
कैमरन की आधी अधूरी
जलियांवाला नरसंहार के लगभग 94 वर्ष के बाद ब्रिटेन के एक प्रधानमंत्री ने वहां झुक कर और मौन रख कर स्वीकार किया है कि उस घटना से वे शर्मिंदा हैं। डेविड कैमरन ने वहां लिखा है, ‘ब्रिटेन के इतिहास में यह बेहद शर्मनाक घटना है। विंस्टन चर्चिल ने इस घटना को उस समय सही ही राक्षसी कहा था।’ अर्थात् ब्रिटिश प्रधानमंत्री यह तो स्वीकार कर रहे हैं कि वे इस घटना के लिए शर्मिंदा हैं पर उन्होंने स्पष्ट तौर पर माफी नहीं मांगी जिससे कई लोग यहां निराश भी हुए हैं। 1997 में महारानी इलिजाबेथ तथा उनके पति प्रिंस फिलिप्स भी वहां आए थे लेकिन फिलिप्स ने यह कह कर कि मरने वालों की संख्या इतनी नहीं थी जितनी बताई गई, नया विवाद खड़ा कर लिया था। लोगों ने उन्हें काले झंडे दिखाए थे। ब्रिटेन का मानना है कि वहां 400 लोग मारे गए थे जबकि हम इनकी संख्या 1000 से अधिक बताते हैं। अगर शहीद हुए लोगों की संख्या के विवाद को एक तरफ रख भी दिया जाए यह नरसंहार ब्रिटेन के माथे पर सदैव कलंक रहेगा जिसने वह लहर शुरू कर दी जो 1947 में भारत की आजादी पर जाकर खत्म हुई थी।
फिर भी कैमरन पहले ब्रिटिश प्रधानमंत्री हैं जो जलियांवाला बाग गए हैं और हमारे शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की है। उनका कहना है कि यह घटना उनके पैदा होने से 40 वर्ष पहले घटी थी। यह बात तो सही है पर है तो, वे उसी सरकार के प्रतिनिधि हैं जिसने उस समय हमें गुलाम बनाया था और चारों तरफ से बंद जलियांवाला बाग में बिना चेतावनी निहत्थे लोगों पर गोलियां चलवाई थी। अगर वे पूरी तरह से माफी मांग लेते तो यह उनकी उदारता समझी जाती। यह तो आधा अधूरा प्रयास ही लगता है। कैमरन हमें खुश भी करना चाहते हैं पर घर बैठे लोगों को नाराज भी नहीं करना चाहते थे कि वे जरूरत से अधिक झुक गए हैं। वे ब्रिटेन में रह रहे पंजाबियों को प्रसन्न रखना चाहते हैं ताकि वहां 2015 के चुनाव में फायदा हो सके। उन्हें भारत से व्यापार भी चाहिए। उन्होंने इस घटना की निंदा करने के लिए अपने एक और प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल के कंधे पर रखकर बंदूक क्यों चलाई? उनके पास अपने शब्द नहीं थे कि उन्हें चर्चिल के शब्द उधार लेने पड़े? क्या ऐसा इसलिए किया गया ताकि वे अपने देश में उन लोगों की आलोचना से बच सकें जो जलियांवाला बाग की गोलाबारी को जायज मानते हैं और अभी भी ‘ग्रेट’ ब्रिटेन के सपने लेते हैं? याद रखना चाहिए उस वक्त जनरल डायर को इस नरसंहार के बाद वहां यह कह कर सम्मानित किया गया कि ‘वह व्यक्ति जिसने इंडिया को बचा लिया।’ उसकी सहायतार्थ 26,000 पौंड की विशाल राशि इकट्ठी की गई।
एक और बात। उन्होंने चर्चिल का जिक्र किया है जैसे कि वह बहुत बड़ा मानवतावादी था पर यह वह शख्स है जिसने कदम कदम पर भारत की आजादी का विरोध किया था। उसे भारतीयों तथा गांधी से नफरत थी। ब्रिटिश संसद में दिए गए अपने भाषण में उसने भारतीयों को ‘तिनकों से बने लोग’ कहा था जो आजादी को संभाल नहीं सकेंगे। विडंबना है कि इन तिनकों से बने लोगों से ही सौदे लेने के लिए ब्रिटिश प्रधानमंत्री एक ट्रेवलिंग सेल्समैन की तरह बार-बार भारत के चक्कर लगा रहे हैं। चर्चिल पर तो यह गंभीर इल्जाम भी लगा कि उसने 1943 के बंगाल अकाल के समय वहां अनाज नहीं पहुंचने दिया था। अनुमान है कि उस अकाल में 15 से लेकर 40 लाख तक लोग मारे गए थे। अगर बाहर से अनाज की शिपमेंट आ जाती तो बहुत लोग बच सकते थे लेकिन उस वक्त चर्चिल की इसमें दिलचस्पी नहीं थी। सच्चाई है कि चर्चिल की अपराधों तथा क्रूरता की लंबी सूची केवल इसलिए दब गई क्योंकि वह द्वितीय विश्व युद्ध का विजेता था। अकाल की घटना 70 साल पुरानी है लेकिन हम पर ब्रिटेन की ज्यादतियों की लम्बी सूची का बड़ा हिस्सा है। शायद इसीलिए कैमरन ने माफी नहीं मांगी। आखिर वह किस किस ज्यादती के लिए माफी मांगते? और ब्रिटेन किस-किस देश से माफी मांगता? असली माफी तो इस बात की मांगी जानी चाहिए उन्होंने हमें गुलाम रखा। हमारा आर्थिक शोषण किया। हमें लूटा गया। हम पर अत्याचार किया गया। हमारे अधिकार हम से छीन लिए गए। आखिर द्वितीय विश्वयुद्ध अपराध के लिए जापान ने लगभग एक दर्जन बार माफी मांगी है।
फ्रांस के राष्ट्रपति हॉलैंडे के प्रस्थान तथा जर्मनी की राष्ट्रपति एंजेला मार्कल के आगमन के बीच ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरन भारत आए थे। वे 2010 में भी भारत आए थे। कूटनीतिक क्षेत्र में यह परंपरा है कि एक राजकीय यात्रा के बाद दूसरी राजकीय यात्रा तब तक नहीं की जाती जब तक मेजबान देश के नेता भी जवाबी यात्रा नहीं कर लेते हैं। कैमरन की 2010 की यात्रा के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इंग्लैंड नहीं जा सके पर इसके बावजूद कैमरन साहिब भारत की यात्रा पर पहुंच गए हैं और आशा कर रहे हैं कि भारत और ब्रिटेन के बीच रिश्ते ‘21वीं सदी की महान् सांझेदारी’ में परिवर्तित हो जाएंगे। वे भारत के साथ ‘विशेष रिश्तों’ की भी बात कर रहे हैं और उनका कहना है कि ‘मुझे कोई शक नहीं कि भारत इस सदी की सफल कहानी होगा।’ ब्रिटेन की भारत की ‘सफल कहानी’ में क्या दिलचस्पी है यह कैमरन के अगले कथन से पता चलता है कि ’मैं चाहता हूं कि जैसे-जैसे आप तरक्की करते हैं और सफल होते हैं, ब्रिटेन आप का हिस्सेदार बनता जाए।’
यह सारी कहानी का निचोड़ है। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री की हमारी तरक्की में यही दिलचस्पी है कि वह इसका हिस्सा पाना चाहते हैं। वे जानते हैं कि भारत के ब्रिटेन के साथ संबंध फ्रांस या जर्मनी की तुलना में पिछड़ गए हैं। बड़े-बड़े अनुबंध जर्मनी या फ्रांस से किए जा रहे हैं। उन्हें विशेष निराशा इस बात को लेकर है कि भारतीय वायुसेना के लिए सौ से अधिक जहाज खरीदने का 20 अरब डॉलर का अनुबंध ब्रिटेन से नहीं बल्कि जर्मनी- फ्रांस द्वारा बनाए जा रहे यूरोफाईटर से किया गया है। इसलिए कैमरन साहिब उतावले हैं। वे बाकी सौदों में पीछे नहीं रहना चाहते इसलिए 140 लोगों का भारी प्रतिनिधिमंडल लेकर भारत में उतर गए। उन्हें भारत से बिजनैस चाहिए। इसीलिए हमारी तारीफ भी इतनी की जा रही है।
लेकिन क्या भारत और ब्रिटेन का एक ‘विशेष रिश्ता’ है? उल्लेखनीय है कि ये वह ही कहते हैं। भारत में ऐसे किसी रिश्ते को महत्त्व नहीं दिया जाता। हमें तो राष्ट्रमंडल ही पुरातन और फिजूल नजर आता है। आखिर जिसे शताब्दियों गुलाम रखा गया हो और जिसने गुलाम किया हो उनके बीच क्या ‘विशेष रिश्ता’ हो सकता है? अब भारत अपनी हजार समस्याओं के बावजूद एक उभरती ताकत है जबकि ब्रिटेन में तो मंदी खत्म होने को नहीं आ रही। इसीलिए इतने हाथ पैर मारे जा रहे हैं। आखिर में कैमरन साहिब से एक निवेदन है। अगर वे सचमुच अतीत की शर्मिंदगी से मुक्त होना चाहते हैं तो कम से कम हमारा कोहेनूर हीरा तो हमें वापिस कर दें। यह 1850 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 13 वर्षीय दिलीप सिंह से जबरदस्ती हथिया कर विक्टोरिया को दिया था। डलहौजी का मानना था कि यह spoils of war अर्थात् युद्ध की कमाई है। कैमरन का भी कहना है कि कोहेनूर हमारा है। कुलदीप नैय्यर जब ब्रिटेन में उच्चायुक्त थे तो उन्होंने भी कोहेनूर वापिस लाने का बहुत प्रयास किया था पर असफल रहे थे। अब फिर कैमरन का कहना है कि वे इसे लौटाएंगे नहीं। नो सर, यह 105 कैरेट का हीरा आपका नहीं है। वास्तव में यह लूट का हिस्सा है। डाके के माल पर उत्तराधिकारियों का हक नहीं बनता।