बदलाव आएगा कैसे?
जयपुर में राहुल गांधी के भावुक भाषण को सुन कर दिसंबर 1985 में मुंबई में राजीव गांधी के कांग्रेस शताब्दी पर दिए गए भाषण की याद ताजा हो गई जब राजीव ने कहा था कि “हम (कांग्रेसजन) सार्वजनिक नैतिकता के किसी नियम का पालन नहीं करते, कोई अनुशासन नहीं है, सामाजिक जागरूकता की कोई भावना प्रकट नहीं करते, सार्वजनिक हित के लिए कोई चिंता नहीं। भ्रष्टाचार न केवल बर्दाश्त ही नहीं किया जाता उसे नेतृत्व का मापदंड भी समझा जाता है।” उस भाषण को 27 वर्ष हो गए। इस बीच अटल बिहारी वाजपेयी के शासन को छोड़ कर अधिकतर कांग्रेस या कांग्रेस समर्थक सरकारें ही रही हैं। पिछले नौ साल से तो सरकार की कमान सीधी कांग्रेस तथा गांधी परिवार के हाथ रही है। अब अगर राहुल गांधी को सरकार तथा कांग्रेस के काम काज में खोट नजर आता है तो जिम्मेवारी तो उनकी माता सोनिया गांधी तथा उनके नुमायंदे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ही हैं। गांधीजी तथा नेहरू जी ने प्रतिभाशाली नेतृत्व को प्रोत्साहन दिया था। नेहरू उन लोगों को बर्दाश्त करते रहे जिनसे उनके तीखे मतभेद थे पर इंदिरा गांधी के समय से ही यह पार्टी केवल एक परिवार के इर्दगिर्द केंद्रित हो कर रह गई। आतंरिक उर्जा खत्म है। आज राहुल मान रहे हैं कि सब कुछ गड़बड़ है सत्ता जहर बन चुकी है पर जिम्मेवार कौन है? जवाबदेह कौन हैं? वह खुद समस्या है या समाधान? उनका भाषण तो विपक्ष के नेता का भाषण था जबकि वह खुद इस व्यवस्था के केंद्र में आनंद से स्थापित हैं। अब राहुल गांधी आम आदमी के लिए बहरे हो गए तंत्र को बदलने का वायदा कर रहे हैं। लेकिन यह बदलाव होगा कैसे? जड़विहीन लड्डू बांटते चमचों से घिरी इस कांग्रेस पार्टी को वह बदलाव का अस्त्र कैसे बनाएंगे? उनका कहना था कि वह भारत के लोगों के लिए लड़ेंगे? पर किस से लड़ेंगे? भाजपा तो सत्ता में है नहीं, सत्ता में तो उनकी मम्मी की पार्टी है जिसके अब वह खुद उपाध्यक्ष हैं। उनका कहना है कि बंद दरवाजों के पीछे चंद लोग फैसले करते हैं। 10 जनपथ के बंद दरवाजों के पीछे कौन ये लोग हैं, राहुलजी?
उनका कहना था कि एक रात पहले उनकी मां उन्हें गले लग कर खूब रोई थी। यह स्वाभाविक है। वह मां है, जिन्होंने बहुत बुरा समय देखा है और बहुत दिलेरी से परिस्थिति का सामना किया है। मैं सोनिया गांधी का आलोचक रहा हूं लेकिन उनकी हिम्मत तथा जिस तरह सार्वजनिक तौर पर उन्होंने गरिमामय आचरण किया है उसकी इज्जत करता हूं। राजनीति में अरुचि के बावजूद उन्होंने संघर्ष किया और आज उस जगह पहुंच चुकी हैं जहां वह अपनी पार्टी को अपने पुत्र को सौंपने की स्थिति में हैं। लेकिन इसी में पार्टी की कमजोरी भी छिपी है। कांग्रेस पार्टी एक परिवार के साथ पूरी तरह से बंध गई है। जयपुर की कहानी भी केवल सोनिया-राहुल की कहानी थी, प्रधानमंत्री भी मात्र मुसाफिर नजर आए। मंच पर बैठे चार कतार में नेतागण में एक भी और नहीं था जो पार्टी का उपाध्यक्ष बन सके? कांग्रेस में और भी प्रतिभाशाली युवा नेता हैं। सबको एक तरफ कर केवल राहुल को बागडोर संभाल दी गई। 40-50 तो क्या, एक भी ऐसा नेता तैयार नहीं जो राहुल गांधी का विकल्प हो सके। यह सोनिया गांधी की व्यक्तिगत असफलता है। राहुल गांधी कांग्रेस के अंदर सत्ता-राजनीति की पैदायश है जहां आपका विशेषाधिकार, जन्म, पैसा, प्रभाव आदि आपके लिए बड़े दरवाजे खोल देते हैं। यही कांग्रेस की कमजोरी है। वह ऐसे लोगों से घिरी हुई है जिन्हें मालूम नहीं कि जमीन कितनी तेजी से खिसक रही है और जब जंतर-मंतर या बोट क्लब पर जनविस्फोट होता है तो सुशील कुमार शिंदे जैसे लोग कहते हैं कि “मैं वहां क्यों जाऊं, वह मेरे पास आए!” यह 1985 का भारत नहीं है। यह वह भारत है जिसकी उनके गांधी नाम के प्रति श्रद्धा रखना मजबूरी नहीं है। लोगों को अकल आ गई है। जयपुर के सोनिया गांधी के भाषण के बाद सोशल मीडिया में जो नकारात्मक टिप्पणियां हुई हैं उनसे भी मालूम हो जाना चाहिए कि देश बदल गया है।
कांग्रेस पार्टी भाजपा से इतनी आतंकित नहीं जितनी इस ‘फ्लैश मॉब’ अर्थात्ï अचानक जुड़ती भीड़ से है क्योंकि पार्टी को भी अहसास है कि नैतिक ताकत भी इन युवाओं के पास है। क्योंकि कांग्रेस पिछले नौ साल से सत्ता में है और इन नौ सालों में महंगाई, असमानता, अव्यवस्था तथा भ्रष्टाचार सभी सीमाएं पार कर गए हैं इसलिए जनता के गुस्से का वह शिकार हो रही है। सोशल साईट्स पर सरकार के प्रति आक्रोश जिस तरह छलक रहा है और विशेष तौर पर गांधी परिवार के प्रति जो नाराजगी नजर आ रही है उससे कांग्रेस के नेताओं को चिंतित होना चाहिए क्योंकि पार्टी की एक मात्र पूंजी, गांधी-परिवार, का भी धीरे-धीरे अवमूल्यन हो रहा है।
वित्तमंत्री पी. चिदंबरम, जो शिखर पर सबसे समझदार मंत्री नजर आते हैं, ने माना है कि सरकार इस ‘फ्लैश मॉब’ से सही तरीके से निबट नहीं सकी। इसका असली कारण क्या है? कांग्रेस तथा इस सरकार की बड़ी समस्या है कि कोई युवाओं से संवाद कायम करने का प्रयास नहीं करता। वास्तव में कांग्रेस पार्टी ने जनता से संवाद कायम करना ही बंद कर दिया है। चाहे दिल्ली में छात्रा से बलात्कार का मामला हो या नियंत्रण रेखा पर हमारे जवानों के पाकिस्तान द्वारा सर काटने का मामला हो, हमारे प्रधानमंत्री को लोगों से बात करने में सात-आठ दिन लग गए। तत्काल संवेदनशीलता प्रकट करने की तो हम अपने प्रधानमंत्री से आशा ही नहीं कर सकते। जब इन दो जवानों की हत्या की घटना हुई तो तत्काल मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एक शहीद के घर पहुंचे। उन्होंने अर्थी को कंधा भी दिया। उनको देख कर दो दिन के बाद अखिलेश यादव भी उत्तर प्रदेश से शहीद हुए जवान के घर पहुंचे। लेकिन उल्लेखनीय है कि कांग्रेस के नेतृत्व से कोई नहीं पहुंचा।
राहुल गांधी को कांग्रेस ने युवा शक्ति का प्रतीक बनाने का प्रयास किया था पर युवाओं के हर आंदोलन से वे गायब रहे। गैंग रेप से संबंधित घटनाक्रम के दौरान लोग पूछते रहे कि राहुल कहां है? कांग्रेस के एक नेता ने तो टिप्पणी भी की है कि ‘अगर राहुलजी को कुछ हो जाता?’ मैं ऐसी संभावना को रद्द नहीं करता कि लोग विरोध करते, पर नेता तो वह होता है जो ऐसी बातों की परवाह नहीं करता। जवाहरलालजी तो भीड़ को नियंत्रण करने के लिए इसके बीच कूद जाते थे। अटल बिहारी वाजपेयी तथा लाल कृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं ने डंडे भी खाए और पानी की बौछारें भी सही। अगर आप ऐसी स्थिति का सामना करने को तैयार नहीं तो आपको घर बैठ जाना चाहिए।
आज सबसे बड़ी जरूरत यह है कि आम नागरिक यह समझे कि राजनीति उनके लिए है, उनके विरोध में नहीं। ऐसा करने के लिए कांग्रेस पार्टी को जनता के साथ अपनी खामोशी तोड़नी होगी। इस समय तो तीनों बड़े अपनी अपनी ऊंची दीवारों से बाहर निकलने को तैयार नहीं लगते। कांग्रेस ने 2014 का बिगुल बजा दिया है लेकिन उससे पहले इस साल 9 विधानसभा चुनाव हैं। अर्थात् राहुल के नेतृत्व की तत्काल परीक्षा है। लोग देखेंगे कि वे करते क्या हैं, यह नहीं कि वे कहते क्या हैं? 2014 में मुकाबला नरेंद्र मोदी से होगा। दोनों की पृष्ठभूमि में जमीन आसमान का अंतर है। एक का जन्म उच्च वंश में हुआ है। दरबारियों ने राजनीति तथा सत्ता तश्तरी में रख कर पेश कर दी। दूसरे का जन्म एक आम परिवार में हुआ है। संघर्ष किया और अपने दमखम पर खुद को राष्ट्रीय स्तर का नेता बनाया। राजा और रंक के बीच का यह मुकाबला दिलचस्प रहेगा।
-चन्द्रमोहन