इंडियन ऑफ द इयर!

इंडियन ऑफ द इयर!

2012 जाते-जाते गहरा जख्म दे गया और हम सोचने पर मजबूर हैं कि हम कैसा देश और कैसा समाज बन रहे हैं? कदम-कदम पर जो समझौते किए गए वे अब काटने को दौड़ रहे हैं। उस लडक़ी का असली नाम क्या है बताया नहीं गया पर उसके साथ जो हादसा हुआ वह देश को इस तरह जगा गया जैसे पहले एमरजैंसी के समय हुआ था। अंतर केवल यह है कि इस जनसैलाब का कोई चेहरा नहीं। कोई नेता नहीं। आप किसी नेता को पकड़ कर जेल में नहीं डाल सकते इसलिए सरकार भी कांपने लगी थी। अब सब बदलने का प्रयास कर रहे हैं। सरकार सख्त कानून बनाने जा रही है। जनप्रतिनिधि भी अब दबाव डाल रहे हैं। अदालतें भी सक्रिय हो रही हैं। कई प्रदेशों में फास्ट कोर्ट बनाए जाएंगे। अफसोस यह है कि व्यवस्था को जगाने के लिए एक बहादुर लडक़ी को अपनी जान देनी पड़ी। उसकी चिता से जो मशाल जगी है वह समाज को बदलेगी। उसके बारे हम कह सकते हैं:

न सर छिपा कर जीएं हम, न सर झुका कर जीएं हम,

सितमगर की नजरों से नजरे मिला कर जीएं हम,

अब अगर एक रात कम जीएं तो कम ही सही,

यह बहुत है कि मशालें जला कर जीएं हम!

लड़की ने अपनी मां से कहा था कि ‘मैं जीना चाहती हूं’, लेकिन बलात्कारियों ने उसकी ऐसी हालत कर दी थी कि तेरह दिन संघर्ष करने के बाद उसकी मौत हो गई। सवाल उठ रहे हैं कि उसे सिंगापुर ले जाने की जरूरत क्या थी जब सब कुछ खत्म हो चुका था? विशेषज्ञ कहते हैं कि यह सरकार का निर्णय था, डॉक्टरों का नहीं। सरकार अंत कुछ दिन और टालना चाहती थी। देश शर्मिंदा है। यह एक लड़की की ही मौत नहीं थी, यह न केवल हमारी व्यवस्था की घोर असफलता थी बल्कि यह घटना बता गई कि हमारे पुरुष प्रधान समाज का किस कदर पतन हो गया है कि बहुत लोग हैं जो मानते हैं कि अगर बलात्कार हुआ है तो यह लड़की का अपना कसूर है। दिल्ली के बराबर शर्मनाक घटना पटियाला के बादशाहपुर गांव की नाबालिग लड़की की बलात्कार के बाद आत्महत्या की है। वारदात के डेढ़ महीने के बाद तक आरोपियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। बार-बार थाने बुला कर लड़की से शर्मिंदा करने वाले सवाल पूछे गए। इस पर हताश होकर लड़की ने जहर निगल लिया। आत्महत्या के बाद मामला सुर्खियों में आने के बाद प्रशासन सक्रिय हुआ है। लेकिन यह मामला लापरवाही तथा संवेदनहीनता का ही नहीं। ये पुलिस कर्मी तो लडक़ी को आत्महत्या के लिए प्रेरित करने के आरोपी हैं। दिल्ली में एक साहसी नेता लोगों के गुस्से को ठंडा कर सकता था पर सब अपने लोगों से भयभीत दुबके रहे। इस दौरान मेरे देश का युवा प्रदर्शन करता रहा। उसे इस तरह लाठियों से पीटा गया जिस तरह अंग्रेजों के जमाने में पीटा जाता था। लड़कियों को बाल पकड़ कर घसीटा गया। मंत्री, सांसद, विधायक, पार्षद कोई पूछने के लिए आगे नहीं आया लेकिन उल्लेखनीय है कि लोग हटे नहीं, डरे नहीं। एक युवक ने तो टीवी पर बताया कि वह जानते हुए भी लाठी खाने के लिए गया था। इस बीच इंडिया गेट के आसपास के मैट्रो स्टेशन बंद कर दिए गए जिस पर एक बुजुर्ग प्रदर्शनकारी ने यह संदेश पकड़ा हुआ था, “क्या यह मैट्रो स्टेशन तेरे बाप के हैं कि इन्हें बंद किया?”

इस जज़्बे को आप दबा नहीं सकते। इन निहत्थे लोगों ने अपने नैतिक बल पर इस आत्म संतुष्ट व्यवस्था को जागने पर मजबूर कर दिया। वे लाठियों के नहीं बधाई के हकदार हैं। सोनिया गांधी को घटना के बाद सार्वजनिक बात करने में 12 दिन लग गए। उनका और प्रधानमंत्री दोनों का कहना था कि अपराधियों को माफ नहीं किया जाएगा लेकिन ऐसा तो इस देश में सामान्य होना चाहिए। पुलिस और प्रशासन अपनी ड्यूटी निभाएं लेकिन यहां तो एक नाबालिगा को न्याय प्राप्त करने के लिए जहर खाना पड़ा।

जीनस और जैकेट पहन कैंडल मार्च कर रहा मेरे देश का युवक नौकरी की मांग नहीं कर रहा, अपने लिये वह कुछ नहीं मांग रहा, वह केवल न्याय की मांग कर रहा है। वह एक संवेदनशील व्यवस्था तथा आत्म तृप्त रहनुमाओं के वर्ग को बदलने के लिये मजबूर कर रहा है। पुलिस कमिश्नर के साथ लगातार झगड़ने के बाद जब 16 दिन के बाद आखिर में शीला दीक्षित जंतर-मंतर पहुंची तो लोगों ने उन्हें वापिस भेज दिया। वह शीला दीक्षित कहां हैं जो कभी कहती थी कि आप सोईए मैं जागती रहूंगी?  तीन बार जीतने के बाद संवेदना खत्म हो गई लगती है। पुलिस केन्द्रीय सरकार की है पर जो बसें चलती हैं वह तो शीला सरकार के अधीन हैं। वह बस कैसे चलती रही जो छ: बार जब्त हो चुकी थी? शीलाजी आपकी दिल्ली जो कभी हमारी शान थी, कैसा बदनाम शहर बन गई है? बेहतर होता नैतिक जिम्मेवारी लेते आप इस्तीफा दे देती। पर अफसोस है कि हमारे नेताओं ने लाल बहादुर शास्त्री से कुछ नहीं सीखा। लाठी से अब जनांदोलन नहीं रुकेंगे। ये रुकेंगे तो संवाद से रुकेंगे। इससे सुशील कुमार शिंदे जैसा शख्स निबट नहीं सकता। वफादारों को राजनीतिक कारणों से महत्वपूर्ण पद देने की कीमत अब यह सरकार चुका रही है।

सोशल मीडिया ने संदर्भ बदल दिया है। लोग समझते हैं कि संसद और विधानसभाएं हमारी भावनाओं, चिन्ताओं तथा उपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व नहीं कर रही इसलिये कालेज और स्कूल जाने वाले बच्चे समाज के आक्रोश को व्यक्त कर रहे हैं। शहरी प्रशासन का पतन हो गया। सरकारों के पास अब प्रतिक्रिया के लिये समय बहुत कम रह गया है। उन्हें भीड़ से संवाद तय करना आना चाहिए। पुलिस को भी यह ट्रेनिंग दी जानी चाहिए कि हर भीड़ पर नियंत्रण के लिए लाठी की जरूरत नहीं होती है। अफसरों को भी समझ जाना चाहिए वह ब्राऊन साहिब बन जनता से निबट नहीं सकते।

कांग्रेस की एक विशेष समस्या है। जैसी यह पार्टी बन गई है कोई आगे आकर जिम्मेवारी निभाने को तैयार नहीं होता। सब 10 जनपथ की तरफ इशारे के लिये देखते हैं। प्रधानमंत्री से शुरू होकर शिखर पर एक भी ऐसा नेता नहीं जिसका अपना स्वतंत्र अस्तित्व हो। इसीलिये प्रतिक्रिया देने में इतना समय लगा है। सोनिया गांधी कई बार बाकियों से बेहतर संवेदना प्रकट कर चुकी है पर स्वभाव से वह संयमी हैं। इंदिरा गांधी की तरह लोगों से सीधा संवाद पैदा करने का जादू उनमें नहीं है। राहुल गांधी तो साबित ही कर रहे हैं कि पार्टी उन पर महानता जबरदस्ती थोंपने की कोशिश कर रही है। संदीप दीक्षित को छोड़ कर दिल्ली के बाकी छह सांसदों और 41 कांग्रेस विधायकों में से किसी ने आगे आकर बात करने का प्रयास नहीं किया। सब मैडम के इशारे की इंतजार में थे। जनता से कटी हुई अपनी ऊंची दीवारों के पीछे बंद सरकार ऐसी स्थिति को संभाल नहीं सकती।

अब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कहना है कि “यह हम सब का काम है कि उसकी मौत व्यर्थ में न जाए।” प्रधानमंत्री फिर अपने दायित्व को ऑऊट सोर्स कर रहें हैं। जो प्रधानमंत्री की जिम्मेवारी है वे ‘हम सब पर’ डाल रहे हैं। श्रीमान, आप देश के प्रधानमंत्री हैं और आपकी सरकार की यह जिम्मेवारी है कि इस साहसी लड़की की मौत व्यर्थ में न जाए। हम सब तो कैंडल पकड़ कर मार्च ही कर सकते हैं। ऐसे पशुतुल्य बलात्कारियों को कड़ी तथा तत्काल सजा ही नहीं देनी होगी बल्कि ऐसी व्यवस्था बनानी होगी कि कोई और लड़की ऐसे अत्याचार का फिर शिकार न हो।

गहरे सदमें के इस माहौल में एक ही आशा की किरण है, मेरा युवक जाग उठा। मजबूती से तिरंगा उसने संभाल लिया। उसने राष्ट्रपति से नीचे तक सब को मजबूर कर दिया कि उसकी बात को सुनें। यह युवा शक्ति ही ‘इंडियन ऑफ द इयर है!’ 2012 का भी असली योगदान यह है कि इसने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया कि हमारी दिशा क्या है? हम क्या हैं? किधर जा रहे हैं? हमारी पीढ़ी ने बहुत समझौते किए हैं जिसका अंजाम हम भुगत रहे हैं। बिना चेहरे वाले इस आंदोलन ने हमें अपना बदसूरत चेहरा दिखा दिया। युवा आदर्शवादी होता है। उसने अभी समझौते नहीं किए होते। यह पढ़ी-लिखी प्रतिभाशाली नौजवान पीढ़ी अब हमें मजबूर कर रही है कि हम बदलें, जो चलता आ रहा है वह और नहीं चलेगा। इस नए जोश को, इस नई सोच को मेरा सलाम!

-चन्द्रमोहन

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About Chander Mohan 704 Articles
Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.