लगी हैं। प्रधानमंत्री को भी समझना चाहिए कि आखिर में जवाबदेह वह ही हैं कोई और नहीं, क्योंकि यह मनमोहन सिंह की सरकार है। इसलिए इस शोचनीय स्थिति पर मुझे कहना है:
बेवफा की महफिल में दिल की बात कहिए,
खैरियत इसी में है खुद को बेवफा कहिए,
राहजनों को भी यहां तो रहबरों ने लूटा है,
किस को राहजन कहिए, किसको रहनुमा कहिए!