विश्वास भी पेड़ों पर नहीं लगता

विश्वास भी पेड़ों पर नहीं लगता

अभी तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह यह प्रभाव देते रहे कि देश में कुछ भी हो जाए, उन्हें किसी को स्पष्टीकरण देने की जरूरत नहीं है। वास्तव में कांग्रेस की त्रिमूर्ति (सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह और राहुल गांधी) यह प्रभाव देती रही कि उन्हें किसी को कोई जवाब देने की जरूरत नहीं। लेकिन ममता बैनर्जी की तृणमूल कांग्रेस का यूपीए से प्रस्थान, सफल भारत बंद तथा डीज़ल की कीमतों में भारी वृद्धि और रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को लेकर देश में जो भूचाल आया उसने सरकार को इस तरह हिला कर रख दिया कि प्रधानमंत्री को भी अपनी बात कहने के लिए जनता के सम्मुख आना पड़ा। पर अफसोस यह है कि उन्होंने जो जवाब दिया वह भी कई सवाल छोड़ गया। प्रधानमंत्री का कहना है कि मंदी से उबरने के लिए सख्त निर्णय लेने का समय आ गया है। बड़ा सवाल तो यह है कि यह हालत बने कैसे और कौन इसके लिए जिम्मेदार है? जब वे प्रधानमंत्री बने तो अर्थव्यवस्था मजबूत थी। अर्थव्यवस्था का भट्ठाइ तो तब बैठने लगा जब एक के बाद एक घोटाला फटने लगा। इतने बड़े घोटाले हुए कि शायद कैलकूलेटर में इतनी ज़ीरो भी नहीं हैं। इसी के साथ सब कुछ ध्वस्त हो गया। कोयला ब्लाक आबंटन घोटाला बता गया कि यह सरकार प्राकृतिक संसाधनों को इस तरह बांटती रही जैसे यह उनकी जागीर हो। मुस्कराते हुए गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे का तो कहना है कि लोग कोयले के घोटाले को भी उसी तरह भूल जाएंगे जैसे बोफोर्स को भूल गए हैं।

वे गलतफहमी में हैं। वे भूल गए कि बोफोर्स ने किस तरह राजीव गांधी की सरकार को समेट दिया था। लोग न भूलते हैं, न माफ करते हैं और समय आने पर पूरा हिसाब करते हैं। अफसोस तो यह है कि शिंदे की ही तरह प्रधानमंत्री भी समझते हैं कि घोटाले इतने महत्वपूर्ण मामले नहीं हैं कि जनता को स्पष्टीकरण देने की कोई जरूरत है। जब 2जी स्पैक्ट्रम मामले ने विस्फोट किया तब भी यही रवैया था कि सब ठीक-ठाक है, कोई गड़बड़ नहीं हुई। बाद में सब रद्द करना पड़ा। यह कोयला घोटाला भी उसी तरह परेशान करेगा बल्कि यह तो और भी खतरनाक है क्योंकि निशाने पर खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह हैं जो कई वर्ष कोयला मंत्री रहे। उन्हें जवाब देना होगा कि वह कांग्रेस पार्टी के ‘नीयर्ज एंड डीयर्ज’ पर इतने मेहरबान क्यों रहे? उनका कहना था कि पैसा पेड़ पर नहीं लगता। बिलकुल बात सही है। यही तो देश की जनता शिकायत कर रही है कि पैसा वास्तव में पेड़ पर नहीं लगता, फिर इसके बारे इतनी लापरवाही क्यों दिखाई गई? कुछ वर्षों में एक ताकतवर अर्थव्यवस्था को आपने इतनी जर्जर हालत में क्यों परिवर्तित होने दिया कि आपको 1991 का हौवा खड़ा करना पड़ा? गाड़ी का चालक अगर चक्के पर सो जाए तो दुर्घटना तो होगी ही। अब बताया जा रहा है कि रिटेल में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से कायाकल्प हो जाएगा। अगर वास्तव में यह एक रामबाण है तो फिर नवम्बर में इसे लागू क्यों नहीं किया गया? नहीं प्रत्यक्ष विदेशी निवेश कोई रामबाण नहीं। न ही यह अधिक सफल ही होगा। पर आर्थिक संकट से भी बड़ा एक और संकट है, यह विश्वास का संकट है जो ध्यान हटाने के प्रयासों से रफा दफा नहीं होगा। भ्रष्टाचार के कारण यह सरकार लोगों का विश्वास खो रही है। प्रधानमंत्री का कहना था कि पैसा पेड़ों पर नहीं लगता। उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि विश्वास भी पेड़ों पर नहीं लगता, इसे भी अर्जित करना पड़ता है।

कई बार राष्ट्रीय हित में कड़े और अलोकप्रिय कदम उठाने पड़ते हैं। जनता भी समर्थन देती है। इसके लिए नेतृत्व की विश्वसनीयता बहुत जरूरी है। लाल बहादुर शास्त्री के समय देश की मदद के लिए जनता कुर्बानी देने को तैयार थी क्योंकि शास्त्री जी का जीवन खुद मिसाल था पर यहां तो पिछले कुछ सालों में धड़ाधड़ महा घोटाले होते रहे और प्रधानमंत्री ने उन्हें रोकने का प्रयास नहीं किया। अब वही प्रधानमंत्री लोगों से कुर्बानी मांग रहें हैं। महंगाई तथा भ्रष्टाचार ने लोगों को चूस लिया है। शिक्षा तथा स्वास्थ्य क्षेत्रों की हालत बुरी है। दुनिया में सबसे अधिक कुपोषित बच्चे भारत में हैं। हमारे पड़ोसी नेपाल, बांग्लादेश तथा श्रीलंका भी बेहतर स्थिति में हैं। एनडीए के समय सड़ निर्माण को जो प्राथमिकता दी गई थी वह भी खत्म कर दी गई। किसान लगातार आत्महत्या कर रहा है। कृषि में विकास की दर जमीन तक पहुंच गई है। न ही इस सरकार ने भ्रष्टाचार को खत्म करने या कम करने के लिए ही ‘सुधारों’ का सहारा लिया। सोचा गया था कि लाइसैंस कोटा परमिट प्रणाली तथा लाल फीताशाही को खत्म कर आर्थिक सुधारों तथा उदारवाद को अपना कर खुद ही भ्रष्टाचार कम हो जाएगा लेकिन भारत तो दुनिया के सबसे भ्रष्ट देशों में गिना जाने लगा है। राजनेता तथा बिग बिजनेस जनता को लूटने के मकसद से लंगोटिया यार बन गए हैं। प्रधानमंत्री के तथाकथित सुधारों की वकालत करने कॉरपोरेट जगत की जिन हस्तियों को टीवी पर पेश किया जा रहा है, उन्हें ही तो जनता इन घोटालों में बराबर साझीदार समझती है। जिन्हें ‘कैपटनज़ आफ इंडस्ट्री’ कहा जाता है अगर पिछले 5-6 साल में उनकी जायदाद में वृद्धि के बारे श्वेतपत्र जारी किया जाए तो सब साफ हो जाएगा कि उदारवाद के असली लाभकारी कौन हैं? इन साढ़े आठ सालों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने दो बार अपनी सरकार को दांव पर लगाकर कथित सुधारों को बढ़ावा दिया है। 2008 में उन्होंने अमेरिका के साथ परमाणु समझौता किया था। हम सबने इसका भारी समर्थन किया पर इन चार वर्षों में यह समझौता बिजली का एक यूनिट पैदा नहीं कर सका। प्रधानमंत्री अब इसका जिक्र तक नहीं करते। बताया जा रहा है कि वॉल मार्ट, टैस्को या केरफोर के आने के बाद 6 से 8 लाख नई नौकरियां पैदा होंगी। प्रधानमंत्री मुझे माफ करें लेकिन उन्हीं के शब्दों का इस्तेमाल कर कहना चाहूंगा कि वे गुमराह कर रहे हैं। इन सुपर मार्केट के आने के बाद उलटा बेरोजगारी बढ़ेगी क्योंकि लाखों परिवार जो छोटी-छोटी करियाना दुकानें चलाते हैं, उनका धंधा खतरे में पड़ जाएगा। प्रतिष्ठित एनआरआई राजनेता कैथ वाज़ जो इस वक्त इंग्लैंड में लैस्टर ईस्ट से सांसद हैं, ने लैस्टर की मुख्य सड़क पर टैस्को को अपना सुपर मार्केट नहीं खोलने दिया क्योंकि वे अपने चुनाव क्षेत्र में परिवारों द्वारा खोली गई छोटी-छोटी दुकानों को बंद नहीं होना देना चाहते थे और नहीं चाहते थे कि उनका रोजगार छिन जाए।

क्या ऐसी चिंता हमारे प्रधानमंत्री की भी कहीं नज़र आती है? वह तो ‘सुधारों’ का सब्जबाग हमें दिखा रहे हैं। क्या उन्होंने कभी सोचा है कि न्यूयार्क वालों ने अपने महानगर में वॉल मार्ट क्यों नहीं खोलने दिया? इसलिए कि वह छोटे दुकानदारों को कुचल देता है। पहले सस्ता माल बेच कर उन्हें खत्म कर देगा और बाद में कीमतें बढ़ा लेगा। मैं ईस्ट इंडिया कम्पनी का हौवा खड़ा नहीं करना चाहता पर इन विदेशी कम्पनियों की शिकारी मानसिकता खत्म नहीं हुई। अब फिर बाजार उनके हवाले किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि किसान को बहुत फायदा होगा। क्या आप समझते हैं कि ये लोग हमारे किसान को फायदा पहुंचाने के लिए यहां आ रहे हैं? असली बात है कि जबसे पहले ‘टाइम’ मैगजीन और फिर ‘वाशिंगटन पोस्ट’ ने प्रधानमंत्री का मज़ाक उड़ाया है वे हिल गए लगते हैं। देश के अंदर आलोचना की वे परवाह नहीं करते पर विदेशी, विशेषतौर पर अमरीकी, आलोचना वे सह नहीं सकते। यही हालत हमारे अंग्रेजी मीडिया की भी है जो पश्चिम के मीडिया से इशारा प्राप्त करता है। इसलिए उन कदमों को ‘रिफार्म’ कह जनता के गले में उतारा जा रहा है जो वास्तव में बड़ी विदेशी कम्पनियों को लाभ पहुंचाने के लिए उठाए गए हैं। भारत के अरबों डालर के रिटेल क्षेत्र में घुसपैठ करने का रास्ता खुल गया है। इसीलिए देश के अंदर इस कदम का इतना विरोध हो रहा है। याद रखना चाहिए कि भारत छोटे लोगों का देश है जो महंगाई, बेरोजगारी तथा भ्रष्टाचार की मार से कराह रहे हैं और इस सरकार को उसके नए कदमों के बारे बताना चाहते हैं कि,

नई बहार का नगमा न छेड़ ए मुंतजि़र,

अभी पुराने जख्मों का दर्द ताज़ा है।

-चन्द्रमोहन

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.