जमाना बेताब है करवट बदलने को!
भाजपा के भीष्म पितामह ने अपना अंतिम बाण चला दिया। उन्होंने इस्तीफ दे दिया। लेकिन वे भी देख रहे होंगे कि यह बाण कहीं लगा नहीं। मीडिया में हलचल के बावजूद पार्टी अब अपनी दिशा बदलने के लिए तैयार नहीं। संसदीय बोर्ड ने भी उन्हें मार्गदर्शन तथा सलाह देने का आग्रह किया है किसी ने यह नहीं कहा कि पितामह! बाणशैय्या से उठिए और 2014 के युद्ध में हमारा नेतृत्व कीजिए! भाजपा ने अपना भविष्य तय कर लिया है, और आडवाणी उसका हिस्सा नहीं हैं। इस जगह तक पार्टी को पहुंचाने में आडवाणीजी की बड़ी भूमिका है। भाजपा के जितने नेता हैं, नरेंद्र मोदी समेत, उन सबको एक प्रकार से उन्होंने उंगली पकड़ कर चलना सिखाया है। 2002 में गोवा में ही उन्होंने मोदी को अटलजी के कोप से भी बचाया था लेकिन अब समय बदल गया है। जरूरतें बदल गईं। खुद आडवाणी ने भी बहुत गलतियां की। कैसे सोच लिया कि वे कराची जाकर जिन्नाह की तारीफ कर लेंगे और देश इसे पचा जाएगा? पार्टी के वे सबसे बड़े नेता हैं लेकिन पार्टी उनके व्यक्तित्व के साथ नत्थी नहीं हो सकती। जिधर चाहा हांक लिया। भाजपा ने पिछले दशक में बढ़ना बंद कर दिया था। अब यह ठहराव टूट रहा है। खुद आडवाणी ने ब्लॉग किया था कि लोग न कांग्रेस को चाहते हैं न भाजपा को। अगर ऐसी स्थिति आपके नेतृत्व के बावजूद है तो पार्टी नया परीक्षण क्यों न करे?
भाजपा जो भटक गई थी अब नए नेतृत्व तथा नई पीढ़ी के द्वारा रास्ते पर लौट रही है। एक नई शुरूआत हो रही है। नरेंद्र मोदी से बेहतर चुनाव नहीं हो सकता था। आडवाणीजी के नवरत्नों को तो खुद चुनाव जीतने के लिए सहारा ढूंढना पड़ता है। ऐसी स्थिति क्यों आई कि पार्टी तथा संघ ने आडवाणी की आपत्तियों की परवाह नहीं की? इसका कारण कि चाहे आडवाणी ने अपने पत्र में दूसरों के निजी एजंडे की शिकायत की है पर हकीकत है कि उनका अपना भी एजंडा है। और यह एजंडा है कि 85 वर्ष की आयु में वे खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। अगर आप न भी बन सके तो उनका कोई मनमोहन सिंह जैसा प्रधानमंत्री बन जाए और वे खुद सोनिया गांधी की स्थिति में आ जाएं। वे जानते हैं कि नरेंद्र मोदी किसी के मनमोहन सिंह नहीं बन सकते इसलिए हताशा में यह इस्तीफा। कभी शिवराज चौहान को उठाया तो कभी नितिन गडकरी को, आखिर में खुद अलग-थलग बैठ गए पर पार्टी ने उनकी परवाह नहीं की और पीढ़ी परिवर्तन कर आगे बढ़ गई।
भाजपा में जो हलचल हो रही है वह सही समय में हो रही है। होनी चाहिए भी। एक जीवंत लोकतांत्रिक पार्टी जो एक परिवार पर आधारित नहीं है, में ऐसी उथल-पुथल सेहत के लिए अच्छी है। अपना इस्तीफा दे कर आडवाणी ने इस प्रक्रिया को तेज कर दिया है। बदलाव का मौसम है, कुछ लोगों को चोट पहुंचेगी पर बाद में सब निर्मल हो जाएगा। अब वह नेतृत्व आगे आ रहा है जिसे व्यापक जनसमर्थन प्राप्त है। मैं जनता दल (यू) की आपत्ति को नजरंदाज नहीं कर रहा। एनडीए में अनिश्चितता बढ़ी है। पर अगर मोदी के नेतृत्व में भाजपा 180 को पार कर जाती है तो सहयोगी खुद ही जुड़ जाएंगे जैसे अटलजी के समय हुआ था। यह नहीं कि नरेंद्र मोदी के आगे चुनौतियां नहीं है। नई दिल्ली गांधीनगर नहीं है। गुजरात से बाहर उन्हें अपना जादू दिखाना है। एनडीए का कुनबा बढ़ाना है। अटलजी ने दो दर्जन पार्टियां इकट्ठी की थी। दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से गुजरता है। भाजपा के वर्तमान नेतृत्व ने देश के सबसे बड़े प्रदेश में पार्टी का बंटाधार कर दिया। पांच विधानसभा के चुनावों में सिद्ध करना है कि वे वहां भी ‘वोट कैच्चर’ हैं, केवल गुजरात में ही नहीं। इस प्रभाव को मिटाना है कि वे दूसरों को साथ लेकर नहीं चल सकते। उनका सौभाग्य है कि कांग्रेस की हालत और भी पस्त है। मनोबल गिरा हुआ है। खाद्य सुरक्षा विधेयक जिससे वे समझते हैं कि वे फिर सत्ता में आ जाएंगे, को इतना लटका दिया गया है कि अगर अध्यादेश जारी किया गया तो भी उसका फायदा नहीं होगा। कांग्रेस तो यह भी तय नहीं कर सकी कि मोदी के मुकाबले में उनका नेता कौन होगा?
देश एक स्पष्ट, निर्णायक, विकासशील नेतृत्व के लिए तड़प रहा है। बेहतर होता है कि आडवाणी पार्टी के बुजुर्ग नेता की भूमिका निभाते और कांग्रेस के विरुद्ध एक ताकतवार विकल्प खड़ा करने में मदद करते लेकिन वे कोप भवन में चले गए। पर जैसे कहा गया है कि समय और ज्वार-भाटा किसी की इंतजार नहीं करते। आपके साथ, आपके बिना, आपके बावजूद! पार्टी ने तो आगे बढ़ना है और देश में पैदा हो रहे शून्य को भरना है। यह राष्ट्रीय दायित्व है। आपने अपने ब्लॉग में महाभारत के एक प्रसंग का जिक्र किया है पर भीष्म पितामह ने तो आजीवन राज गद्दी पर न बैठने की कसम खाई थी!
पुराने मुद्दे खत्म हो चुके हैं। अब हिन्दू-मुसलमान के मुद्दे में आम आदमी दिलचस्पी नहीं रखता। सैक्युलरिज्म के कथित मामले में केवल कुछ वामपंथियों, मीडिया चैनलों या नीतीश कुमार जैसों को ही दिलचस्पी है। अगर बिहार के लोगों को दिलचस्पी होती तो महाराजगंज से नीतीश कुमार का उम्मीदवार 1,37,000 वोट से न हारता। वह लहू लगा कर शहीद बनने की कोशिश कर रहे थे, मार खा गए। लोगों का ध्यान विकास पर है, रोजगार पर है, महंगाई पर है और सबसे अधिक अच्छे प्रशासन पर है। लोग ऐसा प्रशासन नहीं चाहते जहां छत्तीसगढ़ में नक्सलवादी कांग्रेस के सारे नेतृत्व को खत्म कर जाएं और देश के गृहमंत्री अमेरिका में अपना प्रवास खत्म करने को तैयार न हों। बाद में जब वह वापिस देश पधारे तो हमें बताया गया कि शिंदे साहिब के दांत में तकलीफ थी और डॉक्टर की अपायंटमैंट नहीं मिल रही थी! क्या देश में दांत के डॉक्टर नहीं हैं? लेकिन इसमें दोष शिंदे का है या उन लोगों का है जिन्होंने ऐसे व्यक्ति को गृहमंत्री नियुक्त किया?
लोग ऐसी भ्रष्ट तथा लापरवाह व्यवस्था को बदलना चाहते हैं। वे नया नेतृत्व तथा नए चेहरे चाहते हैं। यह केवल कांग्रेस के लिए ही संदेश नहीं है भाजपा में जमे हुए नेतृत्व के लिए भी है कि लोग कह रहे हैं,
नया चश्मा है पत्थर के शिगाफों पर उबलने को,
जमाना किस कदर बेताब है करवट बदलने को!
लोगों तथा पार्टी की इस भावना को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेतृत्व ने भी सम्मान दिया और गोवा में सही निर्णय करवाया। अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने भी बहुत कठिन और चुनौतीपूर्ण परिस्थिति में पार्टी को सही दिशा दिलवाई। याद आता है नवम्बर 1969, इंदिरा गांधी को सिंडिकेट ने पार्टी से निकाल दिया था। कामराज, मोरारजी देसाई, निजलिंगप्पा, नीलम संजीवा रेड्डी, एस के पाटिल तथा अतुल्य घोष जैसे धुरंधर समझते थे कि यह लडक़ी हमारा क्या मुकाबला करेगी? लेकिन जनता तथा कार्यकर्ता इंदिरा गांधी के साथ थे। 1971 के चुनाव में उन्हें 44 प्रतिशत वोट तथा 352 सीटें मिली थी। सिंडिकेट को केवल 10 प्रतिशत।
नरेंद्र मोदी की यह हालत तो नहीं बनी। पार्टी का विभाजन नहीं हुआ लेकिन भाजपा पर भी एक सिंडिकेट काबिज है जिसने अंतिम क्षण तक मोदी के कदमों को रोकने का प्रयास किया। वे सफल नहीं हुए इसलिए कि जनता की आवाज मोदी के पक्ष में है। आगे भी इसी कारण उनका रास्ता रोकना असंभव होगा। इंदिरा गांधी तथा नरेंद्र मोदी में बहुत भिन्नता है। एक को प्रसिद्धि पैदायशी मिली थी, एक ने प्रसिद्धि अपने दम पर हासिल की है पर दोनों में एक समानता अवश्य है। दोनों चुनौती का जवाब देना अच्छी तरह से जानते हैं। इंदिराजी भी आगे आकर मुकाबला करती थी और नरेंद्र मोदी भी करते है। जो हश्र कांग्रेस के सिंडिकेट का हुआ, वही भाजपा के सिंडिकेट का होगा।
संतोष है कि आखिर भाजपा अपनी दुविधा, भ्रम, कलह और आलस से बाहर निकल रही है। नरेंद्र मोदी का व्यक्तित्व ही ऐसा है कि वे आगे आकर नेतृत्व देते हैं। कई सालों से देश में चिंता यही थी कि कांग्रेस का विकल्प तैयार नहीं हो रहा। गोवा में भाजपा ने नरेन्द्र मोदी को आगे कर यह कमी पूरी कर दी।