सवालों की आबरु रखना छोड़ दीजिए, प्रधानमंत्रीजी
रेलमंत्री पवन बंसल का भांजा रेल विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी से एक मिलाईदार पद दिलवाने के लिए 90 लाख रुपये घूस लेते हुये सीबीआई द्वारा पकड़ा गया है। रेल विभाग में अरबों रुपये की खरीददारी होती है। आगे चल कर रेलवे बोर्ड के चेयरमैन का पद भी खाली हो रहा है। महेश कुमार की नजरें उस पद पर भी लगी थी इसीलिये सीधा भांजाजी के रास्ते रिश्वत का रास्ता अपनाया। रेलमंत्री का यह कहना कि उनका इस सौदे से कुछ लेना-देना नहीं, गले नहीं उतरता। आखिर किसी को वह मलाईदार पद देने जो वायदा उनके भांजे ने किया है का अधिकार केवल रेलमंत्री के पास है। यह भी हकीकत है कि 90 लाख रुपये घूस देने वाले अफसर की पदोन्नति की गई। जिसे परिस्थितिवश सबूत कहा जाता है तो सीधे रेलमंत्री की तरफ इशारा करते हैं। जैसे-जैसे पवन बांसल तरक्की करते गए भांजा भी मालामाल होता गया। पवन बंसल के पिछले दो लोकसभा के चुनाव इसी भांजे ने संभाले थे। घनिष्ठ रिश्ता है सारा चण्डीगढ़ यह जानता है। वह तो वहां समानांतर रेल मंत्रालय चला रहा लगता है। महेश कुमार वरिष्ठ रेल अधिकारी है। वह भी इतना मासूम नहीं कि उसने बेवजह भांजा साहिब को करोड़ों रुपये की रिश्वत दे दी।
इस सारे घपले का एक बहुत चिन्ताजनक पहलू है कि अगर करोड़ों रुपये में नौकरियां बिक रही हैं तो बाकी भ्रष्टाचार कितना होगा? जो करोड़ों रुपये देकर नौकरी प्राप्त करेगा वह अफसर कितना पैसा कमाएगा? 17 वर्ष के बाद कांग्रेस को मिलते ही रेल भवन के दरवाजे रिश्वतखोरी तथा सौदेबाजी के लिये खोल दिये गये। यह घोटाला 2 जी या राष्ट्रमंडल खेलों या कोयला ब्लाक आवंटन से बहुत छोटा है लेकिन यह उतना ही गम्भीर है क्योंकि इससे पता चलता है कि किस तरह दीमक हमारे प्रशासन की बुनियाद को खा रही है। कितने दु:ख की बात है कि लोगों के लिये रेल किराया बढ़ाया जा रहा है पर प्रभावशाली लोग जेबें भर रहें हैं।
अपनी सरकार को कायम रखने के लिये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने लगाम खुली छोड़ दी है। केवल कुर्सी में बना रहना ही लक्ष्य रह गया है। अब भी सरकार का कहना है कि रेलमंत्री इस्तीफा नहीं देंगे। जांच से पहले किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता पर रेल मंत्रालय में नियुक्तियों की जांच का बनेगा क्या जब रेलमंत्री अपने भांजा को मार्फत खुद संलिप्त नजर आते हैं? यह जांच कैसे निष्पक्ष होगी? यहां तो लोकतंत्र का ही लतीफा बनाया जा रहा है। राजनीतिक नैतिकता को बिल्कुल कूड़ेदान में फैंक दिया गया। रिश्वत दी गई और पद प्राप्त किया गया। संदेश क्या है कि रिश्तेदार कुछ भी कर लें, मंत्रीमहोदय पर आंच नहीं आएगी? साबित हो गया कि इस सरकार में उच्च पद भी बिकाऊ हैं। मामा-भांजा का यह मामला कांग्रेस बनाम भाजपा का ही नहीं है। असली मामला तो लोकराय का है। कांग्रेस दबंग बन अपने मंत्रियों को न हटाने का फैसला कर सकती है। आखिर वह भाजपा पर ‘मेहरबानी’ नहीं करना चाहते पर लोकतंत्र में लोकलाज भी तो कुछ चीज होती है। आप कुछ भी कर लो आप जनता के प्रति जवाबदेह नहीं हो? सोनिया गांधी तथा मनमोहन सिंह को भी देखना चाहिये कि उनके शासन कार्य में किस तरह एक-एक कर संस्थाओं को तहस-नहस किया जा रहा है। जब वह इस साल या अगले साल सत्ता छोड़ कर जाएंगे तो वह कैसा भारत छोड़ कर जाएंगे? जहां सब कुछ बिकाऊ है? 1956 में एक और रेल मंत्री लाल बहादुर शास्त्री एक रेल दुर्घटना के बाद नैतिक जिम्मेवारी स्वीकार करते हुये इस्तीफा दे गये थे। लाल बहादुर शास्त्री से पवन बंसल! हमारा पतन पूर्ण है।
दूसरी तरफ कोयला ब्लॉक आबंटन के मामले में जिस तरह से यह सरकार नंगी हुई है उसके बाद इसका इकबाल बिल्कुल खत्म हो गया है। अपने हल्फनामे में सीबीआई ने माना है कि सुप्रीम कोर्ट को दी गई रिपोर्ट में कानून मंत्री, प्रधानमंत्री के कार्यालय तथा कोयला मंत्रालय ने फेरबदल किया था। वर्तमान कोयला आबंटन घोटाला तो शिखर तक जाता है क्योंकि इस दौरान काफी समय खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कोयला मंत्री थे। 2जी मामले की जिम्मेवारी ए राजा पर डाल कर यह सरकार निकलने की कोशिश कर रही है पर यहां तो कोई बलि का बकरा उपलब्ध नहीं है जिसकी कुर्बानी दे कर प्रधानमंत्री तथा सरकार को बचाया जाए। सरकार को बचाने की कोशिश अवश्य की गई लेकिन यह इतने अनाड़ी ढंग से की गई कि सरकार और फंस गई है। देश की सर्वोच्च अदालत का कहना है कि हमारा भरोसा तोड़ा गया। कोई और देश होता तो इस्तीफों की झड़ी लग जाती लेकिन एक बार फिर यह सरकार शर्मनाक ढंग से मामला लटकाने का प्रयास कर रही है। उस बैठक में प्रधानमंत्री के कार्यालय के अधिकारी की मौजूदगी मामले को और संदिग्ध बनाती है। यह अधिकारी तथा कोयला मंत्रालय का अधिकारी किस के आदेश पर इस बैठक में शामिल हुए थे, और क्यों हुए थे? देश का सबसे बड़ा कानून अधिकारी ही देश की सबसे बड़ी अदालत के सामने झूठ बोलता पाया गया। यह तो मर्यादाहीन आचरण की चरम है।
अभी तक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ईमानदारी पर किसी ने उंगली नहीं उठाई पर कोयले की आंच तो उनके कार्यालय तक पहुंच रही है। वह किसी और पर इसका दोष भी नहीं मढ़ सकते। कोयला ब्लाक आबंटन अधिकतर मामलों में गलत निकला है। कई जगह तो ऐसी कंपनियों को आबंटन किया गया जिनके दावे झूठे थे। कईयों का अस्तित्व नहीं है। जांच के लिए सीबीआई ने कोयला मंत्रालय से जो जानकारी मांगी थी वह उसे नहीं दी गई। किसे डर है कि सच्चाई बाहर न निकल आए? कानून मंत्री भी क्यों इतने सक्रिय रहे? आखिर आबंटन उन्होंने तो नहीं किए थे। किसे बचाना था? सरकार ढीठ या दबंग बन जाए तो वह कुछ दिन निकाल लेगी लेकिन इस सरकार की नैतिकता का तो खंडहर बन गया है।
2जी मामले तथा कोयला ब्लाक आबंटन के मामले में प्रधानमंत्री की भूमिका पर पर्दा डालने के प्रयास से सारी न्यायिक प्रक्रिया तहस-नहस हो रही है। संस्थाएं तबाह की जा रही हैं। ए राजा कह रहा है कि उसने जो कुछ किया प्रधानमंत्री तथा वित्तमंत्री की जानकारी से किया था लेकिन जेपीसी ने ए राजा को अपनी बात कहने के लिए नहीं बुलाया। हत्या के अपराधी से भी उसका पक्ष सुना जाता है पर यहां लाखों करोड़ रुपए के घोटाले के लिए जिम्मेवार ठहराए इस व्यक्ति का पक्ष सुनने का प्रयास ही नहीं किया गया। इसलिए कि वह उंगली प्रधानमंत्री की तरफ उठा रहा है? प्रधानमंत्री को बताना होगा कि उन्होंने राजा को गलत रास्ता अपनाने से रोका क्यों नहीं? न केवल रोका नहीं बल्कि 2009 में उसे फिर संचार मंत्री बना दिया। अफसोस है कि प्रधानमंत्री खामोश है।
ये लोग गलतफहमी में है अगर वे समझते हैं कि सारा मामला केवल सरकार और विपक्ष के बीच का है। असली मामला तो भारत की 120 करोड़ की जनता को बताने का है कि जो हुआ वह क्यों हुआ, और प्रधानमंत्री गलत को रोकने की जगह हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे रहे?
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक बार कह चुके हैं कि
हजारों जवाबों से अच्छी है मेरी खामोशी
न जाने कितने सवालों की आबरु रख ली!
पर प्रधानमंत्री की यह विख्यात ‘खामोशी’ अब क्या छिपा रही है? देश को जवाब मिलने चाहिए। प्रधानमंत्रीजी मेहरबानी कर जनता के जहन में जो हजारों सवाल उठ रहे हैं उनकी आबरु रखना छोड़ दीजिए! आपकी यह खामोशी बहुत सवाल खड़े कर रही है।