
करें या न करें, यही है सवाल
राहुल गांधी का आचरण कई बार शेक्सपीयर के पात्र डैनमार्क के युवराज हैमलॅट की याद ताजा कर देता है, टू बी ऑर नौट टू बी, इज द क्वश्चन? करूं या न करूं? यही सवाल है। दुविधा है। वे दस वर्षों से राजनीति में हैं लेकिन अभी तक यह निर्णय नहीं कर सके कि वे इसे पसंद करते हैं या नहीं करते? शुरू में उनके पिता राजीव गांधी इस मामले में बिल्कुल स्पष्ट थे। उन्हें राजनीति नहीं करनी। अगर किस्मत ने दखल न दिया होता और हवाई हादसे में भाई संजय की मौत न होती तो राजीव इस वक्त तक एयरलाईन के सीनियर कैप्टन रिटायर हो चुके होते। न ही सोनिया गांधी को ही राजनीति में दिलचस्पी थी। उन्होंने खुद माना है कि राजीव गांधी के राजनीति में आने के निर्णय के खिलाफ वह ‘टाईग्रैस’ की तरह लड़ी थी। लेकिन राजीव ने यह कह कर कि मम्मी को मेरी जरूरत है उस क्षेत्र में कदम रख दिया जो उन्हें शिखर तक तो पहुंचा देगा पर जो उनके निर्मम अंत का कारण भी बनेगा। राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया गांधी ने पार्टी अध्यक्ष बनने से इंकार कर दिया था और पीवी नरसिंहाराव को प्रधानमंत्री बनवा दिया था जो एक सफल प्रधानमंत्री रहे थे चाहे कांग्रेस पार्टी अब तक यह मानने को तैयार नहीं। हैरानी है कि फिर अचानक सोनिया गांधी महत्वाकांक्षी बन गईं और एक बार तो सरकार बनाने का दावा भी कर दिया जिसे मुलायम सिंह यादव ने पंक्चर कर दिया था। लेकिन राजनीति में उनकी दिलचस्पी खत्म नहीं हुई। 2004 में उन्हें मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवा दिया पर तब तक सोनिया राजनीति को उसी तरह पसंद करने लगीं जैसे मच्छली पानी को करती है। उनका बदला रवैया हमारी राजनीति की सबसे हैरान करने वाली कलाबाजी होगी।
उन्हें सफलता भी बहुत मिली। आज वे प्रधानमंत्री नहीं हैं पर खुशी से और मजबूती से सरकार तथा कांग्रेस पार्टी की लगाम अपने हाथ में थामे हुए हैं। यूपीए अगर 9 साल पूरे कर रही है तो मुख्यतया श्रेय उन्हीं को जाता है। हैरानी यह भी है कि जिस सोनिया गांधी को राजनीति से इतनी नफरत थी वे खुद अपने पुत्र, तथा कुछ हद तक पुत्री, को उसी राजनीति में धकेल रही हैं। राहुल गांधी ने पार्टी में ‘हाईकमान संस्कृति’ का विरोध तो किया है पर वे खुद इस संस्कृति के कारण ही तो सांसद, महासचिव, और अब उपाध्यक्ष और ‘हेयर अपैरेंट’ अर्थात् स्पष्ट उत्तराधिकारी बन गए हैं। आखिर उनकी इसके अतिरिक्त योग्यता क्या है कि वे वंशज हैं? राहुल गांधी इस क्षेत्र में काफी अनिच्छुक नजर आते हैं। ‘टू बी ऑर नाट टू बी’ वाला सवाल है कांग्रेस के युवराज के आगे। उन्होंने बिहार, उत्तरप्रदेश, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, गुजरात सब जगह चुनाव प्रचार किया लेकिन हिमाचल प्रदेश के सिवाए कहीं सफलता नहीं मिली। वहां भी श्रेय वीरभद्र सिंह को जाता है राहुल गांधी को नहीं। कांग्रेसी तो राहुल को श्रेय देने के लिए तड़प रहे हैं पर कोई कामयाबी मिले तो वे गदगद हों! यही राहुल गांधी की समस्या है। उनकी पार्टी तो रशीद अली जैसे लोगों से भरी हुई है जो इस आशा में हैं कि वे ही आगे आकर उनका बेड़ापार करेंगे। आखिर वर्षों का जीहुजूरियापन जाता नहीं। और कोई है भी नहीं। किसी और को आगे बढ़ने भी नहीं दिया गया। पर राहुल अब इसी विरासत का बोझ महसूस कर रहे हैं। इसीलिए डांवाडोल हैं और फैसला नहीं कर पा रहे हैं। कभी तो वे राजनीति के दंगल में जोर-शोर से कूद पड़ते हैं पर कभी इससे किनारा करते नजर आते हैं। बाहें चढ़ा कर समाजवादी पार्टी का घोषणा पत्र भी फाड़ दिया पर संसद से सदैव गायब रहते हैं। जिन्हें पार्टी अपनी तरफ से अगला प्रधानमंत्री पेश करना चाहती है वे वित्तमंत्री के बजट भाषण के बीच संसद से निकल गए।
हर ज्वलंत मुद्दे पर राहुल गांधी अरुचि दिखाते हैं। कभी किसी बहस में हिस्सा नहीं लिया। मीडिया के सवालों का सामना नहीं किया। पार्टी को कोई दिशा नहीं दी। राहुल का कहना है कि वे शादी के लिए तैयार नहीं पर प्रभाव यह मिलता है कि पार्टी चीखते चिल्लाते दुल्हे को एक और मंडप की तरफ खींचना चाहती है। उनका जबरदस्ती सक्रिय राजनीति से विवाह करना चाहती है।
राहुल की हिचकिचाहट से केवल वे ही कंफ्यूज नहीं, उनकी पार्टी तथा देश सब भ्रम में हैं कि वे आखिर चाहते क्या हैं? कभी वह कहते हैं कि बड़ी जिम्मेवारी के लिए तैयार हूं फिर बताते हैं कि मां ने रोते हुए बताया था कि यह ‘जहर’ है। बार-बार अपने परिवार की कुर्बानियों का जिक्र करते हैं। विजय लक्ष्मी पंडित ने बताया था कि किसी ने उनसे पूछा कि ‘क्या वे मानती हैं कि नेहरू परिवार ने सबसे अधिक कुर्बानी दी थी?’ विजय लक्ष्मी का जवाब था, ‘अगर उन्होंने ऐसा किया है तो उन्हें इसका पर्याप्त मुआवजा भी मिल गया है।’ इंदिरा गांधी को यह बात पसंद नहीं आई। उन्होंने पूछा ‘फूफी क्या आपने ऐसे कहा था? क्या यह सही है?’ मैंने जवाब दिया कि ‘क्या तुम नहीं समझती कि यह सही है? मेरा भाई इतने वर्ष सत्ता में रहा। फिर तुम उत्तराधिकारी बन गई। मैं भी बड़ी-बड़ी जगह रही हूं…।’
यह पुरानी बात है। उनके बाद तो राजीव गांधी भी प्रधानमंत्री रहे और आजकल सोनिया गांधी की हकूमत है। देश इन कुर्बानियों के बारे बहुत सुन चुका है, अब आगे बढऩे की जरूरत है। एक जगह राहुल ने यह भी स्वीकार किया कि वे इसलिए शादी नहीं करना चाहते ताकि उनके बच्चों को वह देखना न पड़े जो उन्होंने भुगता है। यह भावना स्वाभाविक है। आखिर उन्होंने अपनी दादी तथा पिता की हत्या देखी है। जो ऐसी स्थिति से गुजर चुका है उसके मन में राजनीति के लिए नफरत नहीं तो अरुचि स्वाभाविक अवश्य होगी। लेकिन इसके बावजूद वे राजनीति को छोडऩा भी नहीं चाहते क्योंकि राजनीति वह प्रिवलेज देती है जो कोई और व्यवसाय नहीं देता। ऐसे विशेषाधिकार और कहां मिलते है? सरकारी कोठी, एसपीजी सुरक्षा और चारों तरफ से सलाम। अब वे भी इसके बिना नहीं रह सकते। छुटती नहीं हैं मुंह से यह काफिर लगी हुई, वाली बात है। राहुल की स्थिति तो और भी अधिक सुविधाजनक है कि जिम्मेवारी के बिना उनके पास सत्ता है। उन्हें पसीना बहाने की जरूरत नहीं, ‘नाईट बैटसमैन’ जैसे कटाक्ष सहने की जरूरत भी नहीं। पर समस्या यह भी है कि इस वक्त यूपीए तथा कांग्रेस का ग्राफ गिरा हुआ है। रोजाना फट रहे घोटाले जीत को और दूर करते जा रहे हैं। मुकाबला भी दृढ़ इरादे वाले नरेंद्र मोदी से लगता है जिनके कदमों में कोई कमजोरी नहीं। इसलिए धर्मसंकट है। जहां यह कहना है कि प्रधानमंत्री का पद उनकी प्राथमिकता नहीं वहां उनका कहना है कि वे संगठन को मजबूत करना चाहते हैं। वे कांग्रेस पार्टी के सत्ता का विकेंद्रीयकरण भी करना चाहते हैं, लेकिन जैसी जेबी पार्टी वह बन चुकी है यह संभव भी है? रशीद अली जो पार्टी प्रवक्ता भी हैं, का कहना था, राहुल गांधी चाहे प्रधानमंत्री का पद न भी चाहें और उसका त्याग करना चाहते हैं पर कार्यकर्ता तथा पार्टी चाहते हैं कि वे प्रधानमंत्री बनें। यह राहुल गांधी की असली समस्या है। जिस परिवार में उनका जन्म हुआ है और जिस तरह इस परिवार ने पार्टी को अपना प्रतिबिंब बना लिया है उसका चाहते या न चाहते हुए भी उन्हें नेतृत्व देना पड़ेगा। वे कहते हैं कि वे राजनीति का चेहरा बदलना चाहते हैं। यह कैसे होगा? वह तो अपनी कांग्रेस पार्टी के चमचों का चेहरा नहीं बदल सके! राहुल फंस गए हैं। उन पर कहावत के अनुसार महानता जबरदस्ती थौंपी जा रही है, लेकिन इसके लिए केवल कांग्रेसजन ही जिम्मेवार नहीं। कांग्रेस में कुछ नहीं होता अगर मैडम का इशारा नहीं हो!