‘ऐलिएनेशन’ दो तरफा हो सकती है
अफजल गुरू की फांसी के बाद कश्मीर वादी में हालात तनावग्रस्त बने हुए हैं। उमर अब्दुल्ला को घबराहट है कि कश्मीरियों की मुख्यधारा से ‘ऐलिएनेशन’, अर्थात् विमुखता और मजबूत होगी। लेकिन कश्मीरी तो सामान्य स्थिति में अकारण भी ‘विमुख’ रहते हैं। आदत सी बना ली है। आज से नहीं है दशकों से हैं। हैरानी है कि जब लाखों कश्मीरी पंडितों को वहां से निकलने के लिए मजबूर किया गया तब यह ‘विमुखता’ नजर नहीं आई। उस व्यक्ति की फांसी पर इतना छटपटा जिसने देश के खिलाफ युद्ध किया हो, कश्मीरी भी बाकी देश को क्या संदेश दे रहे हैं? जो कश्मीरी कश्मीर से बाहर रहते और काम करते हैं उनकी आम शिकायत रहती है कि उन्हें शंका से देखा जाता है, बराबर नागरिक नहीं समझा जाता पर जब वहां ऐसी हरकतें होती है तो अविश्वास बढ़ता है। यह अविश्वास खत्म करना बाकी देश की जिम्मेवारी ही नहीं है, खुद कश्मीरियों की भी है। रवैया बना लिया है कि देश से मिलता पैसा तो सही है पर बाकी सब गलत। इस फांसी के खिलाफ पाकिस्तान में यासिन मलिक भूख हड़ताल पर बैठ गए हैं। वीडियों में साथ बैठा हुआ है मुंबई हमले का मास्टर मांईड हाफिज सईद। हाफिज सईद के साथ मंच सांझा करते हुए यासिन मलिक को शर्म नहीं आई? यह तो गद्दारी है। वह देश के घाव पर नमक नहीं छिडक़ रहा? हुर्रियत नेताओं की हालत तो यह है कि जब प्रधानमंत्री उन्हें वार्ता के लिए बुलाते हैं तो नखरे करते वह इंकार कर देते हैं लेकिन पाकिस्तान से कोई प्यादा भी आ जाए तो नई शेरवानी सिलवा इतराते हुए पाक हाई कमीशन पहुंच जाते हैं।
हमें राष्ट्रीय दृढ़ता दिखानी होगी कि हम साफ्ट स्टेट नहीं हैं। चाहे रूबिया सईद के अपहरण का मामला हो, इंडियन एयर लाईंस की उड़ान 814 के यात्रियों को छुड़वाने के लिए आतंकवादियों की रिहाई का मामला हो, राजीव गांधी के या बेअंत सिंह के हत्यारे का मामला हो, या अफजल गुरू की फांसी का मामला हो, हम गजब की कमजोरी और हिचकिचाहट दिखाते हैं। पोटा हमने हटाया यह जानते हुए भी कि यहां आतंकी घटनाएं होती रहेंगी। अफजल गुरू की फाईल राष्ट्रपति भवन -गृहमंत्रालय-दिल्ली सरकार के लगभग 10 किलोमीटर के घेरे में 8 वर्ष घूमती रहीं। एक बार तो फाईल ‘गुम’ भी हो गई थी। शीला दीक्षित की सरकार को दर्जनों रिमाईंडर देने पड़े। किसी भी दूसरे देश में ऐसा तमाशा नहीं होता। 2005 में जब देश की सर्वोच्च अदालत ने अपना फैसला दे दिया तो उसके बाद कार्रवाई हो जानी चाहिए। राष्ट्रपति के पास भी यह सुविधा नहीं होनी चाहिए कि वे मामला लटकाए रखें जैसे प्रतिभा पाटिल ने किया था। एक समय सीमा होनी चाहिए जिसके बीच दया याचिका स्वीकार की जाए या रद्द की जाए लेकिन इसके लिए जरूरी है कि राष्ट्रपति भी प्रतिभा पाटिल जैसे नहीं प्रणब मुखर्जी जैसे लोग बनाए जाएं।
उस दिन संसद अधिवेशन चल रहा था। अगर आतंकवादियों का इरादा सफल हो जाता तो अनर्थ हो जाता। दोनों देशों के बीच परमाणु युद्ध तक हो सकता था। जो सुरक्षा कर्मी तथा दूसरे कर्मचारी संसद को बचाते शहीद हो गए उनके परिवारजन इस देरी से इतने खफा थे कि उन्होंने उनके मैडल लौटा दिए। अदालत का कहना था कि अफजल जो पाकिस्तान में ट्रेनिंग लेकर आया था, देश के खिलाफ युद्ध करने की साजिश की महत्वपूर्ण कड़ी था। उसने बम बनाने के लिए आतंकवादियों को गोला बारुद उपलब्ध करवाया, दिल्ली में ठहराने के लिए जगह दी थी, सैलफोन दिलवाए थे, हमले से कुछ मिनट पहले तक वह उनके साथ सम्पर्क में था। ऐसे आतंकवादी को कैसे माफ किया जा सकता है? पोटा अदालत के न्यायाधीश एस एन ढींगरा का कहना है कि सबूत इतने स्पष्ट और पक्के थे कि न केवल एक न्यायाधीश बल्कि किसी को भी शंका नहीं होती।
गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे का कहना है कि अफजल गुरू की फांसी राजनीतिक नहीं है। लेकिन उनके पास भी इस बात का जवाब नहीं कि इतने साल यह मामला क्यों लटकाया गया? उस वक्त फांसी सही नहीं थी, आज सही है? तब मुश्किल थी, अब आसान है? एक बार न्यायिक निर्णय आ जाएं तो उसके बाद राजनीतिक देर नहीं होनी चाहिए। जहां तक आतंकवादी मामलों का सवाल है चाहे कोई विधानसभा प्रस्ताव पारित करे या कोई मुख्यमंत्री फांसी रोकने के लिए लॉबी करें, तंत्र को दबाव में नहीं आना चाहिए। तमिलनाडु में राजीव गांधी के हत्यारे संथम, मुरूगन तथा पेरारिवलम के मामले लटके हुए हैं; जिस तरह पंजाब में बलवंत सिंह राजुआणा तथा दविंद्र सिंह भुल्लर के मामले ‘पैंडिग’ रखे गए हैं। इसीलिए उमर अब्दुल्ला को यह कहने का मौका मिल गया है कि कश्मीरियों की भावनाओं का ध्यान नहीं रखा जा रहा जबकि बाकी प्रदेशों के लोगों के प्रति सरकार संवेदनशील है।
क्या इस वक्त अफजल गुरू को फांसी देना राजनीति है? सारी टाईमिंग तो यह ही संकेत देती हैं। चारों तरफ से घिरी यह सरकार अब संदेश दे रही है कि वह निर्णायक और साहसी है। सरकार की बहुअसफलताओं से ध्यान हटा कर भावनात्मक मुद्दों पर लाया जा रहा है। संसद के शरदकालीन अधिवेशन से पहले अजमल कसाब को फांसी पर लटका दिया गया और अब बजट अधिवेशन से पहले अफजल गुरू की बारी आ गई। अढ़ाई महीने में दो आतंकवादियों को लटका कर यह सरकार एजेंडा बदलने की कोशिश कर रही है। ‘हिन्दू आतंकवाद’ को लेकर भाजपा गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे को निशाना बना रही थी। नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तान द्वारा एक जवान का सर कलम करने का गंभीर मामला भी है। घपले, भ्रष्टाचार, महंगाई तो हैं ही। आगे विधानसभाओं के चुनाव भी हैं फिर लोकसभा का चुनाव है। पास कहने के लिए कुछ नहीं था। अब कम से कम राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा तो हाथ आ गया है पर जिस तरह यासिन मलिक को हाफिज सईद के साथ बैठे चैनलों में दिखाया गया उससे फिर यह सवाल उठता है कि क्या यह सरकार वाकय ऐसे मामलों में गंभीर है? यासिन मलिक और दूसरे अलगाववादी नेता जो भारतीय पासपोर्ट पर यात्रा करते हैं, को भारतीय राज्य सुरक्षा और बहुत कुछ देती है, उनकी सेहत का दिल्ली में मुफ्त इलाज करवाया जाता है, उन्हें पाकिस्तान जाकर भारत विरोधियों से मिलने की उदारता हम क्यों दिखा रहे हैं? हाफिज सईद हमारा अपराधी ही नहीं वह संयुक्त राष्ट्र तथा अमेरिका द्वारा अंतर्राष्ट्रीय आतंकवादी घोषित किया जा चुका है। वह तो कह ही रहा है कि कश्मीर में फिर गड़बड़ करवाने का समय आ गया है। अगर सरकार सचमुच राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में सख्त है तो भारत लौटने पर यासिन मलिक के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए।
बहरहाल इस सारे प्रकरण में सबके लिए सबक हैं। आतंकवादियों और उनके समर्थकों को संदेश जाना चाहिए कि उनके प्रति कोई नरमी नहीं दिखाई जाएगी। जो भारत राष्ट्र के खिलाफ चलेगा उसके खिलाफ शून्य बर्दाश्त दिखाया जाएगा। कश्मीरी नेताओं को भी समझना चाहिए कि ‘एलिएनेशन’ एकतरफा नहीं दोतरफा भी हो सकती है। इस ब्लैकमेल से देश उब गया है। विडम्बना है कि नरेंद्र मोदी सुशासन की बात कर रहे हैं और कांग्रेस भावनात्मक मुद्दे उछाल रही है। भाजपा से आतंकवाद का मुद्दा छीनने की तैयारी की जा रही है जबकि देश का ध्यान आर्थिक विकास, महंगाई, भ्रष्टाचार तथा अच्छी सरकार पर है। वहां कांग्रेस जवाबदेह है। सबसे जरूरी तो यह है कि ऐसे कदम गुणदोष के आधार पर लिए जाएं। केवल यह देख कर ही नहीं उठाएं जाने चाहिए कि असफलता से ध्यान हटाना है या सुशील कुमार शिंदे को बचाना है या नरेंद्र मोदी का मुकाबला करना है।
-चन्द्रमोहन