
इकबाल खत्म हो रहा है
श्रीलंका में मानवाधिकारों के उल्लंघन तथा तमिलों पर हुए अत्याचार को लेकर द्रमुक ने केन्द्रीय सरकार से समर्थन वापिस ले लिया है। इधर उधर से समर्थन इकट्ठा कर सरकार तो चला ली जाएगी लेकिन इस सरकार का इकबाल तो खत्म हो गया है। ठीक है इस वक्त कोई भी चुनाव नहीं चाहता। द्रमुक ने भी कहा है कि वे सरकार गिराना नहीं चाहते। भाजपा का कहना है कि वे अविश्वास प्रस्ताव नहीं लाएंगे। लेकिन सरकार तो अस्थिर हो गई। बजट पारित करवा लिया जाएगा पर बाकी योजनाएं, प्रस्ताव या कानून पारित करवाना मुश्किल होगा। सरकार बिल्कुल सपा तथा बसपा पर निर्भर हो गई है। ये दोनों पार्टियां अपनी-अपनी कीमत वसूल करेंगी। मुलायम सिंह यादव जैसे अविश्वसनीय तत्व पर कौन भरोसा रख सकता है? आजकल तो वे राजग/सुषमा स्वराज/लाल कृष्ण आडवाणी के गुणगान में लगे हुए हैं। द्रमुक की मांग अनुचित है। श्रीलंका में युद्ध खत्म हो चुका है। ठीक है वहां तमिलों पर अत्याचार हुआ है। उनके मामले में हमारा दखल सीमित बनता है। इस अत्याचार का शिखर 2009 था। उस वक्त चेन्नई में खुद करुणानिधि की सरकार थी और दिल्ली में यूपीए की थी। तब समर्थन वापिस क्यों नहीं किया गया? हमने म्यांमार में मानवाधिकारों के उल्लंघन की अनदेखी की है और व्यापार तथा सम्बन्ध बढ़ाए हैं। हम पड़ोसी पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के खिलाफ हो रहे अत्याचार पर खामोश रहते हैं। श्रीलंका के मामले में हम इतने मुखर क्यों हों? जिस पार्टी के लोकसभा में केवल 18 सांसद हैं, वह देश की विदेश नीति तय करने का प्रयास कर रही है। क्या विदेश नीति प्रदेश की सरकारें तय करेंगी? इससे पहले ममता बैनर्जी तीस्ता नदी के पानी के बंटवारे को लेकर बांग्लादेश के साथ समझौता रोक चुकी हैं। श्रीलंका हमारा पड़ोसी देश है। हम उसके साथ अच्छे सम्बन्ध चाहते हैं। यह सम्बन्ध तमिलनाडु की राजनीति के गिरवी नहीं हो सकते।
असली बात है कि द्रमुक 2014 या उससे पहले की तैयारी कर रही है। वे समझ गए हैं कि मूड कांग्रेस विरोधी है। ग्राफ गिर रहा है। वह मौके की तलाश में थे जो जिनेवा के प्रस्ताव के समय उन्हें मिल गया। यूपीए ने भी इसका जवाब स्टेलिन के ठिकानों पर सीबीआई के छापे मार कर दे दिया। कौन मानेगा कि केंद्रीय सरकार को इसकी जानकारी नहीं थी? सीबीआई के पूर्व निदेशक बेवजह राज्यपाल नहीं बनाए गए। पर द्रमुक ने सरकार के लिए तो परेशानी खड़ी कर दी है। लोकप्रियता पहले खत्म हो चुकी है अब नैतिक वैधता पर सवालिया निशान लग रहा है। सरकार तत्काल गिरेगी नहीं लेकिन वह एक यात्री बन जाएगी जो कहीं ठहर नहीं सकेगी। बीच दुर्घटना की संभावना भी रद्द नहीं की जा सकती। आखिर मुलायम सिंह यादव जैसों की राजनीति किस दिन के लिए है! लेकिन फिर भी मैं तत्काल मध्यावधि चुनाव नहीं देखता। भाजपा ने अभी अपना नेतृत्व का मसला तय करना है। जनता दल (यू) के साथ रिश्ते अनिश्चित हैं। मुलायम सिंह यादव सितम्बर में चुनाव की भविष्यवाणी कर रहे हैं। मुझे भी उसी समय चुनाव की आशंका लगती है। सरकार अपना बजट पारित करवाना चाहेगी फिर कर्नाटक के चुनाव हैं जहां भाजपा को धक्का लगेगा और कांग्रेस को बेहतर प्रदर्शन की आशा है। उसके बाद चुनाव की संभावना बनती है। पर पांच साल पूरा करना इस सरकार के हित में नहीं क्योंकि वर्षांत में विधानसभाओं के चुनाव हैं। कांग्रेस नहीं चाहेगी कि इन चुनावों में पिट जाने के बाद वह लोकसभा के चुनाव में जनता का सामना करे।
लेकिन घबराहट यह भी है कि अगला चुनाव भी ऐसी ही खिचड़ी पेश करेगा। बचाव केवल एक हो सकता है। नाम है नरेंद्र मोदी। धर्मनिरपेक्षता की उनकी ‘इंडिया फर्स्ट’ की परिभाषा से आप सहमत हों या न हों, लेकिन उनका संदेश तो साफ है कि वे ऐसा विकास चाहते हैं जो सबके लिए बराबर हो। मुसलमानों के लिए आरक्षण का ढिंढोरा पीट कर कांग्रेस खुद को सैक्युलर साबित कर रहे हैं लेकिन समझते नहीं कि इससे समाज का कितना नुकसान होगा। जाति पर आधारित आरक्षण और धर्म पर आधारित आरक्षण में बहुत अंतर है। जाति आप बदल नहीं सकते, धर्म बदल सकते हैं। अगर मुसलमानों को आरक्षण मिल जाता है तो कल को धर्म बदलने पर मुसलमान बने हिन्दू को भी आरक्षण मिल जाएगा। अर्थात् आप धर्मांतरण का रास्ता बना रहे हो। मोदी का जोर विकास पर है। विकास यह नहीं देखता कि यह हिन्दू का हो रहा है या मुसलमान का। सच्चर रिपोर्ट ने भी बताया था कि जिन प्रदेशों में मुसलमानों की सबसे बुरी हालत है उनमें पश्चिम बंगाल भी शामिल है जहां उस समय वामदल की सरकार थी। देवबंद की राजनीतिक शाखा जमाते उलमा-ए-हिन्द के महासचिव मौलाना महमूद मदानी ने अपदस्थ किए गए मौलाना वस्तनावी की बात का अनुमोदन किया है कि मुसलमानों का नरेंद्र मोदी की तरफ रुख बदल रहा है और एक बड़े वर्ग ने उनके लिए वोट डाले हैं। लेकिन तथाकथित सैक्यूलरिस्ट तथा अंग्रेजी मीडिया का एक वर्ग दीवार पर लिखा पढ़ने को तैयार नहीं और न ही तीसरा मोर्चा कुछ विकल्प है। वह विनाशक साबित होगा।
देश बदल रहा है। शिक्षा का विस्तार हो रहा है। लोगों की आकांक्षाएं बढ़ रही हैं। ऐसा नेता चाहिए जो इन आकांक्षाओं को दिशा दे सके। इसके लिए यह भी जरूरी है कि वह नेता लोगों के साथ संवाद रखे। यूपीए की यह कमजोरी रही है कि तीनों डा. मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी तथा राहुल गांधी लोगों से संवाद रखने में विश्वास नहीं रखते। प्रधानमंत्री भी तब ही मुखर होते हैं जब कोई व्यक्तिगत कटाक्ष उन्हें चुभता है। इन नौ वर्षों में उन्होंने सरकार जरूर दी है पर नेतृत्व नहीं दिया। आज लोग नेतृत्व के लिए तड़प रहे हैं। इस खाली जगह को क्या नरेन्द्र मोदी भर सकेंगे? लाल कृष्ण आडवाणी की इस मामले में कुछ शंकाएं हैं। उन्होंने सुषमा स्वराज के भाषण की तारीफ करते हुए उनकी तुलना अटलजी से की है। यह बहुत बड़ी स्तुति है। मैं खुद सुषमा जी का प्रशंसक हूं। वे बढ़िया वक्ता हैं। हिन्दी में जब वे बोलती हैं तो जादू बिखेरती हैं। बहुत अनुभवी भी हैं। विपक्ष के नेता की भूमिका बहुत बढ़िया तरीके से निभा रही हैं पर उन्हें नेता बनाने के लिए निचले स्तर से आवाज नहीं उठ रही। कोई लहर नजर नहीं आती। यह लहर आखिर में फैसला करेगी कि भाजपा की तरफ से नेता कौन होता है। जहां तक आडवाणीजी का सवाल है उन्हें इस वक्त कृष्ण की भूमिका निभानी है और रण जीतने के लिए सेना को प्रेरित करना है। अगर सेहत ने साथ दिया तो अगले राष्ट्रपति के लिए वह स्वाभाविक चुनाव होंगे।
नरेन्द्र मोदी के बेरोक उत्थान को रोकना दिल्ली के नेताओं के लिए अब मुश्किल लगता है। मिडल क्लास पार्टी के कार्यकर्ता, तथा युवा सब उनके साथ जुड़ रहे हैं। इस संदर्भ में मैं अमेरिका द्वारा नरेन्द्र मोदी को वीजा न देने का भी जिक्र करना चाहता हूं। इस इन्कार को मोदी के भारत के प्रधानमंत्री बनने के खिलाफ दिए गए तर्कों में शामिल किया गया है पर क्या भारत का प्रधानमंत्री कौन बने या कौन नहीं बने, यह अमेरिकी वीजा पर निर्भर करेगा? अमेरिका का यह दखल अस्वीकार्य है। दंगों का मामला हमारा आंतरिक मामला है। हमारी अदालतें इसे देख रही हैं। अमेरिका की चिंता की जरूरत नहीं। हिरोशिमा से लेकर नागासाकी, वियतनाम से लेकर गुआंतानामो बे जेल जैसे मामलों में अमेरिका का रिकार्ड क्या है, सब जानते हैं। सद्दाम हुसैन को खत्म करने के बहाने उन्होंने एक देश को तबाह कर दिया। एक और बात, गुजरात के दंगे 2002 में हुए थे, अमेरिका ने वीजा मार्च 2005 में अस्वीकार किया। अमेरिका की अंतरात्मा 36 महीनों के बाद ही क्यों जागी?
इस अनाड़ी और फूहड़ दखल के बाद हमें अमेरिकी सरकार तथा अमेरिकी शिक्षा संस्थाओं की आपत्तियों के बारे चिंता करना बंद कर देना चाहिए और ‘इंडिया फर्स्ट’ और ‘मोदी फर्स्ट’ के बारे में सोचना चाहिए।