पूंछ बता रही है कि घोड़ा किधर चले!
नीतीश कुमार का धारावाहिक क्रन्दन जारी है। अब उन्होंने भाजपा को वर्षांत तक का समय दिया है कि वे प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार का फैसला करें। यह सलाह नहीं है, चेतावनी है। उनकी शर्त है कि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार वह हो जो मौका आने पर तिलक भी लगाए और टोपी डालने को भी तैयार हो। बस, सैक्युलर अर्थात्ï धर्मनिरपेक्ष बनने के लिए इतना ही चाहिए? जो टोपी डालने को तैयार है वह सैक्यूलर हो गया? कबीर कह गए हैं कि कपड़ा रंगने से कोई जोगी नहीं बनता! फिर क्रास और कड़ा क्यों नहीं डालना चाहिए? क्या धर्मनिरपेक्षता की सारी कवायद तमाशों पर आधारित है? मिसाल के तौर पर जो नेता इफ्तार पार्टी नहीं देता वह सैक्यूलर नहीं है? बिहार में लालू प्रसाद यादव भी सामाजिक न्याय तथा सैक्यूलरिज्म के नाम पर अपने लोगों को ऐसा सब्ज बाग दिखाते रहे कि रेल गाडियां भर-भर कर बिहारी अपना प्रदेश छोड़ कर दूसरे प्रांतों में म$जदूरी करने को मजबूर हो गए। लोगों को बेवकूफ बना लालू परिवार ने 15 साल शासन किया। नीतीश कुमार ने लालूजी की पार्टी के कुशासन से कुछ मुक्ति जरूर दिलवाई लेकिन फिर भी बिहार प्रति व्यक्ति आय तथा दूसरे मानवीय सूचकांक सबसे नीचे हैं। पर जो बहस भ्रष्टाचार रहित प्रशासन देने पर केंद्रित होनी चाहिए थी उसे बिहार का एक और मुख्यमंत्री पटरी से उतार कर उन बातों की तरफ धकेल रहा है जिनसे लोगों के दैनिक जीवन में बेहतरी नहीं होगी।
सैक्यूलरिज्म आज देश में कोई मुद्दा नहीं है। बिहार में भी नहीं है। सुशासन है। लोग 9 वर्षों के यूपीए के कुशासन से मुक्ति चाहते जिसके बारे नीतीश कुमार ने अपने लम्बे भाषण में एक शब्द नहीं कहा। सैक्यूलरिज़्म के उनके विलाप से तो एक बात झलकती है कि बिहार के मुख्यमंत्री ने मान लिया है कि उनसे बिहार की समस्याओं का समाधन नहीं होगा इसलिए भावनात्मक मुद्दे की तरफ मुड़ रहे हैं। वे तो धर्मनिरपेक्षता के ध्वजारोही हैं! टोपी डालेंगे, तिलक लगाएंगे! देश को एक अच्छी सरकार देना उनके लिए मायने नहीं रखता। लेकिन भाजपा से तत्काल संबंध नहीं तोड़ेंगे। आगे महाराजगंज लोकसभा उपचुनाव हैं जिसमें जीत के लिए भाजपा की जरूरत है। अगर हार गए तो लालू प्रसाद यादव की सभाओं में भीड़ और जुटनी शुरू हो जाएंगी।
नीतीश कुमार ने खुद को प्रधानमंत्री पद की दौड़ से बाहर कर लिया है आखिर उनके पास केवल 20 सांसद हैं पर यही हकीकत उन्हें यह अधिकार कैसे देती है कि वे तय करने की कोशिश करें कि भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन हो, कौन न हो? क्या पूंछ तय करेगी कि घोड़ा किधर जाए, किधर न जाएं? प्रधानमंत्री पद के लिए भाजपा का उम्मीदवार कौन होगा यह पार्टी के कार्यकर्ता तथा नेता तय करेंगे। यह नेता ऐसा होना चाहिए जो मिॅडल क्लास, युवाओं और महिलाओं को बराबर आकर्षित कर सके। विशेष तौर पर ऐसा व्यक्ति होना चाहिए जो हताश हुए इस राष्र्र में एक बार फिर नया जोश तथा उर्जा भर सके। विकास कर तथा करवा सके । जिसने खुद काम कर अच्छा प्रशासन देने की मिसाल कायम की हो। ऐसे नेता के लिए टोपी पहनना कोई शर्त नहीं हो सकती।
बताया जाता है कि नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी से उस वक्त से चिढ़े हुए हैं जब बिहार में मोदी और नीतीश कुमार के हाथ पकड़े हुए पोस्टर लगाए गए। यह तस्वीर मई 2009 में लुधियाना में एनडीए रैली की है जहां मुस्कराते हुए और गर्मजोशी से नीतीश ने मोदी का हाथ पकड़ कर इसे ऊपर किया था। फोटो नकली नहीं है। सवाल है कि अगर नरेंद्र मोदी का हाथ पकडऩा अपराध नहीं तो पोस्टर लगवाना अपराध कैसे हो गया? और यह भी उल्लेखनीय है कि यह चित्र गुजरात में गोधरा कांड तथा बाद में हुए दंगो के सात साल के बाद का है। उस वक्त तक तो बिहार के मुख्यमंत्री की अंतरात्मा नरेंद्र मोदी का हाथ पकड़ने पर अशांत नहीं हुई थी पर आज उनके लिए मोदी खलनायक हो गए। 2002 में नीतीश कुमार रेलमंत्री थे जब गोधरा कांड हुआ और गुजरात में दंगे हुए। तब भी वे कुर्सी से चिपके रहे। पर आज सब कुछ सैक्यूलरिज्म है। देश के आगे और कोई मुद्दा नहीं। महंगाई, भ्रष्टाचार, घोटाले कोई मुद्दा नहीं। यूपीए तथा कांग्रेस के सब घपलों को माफ करते हुए भाजपा को धमकाया जा रहा है जिस पर नरेंद्र मोदी सही कह सकते हैं:
आज मुझ से जो बेगाने रहे महफिल में
कभी आपस में ताल्लुक न रहा हो जैसे!
बहाना सैक्यूलरवाद का है जो आज सबसे मौकापरस्त राजनीतिक शास्त्र बन गया है। कभी समाजवाद को प्रमुखता दी जाती थी पर आज कोई समाजवाद को याद तक नहीं करता। सैक्यूलरवाद को भी उस समय अलमारी से झाड़ फूंक कर निकाल लिया जाता है जब भाजपा पर दबाव बनाना हो। आज नीतीश सैक्यूलरवाद के सबसे बड़े बाजीगर हैं। उनकी हरकतों को एक लेखक ने सही ‘सैक्यूलर वेश्यावृत्ति’ का नाम दिया है। अपनी इस कथित विचारधारा को वे एक तरफ कांग्रेस को बेचना चाहते हैं तो दूसरी तरफ मुसलमानों को प्रभावित करना चाहते हैं लेकिन नीतीश का दुर्भाग्य है कि दोनों ही तरफ उन्हें फायदा होता न$जर नहीं आता। पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को केवल 8 प्रतिशत वोट मिले थे जो भाजपा से आधे हैं। अगर वे भाजपा को छोड़ते हैं तो भाजपा का 16-17 प्रतिशत वह वोट नहीं मिलेगा। सवर्ण वोट हाथ से फिसल जाएगा और उन्हें 16 प्रतिशत मुस्लिम वोट पर निर्भर होना पड़ेगा पर ये वोट तो लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान तथा कांग्रेस के बीच विभाजित हैं। कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के और दुष्परिणाम भी हैं। उन्हें यूपीए के बदनामी में भी हिस्सेदार बनना पड़ेगा। उनके कार्यकर्ता जयप्रकाश नारायण के आंदोलन से निकल कर आए हैं और कांग्रेस विरोधी खुराक पर पले हैं इसलिए उस पार्टी के साथ गठबंधन बहुत मुश्किल होगा जिसका वे लगातार और आदतन विरोध करते रहे हैं। इसीलिए उन्होंने बिहार को विशेष दर्जे का बहाना उठाया है। कांग्रेस ने शायद वायदा भी किया है कि दो महीने में वे शर्तें बदल देंगे जो पिछड़े राज्यों को परिभाषित करती हैं। पर निश्चित नहीं कि कांग्रेस अपना वायदा पूरा करेगी क्योंकि पार्टी का रिकार्ड बुरा है। वे सिर्फ आगे गाजर लटका देते हैं।
नीतीश कुमार ने ऐसा चरम रवैया क्यों अपनाया जिससे उन्हें नुकसान ही होगा? अगर भाजपा उनकी बात नहीं मानती तो उनकी सरकार अस्थिर हो सकती है, जैसा संकेत तंग आ चुकी भाजपा अब दे रही है। इसका जवाब तो यही लगता है कि उन्हें लालू प्रसाद यादव के बुरे सपने आने शुरू हो गए हैं इसलिए उनके मुस्लिम वोट बैंक पर डाका डालने के लिए इतना बखेड़ा खड़ा किया गया। लेकिन इस सारी कवायद से उनकी छवि एक उदार प्रगतिशील नेता से बदल कर ऐसे मौकापरस्त सिद्धांतहीन नेता की बन रही है जो देश को पीछे की तरफ खींचना चाहते हैं और अच्छे विकल्प के रास्ते में आज सबसे बड़ी रुकावट बन गए हैं। उस वक्त जब लोग यूपीए को बदलने के लिए लंगर लंगोट कस रहे हैं नीतीश कुमार कांग्रेस के गुप्त हितैषी बन कर उभरे हैं। उनका निशाना नरेंद्र मोदी पर है और बचाव वे मनमोहन सिंह का कर रहे हैं। कल को अगर एनडीए में झगड़े के कारण सार्थक विकल्प नहीं उभरता तो उंगली सीधी बिहार के मुख्यमंत्री की तरफ उठेगी। देश की न$जरों में तब वे खलनायक होंगे। इसलिए आज उन्हें सावधान करना चाहूंगा,
आईना तोड़ने वाले यह तुझे ध्यान रहे,
अक्स बंट जाएगा तेरा भी कई हिस्सों में!