महानायक, यह जुम्मा-चुम्मा की उम्र नहीं है
हमारे संविधान निर्माता अभिव्यक्ति की आजादी पर ‘जायज पाबंदी’ के पक्ष में थे पर हमारा मनोरंजन उद्योग, सिनेमा, टीवी और मीडिया का एक वर्ग, समझता है कि वह कुछ भी दिखा सकते हैं, उन्हें पूर्ण आजादी है। उदाहरण पश्चिमी देशों का प्रस्तुत किया जाता है लेकिन वे भूलते हैं कि उनके समाज तथा हमारे समाज में बहुत अंतर है। हमारा समाज कई मामलों में उनसे अधिक परिपक्व है लेकिन कई मामलों में अभी भी मध्यकालीन युग की बर्बरता है, जैसा दिल्ली में हुए गैंगरेप से मालूम होता है। वहां ऐसे गैंगरेप नहीं होते। आजकल देश के चारों तरफ से बलात्कार के समाचार मिल रहे हैं। छोटी-छोटी बच्चियों के साथ बलात्कार के समाचार मिले हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे इस समाज का नैतिक आधार ही नहीं रहा। विशेषतौर पर युवाओं का एक वर्ग तो यौन भेड़िया बनता जा रहा है। हाल ही में कुछ बॉलीवुड हस्तियों के बयान आए थे कि वे गणतंत्र दिवस नहीं मनाएंगे क्योंकि जो हो रहा है वह शर्मनाक है पर उन्हें भी अंदर झांकने की जरूरत है कि इस शर्मनाक स्थिति के लिए और फैलते सांस्कृतिक प्रदूषण के लिए खुद बॉलीवुड और मनोरंजन उद्योग जिम्मेवार तो नहीं?
बॉलीवुड का देश के प्रति बहुत योगदान है। इसने देश की भावनात्मक एकता बढ़ाई है पर बॉलीवुड पर यह भी आरोप है कि आजकल वह एक महिला को एक यौन वस्तु की तरह प्रस्तुत कर रहा है। जेम्स बांड की पहली फिल्म ‘डॉक्टर नो’ में उर्सला एंड्रस को सफेद स्विम सूट में समुद्र से निकलते दिखाया गया था। यह 1962 की फिल्म है। यह दृश्य न जाने हमारी कितनी फिल्मों में दोहराया गया है। यह कामुकता नहीं तो क्या है? हाल ही में ‘मटरू की बिजली का मंडोला’ फिल्म में हिरोईन का पहला परिचय तब करवाया गया जब लोगों से घिरे तालाब से नहा कर कम से कम वस्त्रों में टपकते पानी में मुस्कराते हुए दबंग वह बाहर निकलती है। कल्पना के लिए कुछ नहीं छोड़ा जाता। नई हिरोईन भी ‘बोल्ड’ हो गई है। उन्हें भी अधनंगा दिखाया जाना मंजूर है। जावेद अख्तर ने एक जगह लिखा है, ‘छोटे शहरों या कस्बों में जहां लड़की को लड़का सिर्फ दूर से देखता है तो वहां फैंटसी पैदा होती है, उसकी सोच भटकती है।’ पर ऐसी ‘फैंटसी’ पैदा करने में बॉलीवुड का कितना हाथ है?
हम एक नाजायज संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं जहां महिला को एक ‘आईटम गर्ल’ प्रस्तुत किया जाता है। पहले महिला ‘भूत’ (साधना- वो कौन थी) साड़ी में लिपटी आती थी, अब तो वह भी मिनी स्कर्ट (करीना कपूर-तलाश) में नजर आती है! कहा तो जाएगा कि यह दृश्य फिल्म के लिए जरूरी है। आखिर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला है। सैंसर बोर्ड भी खुद को उदार साबित करने के लिए सब कुछ पास करता जा रहा है। यह नहीं सोचा जा रहा है कि इस ओच्छेपन का समाज पर क्या असर पड़ता है? यह अमेरिका या फ्रांस या इंग्लैंड नहीं जहां आप टीवी पर भी चुंबन दिखा सकते हो। यहां तो अधिकतर परिवारों के पास एक ही सेट होता है। ऐसे दृश्य मां-बाप अपने बच्चों के साथ नहीं देख सकते। खुद को लिबरल साबित करने की दौड़ में हम एक अपसंस्कृति को आमंत्रित कर रहे हैं।
बॉलीवुड कई बार हदें पार कर रहा हैं। आखिर महिला कोई ‘चिकनी चमेली’ तो है नहीं। निश्चित तौर पर वह फैवीकॉल नहीं है। न ही वह ‘मस्त-मस्त’ चीज है। एक जमाने में हैलन के कैबरे नम्बर बहुत लोकप्रिय थे लेकिन वह कैबरे डांस उस तरह अश्लील नहीं थे जैसे आज के ‘आईटम नम्बर’ हैं। बॉलीवुड की पहुंच घर-घर में है इसलिए जब ‘मुन्नी बदनाम हुई’ तो देश में हजारों मुन्नी को छेड़खानी सहनी पड़ी। ‘शीला की जवानी’ भी क्या है? ऐसे गानों के समय कैमरा भी अभिनेत्री के शरीर के चक्कर बड़े स्वाद के साथ लगाता रहता है। कई फिल्मों में कैमरे की नजर तो एक बलात्कारी जैसी है। आज तक कि यादगार सफल फिल्में, मदर इंडिया, मुगले आजम, शोले, कभी-कभी, दिलवाले दुल्हनियां ले जाएंगे, आदि घटियापन के बिना इतनी सफल रही हैं। फिल्म ‘कहानी’ अपनी कहानी के कारण जबरदस्त हिट हुई है, लेकिन रानी मुखर्जी जैसी वरिष्ठ कलाकार को भी ‘नो वन किल्ड जैसिका’ में भद्दी गालियां बोलते दिखाई गई है। ‘चोली के पीछे क्या है’ देखने को दिलचस्प लगता है लेकिन पीछे असली अर्थ क्या है? एक फिल्म अवार्ड समारोह में एडलट फिल्मों की हिरोईन सन्नी लियोन को अवार्ड देने के लिए मंच पर बुलाया गया। इससे भी बॉलीवुड क्या संदेश दे रहा है कि सब कुछ चलता है? जो बिकता है वह सही है वह कितना भी अश्लील और अस्वीकार्य हो? अब उसका ट्विट था कि रेप क्राईम नहीं, सरप्राईज सैक्स है। क्या बॉलीवुड की वह हस्तियां जो उसे उठाए फिरती हैं, सहमत हैं? अफसोस है कि एक और फिल्म समारोह में अमिताभ बच्चन जैसे वरिष्ठ और अधेड़ आयु के कलाकार ने ‘जुम्मा चुम्मा दे दे’ को फिर अभिनीत किया। और यह महानायक क्या संदेश दे रहे हैं कि जो सस्ता है, बाजारी है, घटिया और लच्चर है वह बढ़िया है। महानायक, हमारी उम्र ग्रैंड चिल्ड्रन को कहानियां सुनाने की है, जुम्मा-चुम्मा की नहीं!
फरहान अख्तर का कहना है कि जिस तरह हमारी फिल्मों में रोमांस दिखाया जाता है उससे उन्हें परेशानी होती है क्योंकि यहां दिखाया जाता है कि एक महिला एक पुरुष के प्यार के लिए लगातार उत्पीड़न के आगे खुशी से समर्पण कर देती है। उनका मानना है कि एक महिला का ऐसा प्रस्तुतीकरण आईटम सांग से भी बुरा है। बात उनकी ठीक है पर यहां तो सब कुछ कामर्स है, व्यापार है चाहे इस पर अभिव्यक्ति की आजादी का लिबास डाला जाता है। 100 करोड़ रुपए की हिट फिल्म, 200 करोड़ रुपए की हिट फिल्म! फिल्म उद्योग वैसे बहुत उदार बनता है पर जिस तरह वे महिला को अनुदार तरीके से पुरुष के हाथ का खिलौना प्रस्तुत करते हैं उस पर वे गौर करने को भी तैयार नहीं। जया बच्चन जो दिल्ली के गैंगरेप पर भावुक हो गई थी भी यह मानने को तैयार नहीं कि समाज में आई गिरावट में कहीं बालीवुड का भी हाथ है। पर ‘अभिमान’ को सफल होने के लिए आईटम डांस की जरूरत नहीं थी।
जब औरत की देह का बेवजह इस्तेमाल किया जाता है, चाहे यह फिल्म में हो या हनी सिंह जैसों के पंजाबी के गानों में हो तो इसका अपरिपक्व दिमाग पर बुरा असर होता है। बाजारीकरण ने औरत को एक वस्तु बना दिया है। विज्ञापनों में भी कुछ भी बेचना हो तो लडक़ी चाहिए। सीमेंट के विज्ञापन के लिए भी। अगर हम वास्तव में बढ़ते बलात्कार तथा यौन हिंसा से समाज को बचाना चाहते हैं तो एक औरत को यौन वस्तु के रूप में दिखाने वाली हर चीज, हर दृश्य, हर गाने का विरोध करना पड़ेगा। जो बुद्धिजीवी और पढ़े-लिखे इस गैंग रेप से उत्तेजित हैं वे ऐसी किसी पाबंदी का जबरदस्त विरोध करते हैं जबकि सारे माहौल में ही सैक्स घुला जा रहा है। सिनेमा से लेकर अखबारों से लेकर इंटरनैट तक सब जगह स्त्रीदेह का अनावश्यक इस्तेमाल किया जा रहा है।
कानूनी ढंग से ही बलात्कार नहीं रूकेंगे। कानून सख्त होना चाहिए, जल्द सजा मिलनी चाहिए। अगर कोई नाबालिग बलात्कार करता है तो उसे उसकी आयु के अनुसार नहीं, उसके अपराध के अनुसार सजा मिलनी चाहिए पर मनोरंजन उद्योग तथा मीडिया को भी अपनी भूमिका पर नजर दौड़ानी चाहिए। समाज में पहले ही बहुत तनाव हैं। इस उपभोक्तावादी संस्कृति ने युवाओं के एक बड़े वर्ग को अतृप्त, कुंठित और असभ्य बना दिया है। वे बाजार की चकाचौंध देखते हैं लेकिन हसरतें अधूरी रह जाती हैं। शहरों में चेन खींचने या पर्स खींचने की जो घटनाएं बढ़ रही हैं उसका कारण भी यह है कि युवाओं के एक वर्ग की इच्छाएं पूरी नहीं हो रही इसलिए जबरदस्ती कर रहे हैं। फिल्मों में हिंसा, हीरो का कानून का मजाक उड़ाना, हीरोईन का अंग प्रदर्शन को खुशी से बढ़ावा देना, भी इन युवकों को आपराधिक आचरण की तरफ धकेल रहा है। बढ़ते बलात्कार का यही एकमात्र कारण नहीं, लेकिन यह सब समाज में और जहर जरूर घोल रहा है।
-चन्द्रमोहन