आडवाणी : समाधान या समस्या?

आडवाणी : समाधान या समस्या?

हाल ही में देश में जो राजनीतिक सर्वेक्षण हुए हैं वे तीन बातें स्पष्ट करते हैं। एक, कांग्रेस निरंतर गिर रही है। वोट प्रतिशत 10 प्रतिशत या अधिक गिर रहा है। दूसरा, भाजपा को उतना फायदा नहीं हो रहा है जितना कांग्रेस के पतन से होना चाहिए और तीसरा, भाजपा तब ही सरकार बनाने के नजदीक पहुंचेगी अगर नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया जाएगा। प्रधानमंत्री पद के भाजपा के जो दिल्ली वाले दावेदार हैं वे कितने ही अनुभवी तथा प्रभावशाली हों वे लोगों को उत्साहित नहीं करते। भाजपा के लिए यह खुशी और संतोष की बात होनी चाहिए कि निचले स्तर से शुरू हुए नरेन्द्र मोदी इतना ऊंचा पहुंचने की क्षमता रखते हैं लेकिन अफसोस की बात है कि इससे उलट हो रहा है। दिल्ली में भाजपा के उच्च शिखर पर मोदी के खिलाफ साजिशें रची जा रही हैं। हाथ पैर मारे जा रहे हैं कि कहीं वे प्रधानमंत्री न बन जाएं। भाजपा के दिल्ली वाले वरिष्ठ नेता यह आभास दे रहे हैं कि उन्हें आपत्ति नहीं होगी अगर कांग्रेस तीसरी बार सत्ता में लौट आए पर नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहिए। अफसोस की बात है कि इस अभियान का नेतृत्व सबसे वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी कर रहे हैं। जिस आयु में बाप भी बेटे के लिए जगह छोड़ देता है आडवाणी जी यह प्रभाव दे रहे हैं कि वे न केवल महत्वाकांक्षी हैं बल्कि बेचैन भी हैं। नीति ‘मैं नहीं तो कोई नहीं’ प्रतीत होती है। पार्टी ने 2009 का चुनाव अभियान उनके नेतृत्व में लड़ा था और पहले से बुरी हालत हुई। आडवाणी जी इस बात से समझौता करने को तैयार नहीं कि देश उन्हें प्रधानमंत्री नहीं देखना चाहता, देश की आवाज नरेन्द्र मोदी के पक्ष में है। उन्हें आगे आकर मोदी का रास्ता आसान करना चाहिए ताकि देश को बदनाम यूपीए का विकल्प मिल जाए। पर नहीं, लालकृष्ण आडवाणी भाजपा के लिए खुद ही समस्या बन गए हैं।

मैं उनकी शिवराज सिंह चौहान तथा नरेन्द्र मोदी की तुलना का जिक्र कर रहा हूं। चौहान ने अच्छा काम किया है, विशेषतौर पर कृषि क्षेत्र में मध्यप्रदेश ने बहुत तरक्की की है लेकिन चौहान का राष्ट्रीय आकर्षण नहीं है। वे अभी मध्यप्रदेश स्तर के नेता हैं लेकिन मोदी को नीचा दिखाने के लिए आडवाणी उनकी तारीफ के पुल बांध रहे हैं। चौहान को ऊंचा उठाने के लिए मोदी को नीचा आंकने की क्या जरूरत थी? चौहान की तुलना राजस्थान या महाराष्ट्र के कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों से क्यों नहीं की? उन्होंने चौहान को वाजपेयी की ही तरह विनम्र बताया। अर्थात् संकेत था कि मोदी विनम्र नहीं हैं। कुछ ही सप्ताह पहले उन्होंने सुषमा स्वराज को अटल बिहारी वाजपेयी बताया था। लेकिन खेद की बात तो यह है कि खुद आडवाणी कभी अटल बिहारी वाजपेयी नहीं बन सके। अटलजी कभी ऐसे बेचैन नहीं थे। अगर वे अटल बिहारी वाजपेयी बन सकते तो देश का नक्शा ही और होता। वे तो साजिशों में लगे हुए हैं। पहले मोदी के खिलाफ नीतीश कुमार को खड़ा किया लेकिन नीतीश जरूरत से अधिक उछल गए और अपना ही अहित कर बैठे। फिर सुषमा को उभारा। सुषमा स्वराज बहुत प्रतिभाशाली नेता हैं लेकिन राष्ट्रीय लोकप्रियता में मोदी का मुकाबला नहीं कर सकतीं। जब यह बात नहीं बनी तो यह प्रस्ताव रखा कि नितिन गडकरी को आने वाले विधानसभा चुनाव की निगरानी के लिए चुनाव व्यवस्था कमेटी का अध्यक्ष बनाया जाए। हैरानी यह है कि नितिन गडकरी का नाम अब वे नेता उछाल रहे हैं जिन्होंने पहले उन्हें हटने को मजबूर किया था। आज इन्हीं लोगों को गडकरी के ‘मैनेजीरियल स्किल’ उत्कृष्ट लग रहे हैं। क्या भाजपा में यह उठापटक कभी बंद नहीं होगी? कभी किसी को उठाया तो कभी किसी को गिराया ताकि अपने सिवाय कोई भी स्थिर न हो सके? अपना उल्लू सीधा करने के लिए अपने ही दो मुख्यमंत्रियों को लड़ा दिया? इतने स्कैंडलों के बावजूद यूपीए की सरकार नौ साल कैसे काट गई और अपनी अवधि पूरी करती लगती है? इसके कई कारण हैं। बड़ा कारण सोनिया गांधी का नेतृत्व है जिन्होंने पीछे से अपनी सरकार को मजबूती से संभाला है। क्या कभी किसी ने सोनिया गांधी को इस तरह अपनी पार्टी तथा उसके नेताओं को लताड़ते देखा है जैसे आडवाणी खुलेआम करते रहते हैं? आडवाणी तो अपनी पार्टी की खुली आलोचना कर अनुशासनहीनता की सभी सीमाएं लांघ चुके हैं। सोनिया ने जो बात कहनी है वह बंद कमरे में कही जाती है जबकि आडवाणीजी तो लाऊडस्पीकर लेकर पार्टी में अव्यवस्था कायम करते रहतें हैं। बाकी कसर उनका ब्लॉग पूरा कर देता है। येदियुरप्पा का मामला भी संभल जाता अगर वयोवृद्ध नेता खुद उनके खिलाफ बोलना शुरू न करते। हर प्रयास खुद को आगे रखने का है चाहे पार्टी के सबसे लोकप्रिय नेता को नीचा दिखाना हो। कहा जा सकता है:

उन्हें तो अपने गुलदस्ते की रौनक से ही मकसद है

कहां गुलचीं को फुर्सत है कि दरदे-गुलिस्तान समझे!

यूपीए सरकार की लम्बी आयु का दूसरा कारण है कि भाजपा के दिल्ली वाले नेता सरकार को सही चुनौती नहीं दे सके। संसद से बार-बार बहिष्कार कोई नीति नहीं कही जा सकती। लोग बहस चाहते हैं। भाजपा के पास तो बहुत सशक्त वक्ता हैं पर पार्टी ने बार-बार बहिष्कार कर अपना लतीफा बना दिया। इसी प्रकार बार-बार इस्तीफे की मांग की गई। या तो आप उन्हें इस्तीफे के लिए मजबूर कर सको अगर यह स्थिति नहीं है तो फिर मांगने का तुक क्या है?

कई बार तो यह अहसास होता है कि आईपीएल की तरह यहां भी मैच फिक्सड है। जैसे चल रहा है उससे दोनों संतुष्ट हैं। जब आपकी बारी है तो आप चलाओ, जब हमारी बारी आएगी तो हम चलाएंगे। नहीं तो कोई कारण नहीं कि अरबों रुपए के केंद्रीय बजट तथा रेलवे बजट को बिना चर्चा के पास होने दिया गया। आपके पास बजट के बारे कहने को कुछ नहीं? अगर ऐसे विरोधी हैं तो कांग्रेस को दोस्तों की जरूरत नहीं! तृणमूल कांग्रेस तथा द्रमुक के प्रस्थान के बावजूद भाजपा उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकी। भाजपा ने टीवी स्टूडियों में, सडक़ों पर, पत्रकार सम्मेलनों में सरकार को घेर लिया लेकिन एक जगह जहां घेरना चाहिए था, लोकसभा में, वहां भाजपा कमजोर रही। असली समस्या है कि भाजपा के शिखर पर अहम का टकराव है। एक दूसरे को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं। यह यूपीए सरकार की दीघार्यु का बड़ा कारण है। सब प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में लगे हुए है। सरकार को गिराने में नहीं, एक-दूसरे की टांगे खींचने में व्यस्त हैं।

अब खेल खेलने का समय गुजर चुका है क्योंकि चुनाव नजदीक है और लोग भाजपा से नेतृत्व की स्पष्टता की मांग कर रहे हैं। कब तक भाजपा का दिल्ली वाला नेतृत्व लोगों की तथा अपने कार्यकर्ताओं की मांग की उपेक्षा करता रहेगा कि मोदी के नेतृत्व में अगला चुनाव लड़ा जाए और पार्टी की जीत की स्थिति में वे देश के प्रधानमंत्री बनें? मोदी एक ही व्यक्ति हैं जो विकास का वैकल्पिक मॉडल पेश कर रहे हैं। और यह भी साफ है कि मोदी के बिना भाजपा की गति नहीं। जो बाकी नेता हैं वह मिल कर भी कांग्रेस का मुकाबला नहीं कर सकते। मनमोहन सिंह के ढुलमुल नेतृत्व के बाद लोग एक निर्णायक नेतृत्व के लिए तड़प रहे हैं। ऐसा नेता चाहते हैं जो राष्ट्रवाद तथा विकास को जोड़ कर देश को आगे लेकर जाए। 2002 के दंगों का मसला अब केवल सैक्यूलर ड्राईंग रूम में ही रह गया है नहीं तो सर्वेक्षण मोदी के पक्ष में नहीं निकलते। गोवा में अब पार्टी को इस बाबत स्पष्ट निर्णय लेना चाहिए। एक बार नेतृत्व के बारे स्पष्ट और सही निर्णय ले लिया गया तो अभियान गति पकड़ता जाएगा। यहां आडवाणीजी को पहल करनी चाहिए। नेतृत्व के लिए आगे आकर नहीं, नेतृत्व की दौड़ से पीछे हट कर। दीवार पर जो लिखा है उससे समझौता कर। उसके बाद सब संभल जाएगा।

-चन्द्रमोहन

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.

1 Comment

  1. उन्हें तो अपने गुलदस्ते की रौनक से ही मकसद है

    कहां गुलचीं को फुर्सत है कि दरदे-गुलिस्तान समझे!

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