जो बेरोजगारी बढ़ाए वह ‘रिफॉर्म’ कैसा?
मैं अर्थ शास्त्री नहीं हूं। विशेषज्ञ भी नहीं हूं। अर्थ व्यवस्था को किस तरह सही करना है और विकास की दर कैसे बढ़ानी है इसका कोई कारगर सुझाव मेरे पास नहीं है। लेकिन हां, भाषा का कुछ ज्ञान है इसलिए जिस लापरवाही से हमारे देश में ‘रिफॉर्म’ शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है उसे देख कर हैरानी होती है। ‘रिफॉर्म’ का हिन्दी अनुवाद ‘सुधार’ है। ‘इकनौमिक रिफॉर्म’ का अर्थ आर्थिक सुधार। पर यहां पश्चिम से जो भी आए उसे ‘रिफॉर्म’ कहा जाता है, चाहे इससे लोगों की हालत सुधरने की जगह कितनी ही और बिगड़ जाए। नवीनतम मिसाल एफडीआई को लेकर है। खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बहुत बड़ा ‘आर्थिक सुधार’ कहा जा रहा है। विशेषतौर पर बताया जा रहा है कि अगर अमेरिकी कंपनी वॉलमार्ट को देश के अंदर प्रवेश दे दिया जाए तो एक प्रकार से अर्थव्यवस्था का कायाकल्प हो जाएगा। मायूसी हट जाएगी और सूरज निकल आएगा। फूल खिलेंगे गुलशन-गुलशन! पर वॉलमार्ट को लेकर असली स्थिति क्या है? यह दुनिया की सबसे बड़ी सुपरमार्केट चेन है और वह वैश्विक स्तर पर 450 अरब डॉलर का व्यापार करती है। लगभग इतना ही 450 अरब डॉलर का हमारा अपना खुदरा व्यापार है। लेकिन एक बहुत बड़ा अंतर है। वॉलमार्ट वैश्विक स्तर पर 20 लाख लोगों को रोजगार देता है जबकि हमारा खुदरा व्यापार हमारे 4 करोड़ लोगों को रोजगार देता हैं। अगर यहां वॉलमार्ट आ गया तो वह छोटे दुकानदारों को मसल डालेगा और अनुमान है कि अगर वॉलमार्ट यहां एक व्यक्ति को रोजगार देगा तो 20 दुकानदारों की हट्टी बंद हो जाएगी। अभी से कुछ सुपरमार्केट के कारण छोटी पारिवारिक दुकानों की रौनक घट रही है; अगर वॉलमार्ट जैसे बड़े सुपरमार्केट यहां जम गए तो तबाही हो जाएगी। इसीलिए मेरा सवाल है कि जो कदम करोड़ों भारतीयों की तबाही का कारण बन सकता है उसे आप ‘रिफॉर्म’ कैसे कह सकते हैं? अधिक से अधिक आप इसे आर्थिक कदम, सही या गलत, कह सकते है। लेकिन इसे रिफार्म कह कर लोगों के गले उतारने की कोशिश की जा रही है। जो पति-पत्नी की दुकान है या बाप-बेटे की दुकान है, वे छोटे लोग कहां जाएंगे? उनके रोजगार का कौन प्रबंध करेगा? अब पैंशन तथा बीमा क्षेत्र भी विदेशियों के लिए खोले जा रहे हैं। यह भी ‘सुधार’ हो गया!
याद रखना चाहिए कि भारत छोटे लोगों का देश है उनका हित सामने रख कर ही फैसले किए जाने चाहिए। हमें निवेश चाहिए लेकिन यह ऐसा नहीं होना चाहिए जो हमारे लोगों को बेघर और बेरोजगार कर दे। पश्चिम की लॉबी तड़प रही है कि हम उनकी घुसपैंठ के लिए दरवाजा खोलें लेकिन अमेरिका ने वियतनाम, इराक, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, थाईलैंड, ईरान जैसे देशों का क्या हाल किया है यह सब जानते हैं। हमारे यहां भी यूनियन कारबाईड के भोपाल कारखाने में गैस लीक से हजारों लोग मारे गए थे। लाखों अभी भी पीडि़त हैं। अमेरिका ने हमारी मदद के लिए छोटी उंगली तक नहीं उठाई। इसके विपरीत यूनियन कारबाईड के अध्यक्ष एंडरसन को अपने यहां सुरक्षित रखा। आज स्थिति है कि न्यूयार्क तथा वाशिंगटन में वाल मार्ट खोलने की इजाजत नहीं दी गई है। जहां वह खुला है वहां उसकी नीतियों को लेकर प्रदर्शन हो रहे हैं। आरोप है कि वह बेरोजगारी तथा गरीबी बढ़ाते हैं और कर्मचारियों का शोषण करते हैं और घटिया चीनी माल बेचते हैं। जून में लॉस एंजेलस में दस हजार लोग वालमार्ट के खिलाफ प्रदर्शन कर चुके हैं। अमेरिका में कई सर्वेक्षण हमारी सरकार के इस दावे का प्रतिवाद करते हैं कि खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से छोटे दुकानदारों का अहित नहीं होता। प्रमुख अर्थ शास्त्री जयंती घोष का अनुमान है कि वालमार्ट का एक स्टोर 1400 छोटी दुकानों की जगह लेगा और 5000 लोग को बेरोजगार करेगा। लेकिन हमारी सरकार बेतहासा एफडीआई को ‘सुधार’ कहती है। 2006 में वालमार्ट को जर्मनी से निकलना पड़ा था। एक और तर्क दिया जा रहा है कि इससे किसानों को फायदा होगा। यह कोल्ड स्टोरेज बनाएंगे जिससे इस समय कृषि उत्पाद का 40 प्रतिशत नुकसान बच जाएगा। लेकिन अभी तक देश के अंदर अपने जो बड़े रिटेलर है उन्होंने ऐसे कोल्ड स्टोर नहीं बनाए फिर हम विदेशियों से कैसी आशा रखते हैं कि वे ऐसा करेंगे? वे यहां लाभ कमाने आ रहे हैं हमारे किसान के कल्याण के नहीं। उन्होंने देख लिया है कि यहां इस मामले में भारी मतभेद है, इसलिए अधिक निवेश की संभावना वैसे ही नहीं है।
अमेरिका की नीति अपने आर्थिक फायदे पर केंद्रित रहती है। जब बराक ओबामा भारत आए तो राजधानी दिल्ली में उतरने की जगह 250 अमेरिकी बिसनेस लीडरों के साथ सीधे मुंबई में उतर गए। 450 अरब डॉलर के समझौते कर लौट गए और जाते-जाते भारत भूमि पर ही गर्व के साथ घोषणा कर गए कि मैंने 50,000 अमेरिकी नौकरियां पक्की कर ली है, जैसे कि राष्ट्रपति नहीं एक सेलसमैन हो जिसे बताना पड़ता है कि दौरे का फायदा क्या हुआ है? लेकिन यह 2 वर्ष पहले की बात है। 450 अरब डॉलर कब के हज़्म हो चुके हैं इसलिए अमेरिका फिर भूखा है और बराक ओबामा फिर अधीर हो रहे हैं। भारत में मिडल क्लास में उपभोक्ता संस्कृति घर कर रही है इसलिए अमेरिकी की नजरें यहां हैं। ओबामा चाहते हैं कि भारत अर्थव्यवस्था खोल दे लेकिन खुद संरक्षणवादी प्रवृत्ति दिखाते हुए भारत में नौकरियों को ‘आऊटसोर्स’ करने का विरोध कर रहे हैं। साफ बात है कि अगर अपनी नौकरियों को बचाने के लिए अमेरिका के लिए आऊटसोर्सिंग का विरोध करना जायज है तो भारत के लिए भी सही है कि वॉलमार्ट जैसे बड़े सुपर मार्केट को प्रवेश देने को रोका जाए ताकि हमारे छोटे दुकानदारों का रोजगार बचा रहे।
अमेरिका में इस बात को लेकर विवाद खड़ा हो गया था कि लंदन ओलंपिक खेलों में हिस्सा ले रही अमेरिकी टीम की वर्दी चीन में क्यों बनी हैं? कपड़ों पर लगे ‘मेड इन चायना’ टैग से कई अमेरिकी नेता बेहद गुस्से में थे। यह है अमेरिका। अपने हित के लिए उन्हें चीन में बनी वर्दी भी चुभ रही थी पर चाहते हैं कि बाकी दुनिया उनके लिए दरवाजे खोल दे।
हमें पश्चिमी दबाव से आतंकित होने की कोई जरूरत नहीं पर हां, जरूरी है कि हम अपना घर सही करें। भारत के अंदर क्या होता है इसका फैसला हमारे लोग तथा उनकी जरूरत के अनुसार होना चाहिए क्योंकि हर देश इसी नीति के अनुसार चलता है। अगर यहां ‘रिफॉर्म’ होने हैं तो हमारी जरूरतों के अनुसार होने चाहिए, अमेरिकियों की जरूरत के अनुसार नहीं। खुदरा व्यापार को आधुनिक करने की जरूरत है पर यह काम हमारे अपने लोग कर सकते हैं। किसान की फसल खुले आकाश के नीचे न पड़ी रहे इसका प्रबंध भी हमें ही करना है। कोल्ड स्टोरेज हमें ही बनाने हैं। पर शासन की हालत शोचनीय है। अगस्त में मैंने कुछ दिन बैंकाक में गुजारे हैं। थाईलैंड में जगह-जगह अमरीकी 7-इलैवन स्टोर खुले हैं। बैंगकाक में लगभग 3000 है। यहां 24 घंटे एयरकंडीशन स्टोर में सब कुछ मिल जाता है, लेकिन धीरे-धीरे थाईलोगों के अपने स्टोर ठप्प हो रहे हैं। विदेशी स्टोर थाईलैंड के लोगों की जीवन पद्धति तक बदलते जा रहे हैं। लेकिन थाईलैंड की मजबूरी थी। आर्थिक संकट के कारण वह पश्चिम के आर्थिक हमले को झेल नहीं सके इसलिए दरवाजे खोल दिए पर भारत की यह स्थिति नहीं है। मनमोहन सिंह सरकार संकट में जरूर है, पर देश संकट में नहीं है। हम चीन और जापान के बाद एशिया में तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था हैं, दूसरा बड़ा बाजार हैं। इसलिए ‘सुधारों’ के नाम पर विदेशी आर्थिक घुसपैंठ की यहां इजाजत नहीं होनी चाहिए। पश्चिमी देशों, कारपोरेट जगत तथा अंग्रेजी के मीडिया की वाहवाही के लिए मनमोहन सिंह सरकार को अपने अंतिम दिनों में ऐसे कदम नहीं उठाने चाहिए जिनकी आगे चल कर देश को भारी कीमत चुकानी पड़े।
-चन्द्रमोहन