कुछ न समझें खुदा करे कोई!
मुलायम सिंह यादव की राजनीति क्या है, सारा देश समझने की असफल कोशिश कर रहा है। हाल ही के दिनों में उन्होंने यूपीए तथा कांग्रेस पर बहुत पुष्पवर्षा की है। कांग्रेस धोखेबाज है, धमकीबाज है, घोटालाबाज है। कहा कि कांग्रेस डरा कर समर्थन हासिल करती है फिर धोखा देती है, सीबीआई को पीछे डाल देती है। लेकिन नहीं, अभी नेताजी समर्थन वापिस नहीं लेंगे क्योंकि इनका फायदा ‘सांप्रदायिक ताकतों’ को होगा। यह अलग बात है कि पिछले कुछ दिनों में जिन्हें वे ‘सांप्रदायिक ताकतें’ कहते हैं, उनकी वे खूब तारीफ भी कर चुके हैं। अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज सब की मुलायम सिंह यादव या उनकी पार्टी के लोग किसी न किसी मामले में तारीफ कर चुके हैं लेकिन भाजपा झांसे में नहीं आई। सही कहा गया कि आप कुछ लोगों को कुछ समय के लिए बेवकूफ बना सकते हैं, सभी को सारे वक्त के लिए बेवकूफ नहीं बना सकते। उनकी राजनीति के बारे तो कहा जा सकता है,
मैं जुबां से तुम्हें सच्चा कहो सौ बार कह दूं,
इसे क्या कहूं कि दिल को नहीं एतबार होता!
कांग्रेस पर उनके नवीनतम हमले पर तो भाजपा को खुश होना चाहिए लेकिन दूध का जला भाजपा नेतृत्व तो उनसे दूरी बनाए रखने में व्यस्त है। उन पर भरोसा इतना कम है कि उनके तीसरे मोर्चे के शगुफे पर वाम दल भी उत्साहित नहीं क्योंकि अतीत में धोखा खा चुके हैं। पहले मुलायम ने अमेरिका-भारत परमाणु समझौते का विरोध किया तो फिर इसी पर सरकार को समर्थन दे दिया। रिटेल में एफडीआई के मामले में सरकार की नीति की कटु आलोचना की पर संसद के अंदर सरकार को बचा लिया। विपक्ष ने जब भी सरकार के खिलाफ घोटालों का मुद्दा उठाया मुलायम सिंह यादव ने आखिर में सरकार का बचाव ही किया। मुलायम सिंह यादव की कलाबाजियों के बारे तो यही कहा जा सकता है कि कुछ न समझें खुदा करे कोई! पहले उनका कहना था कि सितंबर में चुनाव होंगे अब कहना शुरू कर दिया कि नवम्बर में होंगे। लेकिन क्या खुद उनकी समाजवादी पार्टी इसके लिए तैयार है?
2007 से सीबीआई ने उनके खिलाफ आय से अधिक संपति का मामला दर्ज किया हुआ है। क्या यही कारण है कि ‘नेताजी’ विभिन्न मुद्दों पर सरकार को बचाते रहे हैं और अब सरकार को गालियां देने के बावजूद उसे गिराना नहीं चाहते? राष्ट्रपति चुनाव के दौरान ममता बनर्जी के साथ संयुक्त पत्रकार सम्मेलन कर एपीजे अब्दुल कलाम, सोमनाथ चैटर्जी या मनमोहन सिंह के नाम का प्रस्ताव रख अगले ही दिन प्रणब मुखर्जी को समर्थन दे दिया क्योंकि इससे पिछली शाम उनकी सोनिया गांधी के साथ मुलाकात हुई थी। ममता जो खुली राजनीति करती हैं को अगले दिन पता चला कि उन्हें अकेले छोड़ कर मुलायम कांग्रेस के पाले में चले गए हैं। उनकी कलाबाजियों का यह असर जरूर हुआ है कि द्रमुक के निकलने से कमजोर हुई यह सरकार और कमजोर हो गई है। देश भर में यही चर्चा है कि यह कितने दिन और चलेगी? प्रधानमंत्री ने खुद माना है कि मुलायम सिंह यादव समर्थन वापिस ले सकते हैं लेकिन सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी। प्रधानमंत्री का आत्मविश्वास शायद गलत न हो क्योंकि कांग्रेस अपनी सरकार का अस्तित्व बचाना अच्छी तरह जानती है लेकिन सरकार कमजोर तो पड़ी है और बजट अधिवेशन पार करना मुश्किल होगा।
कुछ समय पहले तक मुलायम सिंह अपने पुत्र मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को कोस रहे थे कि वह अच्छी सरकार नहीं दे रहे, वहां कानून और व्यवस्था की हालत खराब है। जब से सपा की सरकार आई है दो दर्जन बड़े छोटे सांप्रदायिक दंगे हो चुके हैं। मुलायम सिंह यादव यह भी नहीं चाहते कि चुनाव इतनी देर से हो कि उनकी सरकार के खिलाफ शासन विरोधी भावना मजबूत हो जाए लेकिन उन्हें अपना घर सही करने के लिए समय भी चाहिए। और वे यह भी नहीं चाहते कि वे समर्थन वापिस ले लें और मनमोहन सिंह सरकार बसपा तथा तृणमूल कांग्रेस के समर्थन से चलती जाएं। तब कांग्रेस अपना बदला लेगी और उत्तर प्रदेश में बसपा को फायदा होगा। यही कारण है कि मुलायम असमंजस में हैं और फैसला नहीं कर पा रहे कि उन्होंने करना क्या है? अगर समर्थन वापिस लेना है तो इसका सही क्षण क्या होगा? उन्होंने केंद्रीय सरकार को कमजोर कर दिया है लेकिन अंतिम कुल्हाड़ा चलाने से बच रहे हैं। लेकिन सब स्वीकार करते हैं कि अखिलेश यादव कमजोर मुख्यमंत्री साबित हो रहे हैं। उनमें सुखबीर बादल या उमर अब्दुल्ला वाला दम नहीं है। उनकी भी एक बड़ी समस्या यह है कि वे अपने घर के मालिक नहीं हैं। पिता की दखल तो है ही इसके सिवाए उनके आधा दर्जन ‘अंकलजी’ उन्हें चलने नहीं देते।
इसी संदर्भ में यह दिलचस्प सवाल है कि चुनावों से पहले मुलायम सिंह यादव ने एनडीए तथा भाजपा के नेताओं की इतनी प्रशंसा क्यों शुरू कर दी है? वैसे तो नहीं भूलना चाहिए कि मुसलमानों के कथित सबसे बड़े इस हितैषी ने एक बार कल्याण सिंह से हाथ मिलाया था लेकिन जब नुकसान हुआ तो तत्काल कल्याण सिंह से हाथ भी खींच लिया। सॉरी भी नहीं बोला! अर्थात् मुलायम सिंह के लिए सब कुछ राजनीति है, कोई सिद्धांत या विचारधारा नहीं। इस वक्त भाजपा की तरफ उनके हाथ बढ़ाने का मकसद यही नजर आता है कि यूपीए के साथ भावी संघर्ष में उन्हें एक बड़ी पार्टी का समर्थन चाहिए। अगर यूपीए को गिराना है तो भी भाजपा का सहयोग चाहिए। कल को अगर चुनाव के बाद भाजपा की सरकार बनती है तब भी सीबीआई से खुद को बचाने के लिए भाजपा का आशीर्वाद चाहिए।
उनकी यह भी समस्या है कि उनके तीसरे मोर्चे की सरकार की वकालत तथा खुद को भावी प्रधानमंत्री पेश करने की कोशिश का कोई खरीददार नहीं है। साफ है कि अगर उनके जैसा अविश्वसनीय तथा मौकापरस्त नेता कभी दिल्ली की गद्दी पर बैठ गया तो विनाश हो जाएगा। वैसे तो इसकी संभावना बहुत कम नजर आती है क्योंकि दूसरी पार्टियां उत्साहित नहीं तथा उत्तरप्रदेश में उनका इतना बढिय़ा प्रदर्शन नहीं होगा कि वे केंद्र में तीसरे मोर्चे में किसी गठबंधन के नेता बन सकें तथा सब जानते हैं कि तीसरे मोर्चा की लम्बी आयु नहीं होती। केन्द्र में स्थिर सरकार तब ही मिलती है अगर इसके केन्द्र में या कांग्रेस हो या भाजपा। अगर उन्होंने प्रधानमंत्री बनना है तो उत्तर प्रदेश से सपा को 50-60 सांसद चाहिए जिसकी कोई संभावना नजर नहीं आती। उनका चाल चलन किसी को आकर्षित नहीं करता। ए बी बर्धन का भी कहना है कि इस वक्त राष्ट्रीय स्तर पर तीसरे मोर्च की संभावना उज्ज्वल नजर नहीं आती। इसका मुख्य कारण नेताजी का व्यक्तित्व है जो अतीत में कई लोगों को धोखा दे चुका है। आखिर कांग्रेस को कोसने के बाद यूपीए की समन्वय समिति की बैठक में फोटो खींचवाने के लिए वे शामिल हो गए थे। इसलिए कोई नहीं कह सकता कि मुलायम सिंह यादव अगले क्षण क्या करेंगे? एक तरफ उनकी नजरें दिल्ली की गद्दी पर हैं तो दूसरी तरफ जिनका समर्थन वहां तक पहुंचने के लिए उन्हें चाहिए। वे तो यह कहते प्रतीत होते हैं,
नहीं शिकवा तेरी बेवफाई का हरगिज
गिला तब हो अगर तूने किसी से बनाई हो!