
बादशाहो, ऐन्ना दम हैगा?
तालिबान, जिसने कहा था कि उनका मकसद पाकिस्तान में लोकतंत्र की हत्या करना है, की धमकियों की परवाह किए बिना पाकिस्तान की जनता ने चुनाव में भारी मतदान किया और तीसरी बार नवाज शरीफ को सत्ता संभाल दी है। सेना तथा कट्टरवादियों के घातक मिश्रण ने उस देश को तबाह कर रख दिया है। आज पाकिस्तान के अर्थव्यवस्था, सामाजिक जीवन, संस्कृति, राजनीति, सब पर कट्टरवाद का काला साया है। सरकारी प्रचार के द्वारा भारत के साथ दुश्मनी कायम रखी गई। पर पाकिस्तान की जनसंख्या का लगभग 50 प्रतिशत 30 वर्ष से कम आयु का है। इस पीढ़ी की अपनी जरूरतें हैं जिसमें प्रमुख रोजगार है, और आजादी है। लाहौर के प्रसिद्ध एफ सी कालेज के हिस्ट्री विभाग के अध्यक्ष यकूब खान जिनका मानना है कि पाकिस्तान की नई पीढ़ी की कश्मीर के मुद्दे में कोई दिलचस्पी नहीं, ने एक्सप्रैस ट्रिब्यून में लिखा है कि एक सामान्य युवा पाकिस्तानी भारत के प्रति उग्र रवैया रखने की बजाए वहां नौकरी करना चाहेंगे।
यह तो बहुत दूर की कौड़ी है लेकिन नवाज शरीफ को ऐसा पाकिस्तान अवश्य मिला है जिसका सारा ध्यान अपने अंदर की तरफ है। वे समझ गए हैं कि भारत के साथ दुश्मनी की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। नवाज शरीफ के भारत के प्रति सकरात्मक रवैये को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। उनका रूपया निरंतर गिरता जा रहा है। बिजली की कमी जरूरत से आधी के बराबर है जिससे औद्योगिक उत्पादन बुरी तरह प्रभावित हुआ है। सबसे बड़ी समस्या है कि देश में हताशा का माहौल है कि कुछ भी सही नहीं चल रहा। इसीलिए नवाज शरीफ भारत के साथ रिश्ता सुधारने तथा व्यापार बढ़ाने पर जोर दे रहे हैं। चीन चाहे उनका ‘हर मौसम का साथी है’ पर उन्हें अहसास है कि चीन उनकी अर्थव्यवस्था को ध्वस्त होने से बचा नहीं सकता। इसके लिए उसे भारत के साथ जोड़ना होगा। नवाज शरीफ भी समझते हैं, और पाकिस्तान के लोग भी जानते हैं, कि वह देश आज अधिक विकसित होता, अधिक सुरक्षित और आश्वस्त होता अगर भारत के साथ इतनी अंधी दुश्मनी न की जाती। इसीलिए प्रधानमंत्री बनते ही नवाज शरीफ का कहना था कि वे भारत की यात्रा करना चाहेंगे ‘चाहे नहीं भी बुलाया जाता।’ यह बहुत दिलचस्प टिप्पणी है जिससे पता चलता है कि वे मानते हैं कि पाकिस्तान को बचाने का रास्ता भारत से गुजरता है। जब वे पिछली बार भी प्रधानमंत्री बने थे तब भी वे चाहते थे कि कश्मीर के मुद्दे का समाधान आने वाली पीढिय़ों के लिए छोड़ दिया जाए। ऐसी कोई संभावना नहीं कि इनके विचारों में कोई बदलाव आया हो। पाकिस्तान इस वक्त गंभीर आर्थिक, सामाजिक तथा वैचारिक संकट में फंसा हुआ है। अमेरिकी डालर 100 पाकिस्तानी रुपए का हो गया है। भ्रष्टाचार इतना है कि उनकी अपनी संस्था नैशनल अकाऊंटेबिलिटी ब्योरो का अनुमान है कि वहां रोजाना 7 अरब रुपए का भ्रष्टाचार हो रहा है।
जिस तरह पाकिस्तान की राजनीतिक पार्टियों ने कश्मीर मुद्दे को पीछे डाल दिया है उससे कश्मीर में बैठे हमारे पालतू अलगाववादी चिंतित हैं। ऐसा लगता है कि पाकिस्तान के राजनीतिक नक्शे से कश्मीर का मसला गिर गया है। सबसे बड़ी समस्या पाकिस्तान में बदअमनी है। सितंबर 2011 के बाद से 49,000 पाकिस्तान नागरिक आतंकी हमलों में मारे जा चुके हैं। 2008 के बाद कबाईली क्षेत्र में सेना की कार्रवाई के दौरान ही 25,000 लोग मारे गए हैं। इमरान खान जिन्हें कट्टरवादियों का प्रिय कहा जाता है की तहरीके इंसाफ पार्टी के घोषणापत्र में लिखा गया कि जिन छ: कारणों से देश में बदअमनी तथा आतंक फैल रहा है उनमें पाकिस्तान से काम कर रहे कश्मीरी मिलिटैंट भी हैं। नवाज शरीफ का कहना है कि वे वहीं से शुरू होना चाहेंगे जहां 1999 में रिश्ता टूटा था। संकेत अटलबिहारी वाजपेयी की लाहौर यात्रा तथा कारगिल के युद्ध की तरफ है जिसके लिए वे ‘एक तानाशाह’ को जिम्मेवार ठहराते हैं। वे तो कारगिल की जांच करवाने की बात भी कह रहे हैं जो सेना को पसंद नहीं होगा। नवाज शरीफ का कहना है कि वे मिलिटैंट संगठनों को पाकिस्तान की जमीन से भारत पर हमला नहीं करने देंगे। पर ऐसा वायदा तो परवेज मुशर्रफ ने भी किया था।
1999 की यह घटना ही बताती हैं कि मामला कितना पेचीदा हैं और वहां कितने ऐसे लोग बैठे हैं जो भारत-पाक रिश्तों में खलल डालने को तैयार रहते हैं। पाकिस्तान के संदर्भ में याद रखना चाहिए कि वहां तालिबान, अलकायदा तथा जेहादियों को तब मजबूती मिली जब वहां बेनजीर भुट्टो तथा नवाज शरीफ की लोकतांत्रिक सरकारें थी। यह भी याद रखना चाहिए कि कारगिल तथा मुंबई पर हमला तब हुआ जब वहां नवाज शरीफ तथा आसिफ जरदारी की नागरिक सरकारें थी। नवाज शरीफ का कहना है कि उन्हें कारगिल के बारे कोई जानकारी नहीं थी जबकि यहां यह राय है कि उनकी रजामंदी नहीं थी पर उन्हें कुछ न कुछ मालूम जरूर था। अर्थात् अपने कट्टरवादियों से निबटने का मियां साहिब का रिकार्ड मिश्रित है।
अगर नवाज शरीफ भारत के साथ स्थाई रिश्ते चाहते हैं तो उन्हें अपने प्रिय जेहादियों पर शिकंजा कसना होगा। लश्करे झांगवी जो कई सौ शिया की हत्या के लिए जिम्मेवार है ने चुनाव में उनकी मुस्लिम लीग (नवाज) की मदद की है। नवाज शरीफ की विचारधारा अभी भी अस्पष्ट है जिससे उन पर यह आरोप लगता है कि उग्रवादियों के प्रति नरम है। तालिबान की हिंसक उग्र गतिविधियों की नवाज शरीफ ने कभी भी निंदा नहीं की। इसलिए नवाज शरीफ ने जहां अर्थव्यवस्था को सुधारना है, सेना का शिकंजा ढीला करना है, भारत के साथ रिश्तों की मरम्मत करनी है, वहां बेलगाम कट्टरवादियों पर लगाम भी लगानी है। पाकिस्तान अपने अतीत से छुटकारा चाहता है। वे समझ गए हैं कि कश्मीर तो उन्हें क्या मिलेगा, उनके लिए वर्तमान सीमाओं को कायम रखना ही मुश्किल हो रहा है। मियां साहिब अब दुनिया में सबसे हॉट कुर्सी पर विराजमान होने वाले हैं। उनका अवश्य कहना है कि पाकिस्तान में सेना नहीं प्रधानमंत्री बॉस है लेकिन मामला इतना सहज नहीं जैसे उनकी रक्षा विशेषज्ञ आयशा सद्दीका ने भी कहा है, ‘लोकतांत्रिक सत्ता के स्थानांतरण का मतलब यह नहीं कि सेना सुरक्षा तथा विदेश नीति पर अपने नियंत्रण का समर्पण करने वाली है। अफगानिस्तान, भारत, अमेरिका, चीन के साथ रिश्ते GHQ (सेना मुख्यालय) के हित के लिए बहुत नाजुक है। इन पर कोई समझौता नहीं किया जाएगा।’
आतंकवाद पाकिस्तान की इस व्यवस्था का भारत के खिलाफ सुरक्षा हथियार है। नवाज शरीफ के प्रति आज भारत में वह सद्भावना है जो पहले किसी पाकिस्तानी नेता के लिए नहीं थी लेकिन देशों के रिश्ते जज़्बात पर ही आधारित नहीं होते। कड़वी हकीकत कई बार बढ़िया से बढ़िया इरादे को भी नाकाम बना देती है। इसलिए अपनी लाहौरी पंजाबी में मुझे नवाज शरीफ साहिब से कहना है, याद रखो 19 फरवरी 1999 दी ओ शाम जद लाहौर दे गवर्नर हाऊस विच अटल बिहारी वाजपेयी ने केहा सी ‘इतिहास बदल सकते हैं, भूगोल नहीं। दोस्त बदल सकते हैं पड़ोसी नहीं।’ असी सारे जो उस घटना दे गवाह है थोडी कामयाबी दी दुआ करदे है पर मन विच यह सवाल भी उठदा है कि तुसी इतिहास दी मैली धारा नूं साफ कर सकोंगे? की तुसी भारत-पाक रिश्ते दे टाईगर बनोगे? बादशाहो, ऐन्ना दम हैगा?