ओनली मोदी!
चौथी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी जब दिल्ली भाजपा कार्यालय आए तो वहां ‘पीएम’ ‘पीएम’ के नारे लगे। शपथ ग्रहण करने के तत्काल बाद अहमदाबाद में उनकी रैली में भी यही नारे लगे थे। दिल्ली में मोदी ने भी कार्यकर्ताओं को कह दिया कि उन्हें जो जिम्मेवारी दी जाएगी उसे पूरी शिद्दत से निभाने का प्रयास करेंगे। अर्थात् वे तैयार हैं। पर क्या देश तैयार है? नरेंद्र मोदी का प्रभाव उस वक्त बढ़ रहा है जब देश वर्तमान नेतृत्व से बेहद निराश है। केंद्र में नेतृत्व का शून्य नजर आता है। न प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, न सोनिया गांधी और न ही राहुल गांधी का जनता के साथ संवाद है जो दिल्ली के गैंग रेप वाले मामले में भी साफ हो गया है। देश को ऐसा प्रधानमंत्री चाहिए जिसमें दम हो और जो आजाद निर्णय ले सके। नेतृत्व के अभाव से नैराश्य फैल गया है। क्या नरेंद्र मोदी इस नैराश्य को हटा सकेंगे?
भारतीय जनता पार्टी में और भी नेता हैं लेकिन जहां तक जनता और कार्यकर्ताओं का सवाल है नरेंद्र मोदी ही नेता है। केवल मोदी! भाजपा के शिखर पर दिल्ली के जो नेता हैं वे चाहे कितने भी काबिल हों, कितने भी अनुभवी हों, उनका जनाधार नहीं है। जो वोट लाएं वही पार्टी का नेता होना चाहिए। गुजरात में दमदार सरकार देकर तथा बार-बार चुनाव जीत कर मोदी ने साबित कर दिया कि वे नेतृत्व दे सकते हैं। उनके शपथ ग्रहण समारोह में जयललिता, प्रकाश सिंह बादल, ओम प्रकाश चौटाला, उद्धव ठाकरे, राज ठाकरे, रामदास उठावले की मौजूदगी में हम एक नए राजग की झलक देख रहे हैं। ठीक है नितिश कुमार नहीं आए। उन्होंने बधाई भी नहीं दी। पर नितिश का अपना कद भी पहले जैसा नहीं रहा जब उन्हें भी प्रधानमंत्री पद का एक उम्मीदवार समझा जाता था। न ही वे तय कर सकते हैं कि भाजपा किसे अपना नेता बनाए, जो बात उन्होंने भी स्वीकार की है कि राजग का नेता सबसे बड़ी पार्टी से होगा। नरेंद्र मोदी के नेता बनने की सूरत में शायद नितिश और उसकी जनता दल (यू) राजग छोड़ जाएं लेकिन भाजपा अपना नेता बिहार के मुख्यमंत्री की पसंद-नापसंद के बल पर ही तय नहीं कर सकती।
अब तो 2002 के गुजरात के दंगो का मामला भी महत्वपूर्ण नहीं रहा क्योंकि गुजरात के मुसलमानों की अच्छी संख्या ने भाजपा को समर्थन दिया है। ठीक है तथाकथित सैक्यूलरिस्टों और मीडिया की एक जमात मोदी का विरोध करती है और करती रहेगी। उनकी दुकान इस पर चलती है। देश में और भी दंगे हुए हैं। सिख विरोधी दंगों में 3000 से अधिक सिखों का नरसंहार किया गया जबकि संसद में दिए गए आंकड़ों के अनुसार गुजरात में 790 मुसलमान तथा 254 हिन्दू मारे गए। जो लोग कह रहे हैं कि ‘हजारों की संख्या में मुसलमानों’ का कत्लेआम हुआ, झूठ बोल रहे हैं। ये लोग गोधरा में 59 हिन्दू यात्रियों को जिंदा जलाए जाने की उत्तेजना को भी नजरंदाज करते हैं। अब उन्हें भी अहसास होगा कि देश दंगों से आगे बढ़ गया है क्योंकि गुजरात आगे बढ़ गया, गुजरात के मुसलमान आगे बढ़ गए।
देश के ढुलमुल नेतृत्व से तंग जनता मोदी में भावी नेता देख रही है। जमीन की आवाज को मान्यता मिलनी चाहिए। वास्तव में नरेंद्र मोदी को अपने आलोचकों का धन्यवादी होना चाहिए जिन्होंने उनका अंधा विरोध कर उन्हें ‘राष्ट्रीय विकल्प’ बना दिया है। लड़ाई कांग्रेस बनाम भाजपा की जगह कांग्रेस बनाम मोदी बना दी है। गांधी परिवार को जवाब देने वाले भी मोदी ही हैं। केवल मोदी! सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने भी ‘एक व्यक्ति की महत्वाकांक्षा’ पर प्रहार किया था। ऐसा कर उन्होंने उस ‘एक व्यक्ति’ को बाकियों से ऊपर पहुंचा दिया पर उन्हें याद रखना चाहिए कि यह प्रक्रिया इंदिरा गांधी ने ही शुरू की थी। इंदिराजी की ही तरह मोदी को भी न केवल पार्टी के बाहर बल्कि पार्टी के अंदर भी अपने विरोधियों से निपटना पड़ रहा है। हां, यह सही है कि इंदिराजी की तरह ही मोदी भी विरोध बर्दाश्त नहीं करते। वे ‘टीम प्लेयर’ नहीं हैं। एक लोकतंत्र में यह एक कमजोरी है, उन्हें बदलना होगा।
लोग विकल्प के लिए तड़प रहे हैं। विकल्प मुलायम सिंह यादव नहीं हो सकते चाहे अपनी रंगरलियों से फारिग होकर नारायण दत तिवाड़ी ने उन्हें समर्थन दे दिया है। विकल्प केवल भाजपा ही हो सकती है। अगर देश ने सही चलना है तो जरूरी है कि सरकार के केंद्र में या कांग्रेस हो या भाजपा। तीसरा विकल्प विनाशक होगा। चुनाव जीतने के बाद नरेंद्र मोदी अपने नाराज राजनीतिक गुरु केशूभाई पटेल के घर गए, उनके पांव छुए और आशीर्वाद मांगा। जीत के बाद हिन्दी में दिए गए 50 मिनट के भाषण में उन्होंने अपनी गलतियों के लिए जनता से माफी भी मांगी। क्या हम नरेंद्र मोदी का नया अवतार देख रहे हैं? उस भाषण में अटलजी की शैली की झलक साफ थी पर क्या नरेंद्र मोदी भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी बन सकते हैं? आज तक कोई भी मुख्यमंत्री सही राष्ट्रीय नेता नहीं बन सका पर प्रभावशाली अर्बन मिडल क्लास उनके मजबूत प्रशासन से बहुत प्रभावित हैं। भाजपा को एक नई आधुनिक समकालीन पहचान खुद के लिए तलाशनी है। अच्छे प्रशासन तथा विकास का मेल करवाना है। युवा भारत के साथ खुद को जोड़ना और उनकी आशाओं को पूरा करना है। उनकी प्रतिभा को खुल-खेलने का मौका देना है। गांधी परिवार का प्रभाव उतार पर है। लोग अब एक गैर-वंशवादी नेतृत्व की तलाश में हैं जो करिश्माई हो और देश को आगे ले जा सके। मेरी कई प्रोफैशनल युवाओं से इस विषय में बातचीत हुई है हैरान हूं कि सब एक ही नाम लेते हैं, नरेंद्र मोदी। केवल मोदी!
कांग्रेस और यूपीए के अल्पसंख्यकवाद से भी लोग तंग आ गए हैं। एक लोकतंत्र में अल्पसंख्यकों को महत्त्व और सरंक्षण मिलना चाहिए लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि 80 प्रतिशत से अधिक हिन्दुओं के देश में उन्हें ही कोने में लगा दिया जाए। अकबरुद्दीन ओवैसी की हिन्दुओं के खिलाफ भाषण करने की हिम्मत कैसे हो गई? आंध्रप्रदेश की कांग्रेस सरकार को उसके खिलाफ कार्रवाई शुरू करने में एक महीना कैसे लग गया? गुजरात में प्रचार कर रहे प्रधानमंत्री को भी अल्पसंख्यकों की चिंता थी। उनकी सरकार तथा उनकी पार्टी बार-बार मुसलमानों के लिए आरक्षण की बात उछालती जा रही है लेकिन सत्ता के शिखर पर अब तो हिन्दुओं के लिए आरक्षण की जरूरत बन रही है! वडोदरा में प्रचार करते हुए हमारे लाजवाब गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे का कहना था, ‘कांग्रेस ने एक ऐसे व्यक्ति को आईबी (खुफिया विभाग) का मुखिया बना दिया जिसका नाम इब्राहिम है।’ अर्थात् गृहमंत्री गुजरात के मुसलमानों को बता रहे थे कि उनकी कांग्रेस पार्टी ने एक मुसलमान को आईबी प्रमुख बना दिया। पर अगर ऐसा ही दावा किसी हिन्दू अफसर के बारे किया जाता तो आलोचना की सुनामी आ जाती। क्या यही सैक्यूलरिज्म है? जो हिन्दुओं की बात करे वह बदनाम और जो अल्पसंख्यकों की बात करे वह गृहमंत्री?
पर ध्यान रखिए कि अब इसकी प्रतिक्रिया हो रही है। हिन्दुत्व मुद्दा चाहे न रहा हो, हिन्दू मुद्दा है। वो समझते हैं कि उन्हें पीछे धकेला जा रहा है। नरेंद्र मोदी को जो इतना समर्थन मिला है इसका कारण केवल विकास का उनका रिकार्ड ही नहीं बल्कि यह भावना भी है कि इस देश में जहां हिन्दू भारी बहुमत में हैं उन्हें योजनाबद्ध तरीके से पीछे किया जा रहा है। मैं नरेंद्र मोदी के पीछे खामोश पर शक्तिशाली, हिन्दू जमाव देख रहा हूं। हिन्दू अपनी लगातार उपेक्षा से नाराज है।
नरेंद्र मोदी का किसी उच्च वंश से संबंध नहीं। एक आम परिवार से संबंधित यह व्यक्ति अपने करिश्माई नेतृत्व के बल पर उस जगह पहुंचने में सफल हुए जहां देश में आज केवल उनकी चर्चा है। वे सही कह सकते हैं:
अपना जमाना आप बनाते हैं अहले दिल
हम वो नहीं जिन्हें जमाना बना गया!
पर क्या वे नया जमाना बनाएंगे? लोग अब एक मौन रहने वाले प्रधानमंत्री और ऊंची दीवारों के पीछे से सरकार चलाने वाले परिवार से दूर जा रहे हैं। हिमाचल की जीत भी वीरभद्र सिंह की निजी जीत है। अगर जमीन की आवाज को सुना जाए, तो यही लगता है कि एक दमदार मुखर विकासशील सक्रिया नेता की तलाश में देश इस वक्त नरेंद्र मोदी की तरफ देख रहा है। स्थिति ‘केवल मोदी’ बनती जा रही है। ‘ओनली मोदी’!
-चन्द्रमोहन