फांसी से लटकते सवाल
अजमल कसाब को लगी फांसी के साथ ही कुछ लोग यह मांग करने लगे हैं कि देश के कानून से मौत की सजा हटा दी जानी चाहिए क्योंकि यह बर्बर है, असभ्य है और अधिकतर देशों से हट चुकी है। संयुक्त राष्ट्र महासभा भी बार-बार यह प्रस्ताव पारित कर चुकी है कि मौत की सजा पर रोक लगा दी जानी चाहिए। जिन देशों ने इस प्रस्ताव के पक्ष में वोट नहीं दिया उनमें भारत शामिल है। भारत का पक्ष है कि वह इस सजा को बहुत कम इस्तेमाल करेगा। यह बहस और भी तीखी हो गई है क्योंकि यहां अफजल गुरू, बलवंत सिंह राजोआना, राजीव गांधी के हत्यारे जैसे मामले लंबित हैं और हो सकता है कि इन पर जल्द फैसला हो जाए। जो मानवाधिकार संगठन विरोध कर रहे हैं उनका कहना है कि सजा-ए-मौत सबसे बुरा मानवाधिकारों का उल्लंघन है। और न ही सजा-ए-मौत से हत्याएं रूक ही रही हैं, न ही इससे आंतकवाद पर ही रोक लग सकती है।
मैं इस विचार से बिल्कुल असहमत हूं। ठीक है कानून के डर से हत्याएं और आतंकवाद नहीं रुका पर किस कानून से अपराध रुक गए हैं? हमारे देश में हर किस्म के कानून है पर क्या बलात्कार, हत्या, मिलावट, लूटपाट, अपहरण, भ्रष्टाचार और यहां तक कि ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन आदि रुक गए? अगर नहीं रूके तो क्या ये कानून भी खत्म कर दिए जाने चाहिए? कि 2004 के बाद 2012 में आठ वर्ष के बाद फांसी लगी है इससे ही पता चलता है कि यह सजा हल्के से या असावधानी से नहीं दी जा रही। जैसी परिस्थितियों में हम रह रहे हैं वहां सजा वैसी होनी चाहिए जो अपराध की बराबरी करती हो। मैं तो बलात्कार के मामले में भी बहुत सख्त सजा के हक में हूं। यह सही नहीं होगा कि जिन्होंने सामूहिक हत्याएं की हो, या बच्चों या महिलाओं की हत्याएं की हो वे जीवित रहें, चाहे वे जेल में ही बंद हो। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आजीवन कारावास का मतलब 14 या 20 साल की सजा नहीं, इसका अर्थ ताउम्र कैद हैं। अर्थात् देश की सर्वोच्च अदालत भी ऐसे दुर्लभतम मामलों में नरमी के हक में नहीं हैं।
अगर कानून में सख्ती नहीं होगी और हत्यारों को यह डर नहीं होगा कि वे फांसी पर लटकाएं जा सकते हैं तो और अपराध होगा, और बेकसूर मारे जाएंगे। जिस व्यवस्थित ढंग से कसाब को फांसी लगाई गई उससे पता चलता है कि जब सरकार चाहे तो वह कुछ भी कर सकती है। केवल संकल्प की जरूरत है। जम्मू-कश्मीर लिब्रेशन फ्रंट के संस्थापक मकबूल बट्ट को इंदिरा गांधी ने फांसी पर चढ़वा दिया था। कश्मीरी उग्रवादियों ने मैनचैस्टर में एक भारतीय राजनयिक की हत्या कर दी थी। इंदिरा गांधी ने बट्ट को तत्काल लटका कर जवाब दे दिया था। उन्होंने नहीं चिंता की कि इसकी कश्मीरवादी में क्या प्रतिक्रिया होगी। प्रतिक्रिया हुई, लेकिन कई बार सही संदेश देने की भी जरूरत होती है। यह मैं अफजल गुरू के संदर्भ में कह रहा हूं। अफजल गुरू का मामला राष्ट्रपति भवन तथा गृहमंत्रालय के बीच धक्के खा रहा है। दिल्ली सरकार से भी फाईल निकालने के लिए 16 रिमांइडर देने पड़े थे। गृहमंत्रालय अफजल गुरू की दया याचिका अगस्त 2011 रद्द कर चुका है, लेकिन गृहमंत्री बदलने के बाद राष्ट्रपति ने फिर फाईल नए गृहमंत्री को वापिस भेज दी है। अफजल गुरू 2001 में संसद पर हमले का दोषी हैं। एक लोकतंत्र में इससे बड़ा अपराध नहीं हो सकता। अगर आतंकवादियों का मनसूबा सफल हो जाता तो अनर्थ हो जाता। परमाणु युद्ध तय था। कुछ लोग कहते हैं कि गुरू का मुकद्दमा सही तरीके से नहीं लड़ा गया और उसे न्याय नहीं मिला लेकिन यह लोग भूलते हैं कि सुप्रीम कोर्ट उसकी फांसी की सजा की पुष्टि 2005 में कर चुका है।
उमर अब्दुल्ला और कश्मीरी अलगाववादी सब कह रहे हैं कि अगर उसे फांसी की सजा दी गई तो कश्मीर में हालात खराब हो जाएंगे। यह बात सही हो सकती है लेकिन इसी डर से कार्रवाई रोकी नहीं जा सकती। चाहे अफजल गुरू हो, या पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या का दोषी बलवंत सिंह राजोआणा हो, या दिल्ली विस्फोटों का दोषी दविंद्र सिंह भुल्लर हो या राजीव गांधी के हत्यारे हों, राजनीतिक कारणों से ऊपर उठ कर देश के न्याय के अनुसार जब तक हमारे कानून में मौत की सजा मौजूद है, इस पर कार्रवाई होनी चाहिए। अमेरिका में 9/11 के बाद हमला नहीं हुआ। उन्होंने संदेश दे दिया कि वह ऐसी किसी हरकत को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं जबकि हमारी नीति अभी भी ढुलमुल हैं। सरकार में पहले से अधिक दृढ़ता नजर आ रही है। शायद इसलिए कि चुनाव नजदीक हैं इसलिए हो सकता है कि कसाब की तरह गुरू के मामले में भी न्याय हो जाए चाहे तत्काल एक के बाद एक मुसलमान (चाहे एक पाकिस्तानी था) को फांसी पर लटकाने का जोखिम हमारे ‘सैक्यूलरिस्ट’ शायद न उठाएं। बाटला हाऊस जैसे मामले में राजनीति करने वाले दिग्विजय सिंह भी अब सवाल कर रहे हैं कि अफजल गुरू के मामले में कब न्याय होगा?
जो मानवाधिकार वाले कहतें है कि सजाए मौत हटानी चाहिए हैं इनकी अपनी जिंदगी बहुत सुरक्षित होती हैं। अगर इनमें से किसी को कसाब जैसे का सामना करना पड़ता तब देखते कि इनके विचार कैसे हैं? जो 166 लोग मुंबई पर हुए हमले में मारे गए उनके परिवारों को कसाब को लगी फांसी पर राहत मिली है। इनमें से किसी ने यह नहीं कहा कि इसे छोड़ दो यह तो बेचारा लडक़ा गुमराह हो गया था। जिस तन लागे सो तन जाने! एक और बात कही जाती है कि बहुत देश सजा-ए-मौत को अपने कानून से हटा चुके हैं पर याद रखना चाहिए कि दुनिया के चार सबसे अधिक जनसंख्या वाले देश, चीन, भारत, अमेरिका तथा इंडोनीशिया चारों में मौत की सजा कानून का हिस्सा है। अमेरिका ने तो पाकिस्तान में एबटाबाद जाकर ओसामा बिन लादेन को मौत की सजा दे दी। यह मानवाधिकार वाले योरूप की मिसाल देते हैं। यूरोपियन यूनियन ने इसे बंद कर दिया है पर योरूपियन यूनियन का एक देश ऑयरलैंड भी है जहां गर्भवती भारतीय महिला सविता हलप्पनवार इसलिए मारी गई क्योंकि वहां का कैथोलिक कानून जब तक भ्रूण में धडक़न है गर्भपात की इजाजत नहीं देता। मालूम था कि सविता के शरीर में जहर फैल सकता है लेकिन फिर भी डॉक्टरों ने उसके गर्भपात से इंकार कर दिया। आखिर में उसके गर्भ से मृत शिशु को निकाला गया तब तक खुद सविता की जान चली गई थी। तर्क यह था कि भ्रूण की धडक़न चल रही थी, पर सविता की भी तो धडक़न चल रही थी? क्या उसे जीने का हक नहीं था? अजब समाज है जो हत्यारों या आतंकवादियों को तो मौत से बचा लेता है पर एक गर्भवती महिला को अपने सामने तिल-तिल कर मरने देता है। जो सविता की मौत के लिए जिम्मेवार हैं उन्हें केवल इसलिए माफी है क्योंकि वह एक पश्चिमी देश से संबंधित है और वहां ईसाई कानून है? अगर ऐसा ही कुछ भारत जैसे देश में होता तो बाहर कितना तूफान खड़ा हो जाता? पर दूसरे धर्मों का मजाक उड़ाने वाले यह नहीं देखते कि आयरलैंड के धर्म के नाम पर कैसी क्रूरता दिखाई गई है? हमारे मानवाधिकार वाले भी अधिकतर खामोश हैं। जिन लोगों ने सविता को उसके जीने के हक से वंचित कर दिया क्या वह किसी निर्दयीय जल्लाद से कम हैं? इसलिए जो लोग पश्चिम का अनुसरण कर उनके कानून हम पर थौंपना चाहते हैं उन्हें पुनर्विचार करना चाहिए। वे देश एकाध हत्यारे को सजा-ए-मौत से बचा लेंगे पर जब अपने हितों की पुकार होगी तो जापान या वियतनाम या इराक या फिलिस्तीन या अफगानिस्तान जैसे देशों पर बम फैंक कर अनगणित लोगों को मौत के घाट उतार देंगे।
-चन्द्रमोहन