लचर व्यवस्था के खिलाफ अविश्वास
यह अभूतपूर्व है। दिल्ली में पहले ऐसा नजारा कभी नहीं देखा गया। इंडिया गेट से राष्ट्रपति भवन तक का सारा क्षेत्र युद्ध क्षेत्र बना हुआ है। निहत्थे महिलाओं और युवाओं पर बर्बर लाठीचार्ज हुआ, घोर सर्दियों में पानी की बौछार हुई; लेकिन इसके बावजूद प्रदर्शन नहीं रुक रहे। बाबा रामदेव तथा अन्ना हजारे के आंदोलनों के समय नेतृत्व देने वाले थे। जो आज दिल्ली में हो रहा है वह विशुद्ध जनांदोलन है कोई नेता नहीं। चलती बस में एक लडक़ी से सामूहिक बलात्कार के दर्दनाक मामले से सारे देश में आक्रोश की लहर फैल गई है। लेकिन सबसे खराब हालत दिल्ली की है जो देश की बलात्कार राजधानी बनती जा रही है, जो बात मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी दु:ख के साथ मानी है। बाकी बड़े शहरों से चार गुना बलात्कार यहाँ होते हैं। और यह वह शहर है जहाँ देश के सबसे ताकतवार लोग रहते हैं लेकिन सब अपने-अपने सरकारी बंगले में बंद थे। नेतृत्व का शून्य है। जनता तो राष्ट्रपति भवन दस्तक देने गई थी। आखिर प्रथम नागरिक है, लेकिन राष्ट्रपति बाहर ही नहीं निकले। प्रधानमंत्री तो वैसे ही लोगों से सम्पर्क नहीं रखते। अमेरिका में एक स्कूल में फायरिंग के बाद उसी दिन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने देश को संबोधित किया था पर हमारे प्रधानमंत्री जिन्होंने एफडीआई पर तो देश को संबोधित किया को इस मामले पर प्रतिक्रिया देने में उन्हें सात दिन लग गए। पर उनके आश्वासन पर किसी को भरोसा नहीं। सोनिया गांधी ने अवश्य दो बार प्रदर्शनकारियों से मुलाकात की लेकिन यूथ आईकॉन राहुल गांधी कहीं नजर नहीं आए। सुषमा स्वराज भी बयान देती रही और ट्वीट करती रही लेकिन विपक्ष का भी कोई नेता लोगों के बीच नहीं गया। सब जनता के आक्रोश से घबराते हैं क्योंकि विपक्ष भी समझता है और सरकार भी जानती है कि यह नेतृत्व विहीन आंदोलन केवल बलात्कार के खिलाफ ही नहीं बल्कि उस लचर गूंगी बहरी व्यवस्था के खिलाफ भी है जो वीआईपी को छोड़ कर किसी और को सुरक्षा नहीं देती। इंडिया गेट को घेरने या मैट्रो स्टेशन बंद करने या बसों से काले शीशे उतरवाने से कुछ नहीं होगा। लोग व्यवस्था को बदलना चाहते हैं, उसकी असंवेदनशीलता को खत्म करना चाहते हैं। विश्वास डोल गया है। एक बड़ा नेता भी इंडिया गेट जा आता तो शायद लोगों का गुस्सा शांत हो जाता पर गृहमंत्री तो कह रहे हैं कि मैं कहा -कहां जाऊं? उनका कहना है कि कल को माओवादी भी हथियारों के साथ वहां प्रदर्शन कर सकते हैं।
युवा कह रहें हैं कि हम टैक्स देते हैं फिर हमें सुरक्षा क्यों नहीं मिलती? पूछते हैं कि अगर सिंगापुर या साऊदी अरब में महिला सुरक्षित है तो यहां क्यों नहीं? सिंगापुर में आधी रात को महिलाएं काम से लौट सकती हैं कोई परेशान नहीं करता। कहीं पुलिस वाला नजर नहीं आता। जरूरत ही नहीं क्योंकि वहां सख्त कानून है और उस कानून का पालन करवाया जाता है। साऊदी अरब में तो वैसे ही पत्थर मार कर बलात्कारी को खत्म कर दिया जाता है इसलिए दुष्कर्म करने की किसी की हिम्मत नहीं होती। हमारे यहां हर कानून है पर पालन नहीं करवाया जाता। पिछली महिला राष्ट्रपति उन भेडिय़ो के मृत्युदंड माफ कर गई जिन्होंने बच्चियों को हवस का शिकार बनाया और फिर उनकी हत्या कर दी। पिछले 14 वर्षों में बलात्कार के बाद हत्या करने वाले केवल एक दोषी को मृत्युदंड दिया गया बाकी सब मृत्युदंड से बच गए। मैं बिल्कुल सहमत हूं कि बलात्कारियों को फांसी की सजा दी जाए आखिर उन्होंने एक इंसान की जिंदगी तबाह कर दी। जिससे बलात्कार हुआ वह तो जिंदा लाश बन जाती है पर फांसी की सजा के भी क्या मायने अगर राष्ट्रपति ने माफी दे देनी है?
जिस देश में हर 21 मिनट के बाद बलात्कार होता हैं वहां केवल एक चौथाई मामलों में ही स$जा दी जाती है। और ये मामले हैं जो पुलिस तक पहुंचते हैं कई महिलाएं लोकलाज के कारण ऐसी घटनाएं बताती ही नहीं। 1971 और 2011 के बीच बलात्कार के मामलों में 800 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है। इतनी वृद्धि किसी और अपराध में नहीं हुई। बलात्कार करने वाले केवल युवक ही नहीं होते।ï हिसार में चार बलात्कारी जो पकड़े गए वे विवाहित हैं। दलित महिलाएं विशेष तौर पर शिकार होती हैं। ओम प्रकाश चौटाला का सुझाव है कि लड़कियों की जल्द शादी कर दी जाए। यही सुझाव खाप पंचायत भी दे चुकी है पर हरियाणा से समाचार है कि विवाहित महिलाएं भी कई बार शिकार हो चुकी हैं। देश के कई कोनों से नन्हीं-नन्हीं बच्चियों के साथ बलात्कार के समाचार हैं।
बड़ी समस्या है कि हमारा समाज रोगी हो गया है। महिलाओं को खिलौना समझा जाता है। जिस प्रकार फिल्मों तथा टीवी पर एक महिला को चीज तथा आईटम गर्ल प्रस्तुत किया जाता है उससे भी बीमार मानसिकता वाले होश खो बैठते हैं। भ्रूण हत्या से लेकर दहेज से लेकर हार्नर किलिंग से लेकर बलात्कार एक ही मानसिकता प्रदर्शित करते हैं कि लडक़ी/महिला पुरुष के बराबर नहीं है। यह हमारे समाज की सामूहिक असफलता भी है। हमारे संस्कार गड़बड़ा रहे हैं। क्या कोई इलाज है? शुरूआत परिवार से होनी चाहिए। मां-बाप को समझना चाहिए कि अगर औलाद पथभ्रष्टï हो गई तो उन्हें भी भुगतना पड़ेगा। सैंसर बोर्ड भी बहुत उदार हो गया है। टीवी, मीडिया तथा एडवरटाईजिंग को भी खुद के अंदर झांकना चाहिए।
बलात्कार के दौरान चलती बस को किसी ने रोका क्यों नहीं? इसलिए कि वह हफ्ता प्रणाली के अंतर्गत सुरक्षित थी। बाद में कुछ पुलिस कर्मियों को निलंबित किया गया लेकिन पुलिस व्यवस्था को सही कौन करेगा? लोग थाने-जाने से घबराते हैं। पुलिस की अपनी शिकायत है। उनकी नफरी कम है। अंग्रेजों के समय के पुलिस कानून में परिवर्तन नहीं किया जा रहा। दिल्ली में वीआईपी ड्यूटी ही उनकी ऊर्जा चूस लेती है। टीवी पर वह दुर्भाग्यपूर्ण दृश्य दिखाया गया जहां जनता पत्थर मार रही थी और पुलिस वाले संसद परिसर में छिपने के लिए सरपट भाग रहे थे। पुलिसिंग बेहतर होनी चाहिए विशेषतौर पर रात के समय।
कोई कहता है कि संसद का विशेष अधिवेशन बुलाया जाए। कोई सर्वदलीय बैठक बुलाने का सुझाव देते हैं लेकिन यह तो बैंड ऐड है। जख्म बहुत गहरा है। असली समस्या लचर व्यवस्था है जहां या तो अपराधी पकड़े नहीं जाते या केस हल्का बनाया जाता है या मामले अदालत में वर्षों लटकते रहते हैं। ऐसे मामले फास्ट ट्रैक कर छ: महीने में निबटाए जाने चाहिए। और सजा ऐसी मिले कि फिर कोई जुर्रत न करें। न्यायपालिका को भी अपनी कारगुजारी पर नजर दौड़ाने की जरूरत है। सजा देने में कहीं भी इतनी देर नहीं लगती जितनी यहां लगती है। गंभीर मामलों में समय सीमा निर्धारित होनी चाहिए नहीं तो बाकियों की तरह जज भी जवाबदेह बनें कि निपटारा क्यों नहीं हुआ? विधायिका को भी देखना चाहिए कि उसके अंदर कैसी-कैसी काली भेड़े हैं? कई जगह कानून तोड़ने वाले ही कानून बनाने वाले हैं। वे भी माननीय बने हुए हैं जिन पर खुद बलात्कार के आरोप हैं।
इस वक्त लोगों का गुस्सा चरम सीमा पर है। दबी हुई हताशा विस्फोट कर रही है। उस व्यवस्था के खिलाफ जो 60 सालों में दिल्ली में शहीदों के लिए भव्य स्मारक बनाने के लिए जगह नहीं तलाश सकी जबकि नेताओं के स्मारकों के लिए यमुना का सारा तट आरक्षित कर दिया गया। यह वह आत्म-तृप्त, आत्म मग्न व्यवस्था है जहां नेतृत्व खुद को जवाबदेह नहीं मानता। चुनाव जीतना ही पर्याप्त समझा जाता हैं। लेकिन यह वेकअप कॉल है। जो हम देख रहे हैं वह केवल कार्यपालिका में ही अविश्वास नहीं, विधायिका और न्यायपालिका के प्रति अविश्वास भी झलक रहा है। समाज भी रोगी हो रहा है। इस स्थिति को गंभीरता से लेना होगा नहीं तो ऐसे ज्वालामुखी यहां फटते रहेंगे।
-चन्द्रमोहन