दिल बहलाने को ख्याल अच्छा है!
नीतीश कुमार एनडीए छोड़ गए हैं। अपने ‘नरेंद्रभाई’ से अब उन्हें अलर्जी है। जब 2002 में गुजरात के दंगे हुए थे तो नीतीश कुमार एनडीए के रेलमंत्री थे। उस वक्त उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया। बाद में भाजपा के साथ गठबंधन कर वे मुख्यमंत्री बन गए। कोई तकलीफ नहीं हुई। 2003 में उन्हें मोदी से गुजरात से बाहर निकलने का आग्रह किया पर अब अचानक इन्हीं मोदी को वे बर्दाश्त नहीं कर रहे। ऐसी पाखंडी हमारी राजनीति है। पूर्व के प्रांतो की शिकायत है कि वे पिछड़े हैं। पर अगर ‘बीमारू’ मध्यप्रदेश 2012-13 में देश में सर्वश्रेष्ठ विकास की दर 10.02 प्राप्त सकता है तो पूर्व के प्रदेश क्यों नहीं कर सकते? इसका कारण है कि इन्होंने लोगों को फालतू मुद्दों पर उलझाए रखा। पश्चिम बंगाल में वामदलों ने अपनी विचारधारा के लिए उद्योग को ही वहां से भगा दिया। ममता के आंदोलन ने टाटा के नानो प्रॉजैक्ट को गुजरात भेज दिया। अब वे याचनाएं कर रहे हैं लेकिन कोई वापिस आने को तैयार नहीं। बिहार में पहले लालू प्रसाद यादव ने जातीय राजनीति की और अब नीतीश कुमार सांप्रदायिक राजनीति कर रहे हैं। 16 प्रतिशत मुस्लिम वोट की खातिर अच्छी भली सरकार को अस्थिर कर रहे हैं। क्या लोगों को उलटे सीधे मुद्दों में उलझाने के अतिरिक्त इनकी और कोई नीति नहीं, कोई ‘विजन’ नहीं? इस बीच बिहार से गाड़ियाँ भर-भर कर लोग रोजगार के लिए देश के दूसरे हिस्सों में पहुंच रहे हैं। इनकी चिंता नहीं है, नरेंद्र मोदी के उत्कर्ष की है। नीतीश तय करना चाहते थे कि 2014 में भाजपा का चेहरा कौन होगा। पूंछ तय करेगी कि घोड़े की शक्ल क्या हो?
अपनी हरकत को सम्मानजनक बनाने के लिए वे ममता बैनर्जी के साथ मिल कर फैडरल फ्रंट अर्थात् संघीय मोर्चे या तीसरे मोर्चे की वकालत कर रहे हैं। लेकिन सवाल तो यह है कि यह तीसरा चौथा मोर्चा वामदलों की शमूलियत के बिना बनेगा कैसे? प्रकाश करात तो कह ही चुके हैं कि तीसरे मोर्चे की कोई जरूरत नहीं। वह 2009 में मायावती के नेतृत्व में ऐसे मोर्चे का प्रयास कर चुके हैं पर निराशा मिली। इसलिए अब इस पर समय बर्बाद करने की जगह वामदल अपनी जड़ें मजबूत करने में लगे हैं। नवीन पटनायक इस फ्रंट के इच्छुक हो सकते हैं लेकिन उनका भी कहना है कि तीसरा मोर्चा एक अच्छा विकल्प होगा पर अभी बहुत जल्दी है। देवेगौड़ा अधिक व्यावहारिक हैं जिनका कहना है कि हम समर्थन करेंगे पर ‘तीसरे मोर्चे जैसी कोई बात नहीं है।’ अगर ऐसे किसी मोर्चे ने सफल होना है तो जरूरी है कि इसमें वामदल शामिल हों या बाहर से समर्थन दें लेकिन क्या ममता और वामदल एक घाट पर पानी पी सकते हैं या मुलायम सिंह यादव तथा मायावती एक घाट पर पानी पी सकते हैं? 1996 में इसका प्रयास किया गया। देवेगौड़ा को प्रधानमंत्री बनाया गया लेकिन सीताराम केसरी को उनके चेहरे से नफरत हो गई। वी.पी. सिंह तथा ज्योति बसु के इंकार करने के बाद फिर इंद्र कुमार गुजराल को प्रधानमंत्री बनाया गया। केसरी ने फिर समर्थन वापिस ले लिया। सभी गैर कांग्रेस, गैर भाजपा सरकारें अस्थाई रही। कई तो सूटकेस सरकारें थी। इस प्रयास की असफलता का एक कारण मुलायम सिंह यादव हैं जो भी इस वक्त तीसरे मोर्च की बात कर रहे हैं। मुलायम सिंह यादव द्वारा विश्वासघात की बड़ी लम्बी सूची है। विपक्ष को दगा देते हुए बार-बार यूपीए सरकार को समर्थन दिया। यही कारण है कि वामदल उनके प्रति फूंक-फूंक कर कदम उठा रहे हैं। वे कई बार मुलायम सिंह के कारण अपने हाथ जला चुके हैं। दूसरी समस्या है कि सपा पार्टी उत्तर प्रदेश को संभाल नहीं सकी। उत्तर प्रदेश का जो नमूना वे पेश कर रहे हैं वह देश दोहराने को तैयार नहीं।
यह नहीं कि इस वक्त यूपीए और एनडीए की हालत बहुत अच्छी है पर तीसरा मोर्चा कोई विकल्प नहीं। यूपीए का पतन हो रहा है और एनडीए में केवल अकाली दल तथा शिवसेना भाजपा के साथी रह गए हैं। पिछले 20 वर्षों में दोनों बड़ी पार्टियों के वोट प्रतिशत में 10 की भारी कमी आई है। दोनों मिलाकर भी 50 प्रतिशत तक नहीं पहुंचते। यह फायदा प्रादेशिक पार्टियों को हुआ है। कांग्रेस बदनाम हो गई है और भाजपा अभी केवल उत्तर, मध्य तथा पश्चिम भारत तक सीमित है। 2009 के चुनाव में कांग्रेस ने अपना वोट प्रतिशत 26.5 से बढ़ा कर 28.6 कर लिया था इसीलिए उनकी सरकार भी बन गई जबकि भाजपा का वोट 22.2 से गिर कर 18.8 रह गया है। 1998 में यह 25.6 प्रतिशत था। नरेंद्र मोदी की पहली जिम्मेवारी इस वोट प्रतिशत में भारी वृद्धि करवाना होगा नहीं तो भाजपा सरकार बनाने तथा और सहयोगी दल इकट्ठे करने की स्थिति में नहीं आएगी। अभी तक केवल जयललिता का रवैया सहयोगपूर्ण है। अगर बाकी दलों को नरम करना है तो भाजपा को कम से कम 180 तक पहुंचना होगा। नरेंद्र मोदी को फायदा है कि पार्टी के अंदर से उनके रास्ते में अवरोधक खड़े करने वाली वरिष्ठ तथा विशिष्ट लॉबी खामोश हो जाएगी। देश में ध्रुवीकरण भी हो सकता है लेकिन इससे नरेंद्र मोदी की जिम्मेवारी भी बढ़ जाएगी। जो वे चाहते थे उन्हें मिल गया, अब गेंद उनके पाले में है।
यह तथाकथित तीसरा या फैडरल मोर्चा बासी कड़ी में उबाल जैसा है। खुद शरद यादव ने 2009 में कहा था कि संयुक्त मोर्चा एक तमाशा है, हास्यास्पद है। अगर किसी कथित तीसरे मोर्चे ने सफल होना है तो इसके लिए तीन शर्तें पूरी होनी चाहिए। एक, पर्याप्त समर्थन होना चाहिए। जो पार्टियां इस वक्त सक्रिय हैं वे मिला कर भी 100 तक नहीं पहुंचती। बाकी 172 कहां से आएंगे? इस वक्त तो स्थिति नजर आती है वह इस तरह है, नीतीश प्लस ममता माइनस लैफ्ट प्लस नवीन प्लस मुलायम माइनस मायावती प्लस चंद्रबाबू माइनस वाईएसआर कांग्रेस प्लस डीएमके माइनस जयललिता! इन सबके अहम कौन संभालेगा? दूसरा, इनका एक न्यूनतम सांझा कार्यक्रम होना चाहिए। कांग्रेस और भाजपा दोनों के पास अपनी-अपनी विचारधारा है। तीसरे मोर्चे की विचारधारा क्या होगी, इसके सिवाए कि वह सत्ता का स्वाद चखना चाहते हैं? यह मेंढकों की पंसेरी देश को कैसे संभालेगी? हम आर्थिक गैरजिम्मेवारी का नंगा प्रदर्शन देखेंगे। तीसरी बड़ी शर्त है कि इसका एक सर्वमान्य नेता हो। इस वक्त यह मुख्यमंत्रियों का जमघट नजर आता है। इनका प्रधानमंत्री कौन होगा? मुलायम सिंह? ममता बैनर्जी? चंद्रबाबू नायडू्? या कोई देवेगौड़ा या इंद्र कुमार गुजराल जैसा कोई डार्क हॉर्स? इस वक्त तो सभी प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। नीतीश की भी सारी कवायद यही संकेत दे रही है। वे कांग्रेस के समर्थन से तीसरे मोर्चे के प्रधानमंत्री बनना चाहते है।
इनकी हजार कमजोरियों के बावजूद केवल भाजपा या कांग्रेस ही सरकार दे सकती है। यह कथित तीसरे मोर्चे की जन्नत एक मृगतृष्णा है जो हमारा राजनीतिक तथा बुद्धिजीवी वर्ग हर कुछ महीने के बाद देखता है पर कभी इसके नजदीक नहीं पहुंच पाता। अगर तीसरे मोर्चे की सरकार बनी तो वह असफल, अस्थाई और दिशाहीन होगी। एक कमजोर उलझा हुआ अस्थिर केंद्र भारत जैसे देश को संभाल नहीं सकता। हर कुछ साल के बाद यह विचार उभरता है लेकिन यह अव्यवहारिक और विनाशक है जिसके बारे यही कहा जा सकता है कि,
हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन
दिल के बहलाने को गालिब यह ख्याल अच्छा है!
सचाई तो जो है सो है