धार्मिक पर्यटन पर नियंत्रण चाहिए
क्या उत्तराखंड की तबाही रुक सकती थी? हम बादल फटने को रोक नहीं सकते, मूसलाधार लगातार बारिश को रोक नहीं सकते, भूस्खलन को रोक नहीं सकते पर निश्चित तौर पर तबाही को कम कर सकते हैं। हमने अपने पहाड़ों के साथ पाप किया है जिसका खामियाजा हम भुगत रहे हैं। रोजगार तथा राजस्व के लिए विकास चाहिए लेकिन यहां अनियंत्रित विकास हो रहा है। जब सड़कें निकलती हैं, डैम बनाए जाते हैं, पहाड़ों से सुरंगे निकलती हैं, वन काटे जाते हैं, निर्माण होता है तो इसकी कीमत तो एक दिन चुकानी पड़ती है। उस क्षेत्र में 1978 में बाढ़ आई थी। फिर 27 वर्ष के बाद 2005 में बाढ़ आई। उसके बाद से तीन बड़ी बाढ़ें और यह महाविनाश हम देख रहे हैं। इसका कोई तो कारण होना चाहिए कि 27 वर्ष सब कुछ शांत क्यों रहा?
2000 में उत्तराखंड की स्थापना हुई। उसके बाद से लापरवाह विकास किया गया। दोनों भाजपा तथा कांग्रेस की सरकारें दोषी हैं। कई बिजली परियोजनाएं बनाई गई। होटल बनाए गए। नदी तट पर मकान बनाए गए। अब ये सब बह गए। 90 तो धर्मशालाएं बह गई। यह सब नियमों को ताक में रख कर बनाई गई थी। बिजली परियोजनाओं के लिए पहाड़ों में विस्फोट करने पड़ते हैं जिससे सारा पर्यावरण तंत्र बिगड़ जाता है। पहाड़ों की चट्टानें तथा गर्द नदियों में गिर जाती है जिससे उनका फैलाव कम होता है। अलकनंदा, मंदाकिनी तथा भागीरथी नदियों पर 70 बड़ी छोटी बिजली परियोजनाएं बनाई गई हैं। असंख्य नई सड़कें बनाई गई, कई सौ टूरिस्ट स्थल उग आए लेकिन सबसे अधिक नदियों के बहाव को प्रभावित किया गया। जब अंधाधुंध पेड़ काट कर तथा अव्यवस्थित तरीके से सड़कें बनाई जाएँ तो ऐसी विपदा एक दिन तो आएगी ही। हिमाचल के ऊपरी क्षेत्र में भी ऐसा हो रहा है। विशेष तौर पर बिजली परियोजनाओं ने इस तबाही में बहुत योगदान डाला है पर विवादित टिहरी डैम के प्रबंधकों का कहना है कि अगर यह डैम न बनता तो ऋषिकेश तथा हरिद्वार पानी से भर जाते हैं।
विकास चाहिए या पर्यावरण? यह अंतहीन बहस है। हमारे देश में ही नहीं दुनिया के हर देश में यह चल रही है लेकिन हमारी लापरवाही कुछ अधिक ही है। दोनों के बीच समन्वय की जरूरत है। पहाड़ों से छेड़खानी बंद होनी चाहिए पर फिर पहाड़ी लोगों को रोजगार कैसे मिलेगा? लेकिन अगर पेड़ काटे जाएंगे तो तबाही तो होगी ही। केदारनाथ मंदिर की पिछली शताब्दी की तस्वीरों में यह मंदिर अपने एकांत में भव्य नजर आता है अब यह चारों तरफ टीन की छत्तों से घिरा हुआ है। जब बाढ़ आई तो 10,000 लोग वहां मौजूद थे। एक दशक में केदारनाथ तथा बद्रीनाथ में पहुंचने वाले लोगों में चार गुणा वृद्धि हुई है। लोग शिकायत करते आसपास के ढाबों से तो ऊंचा फिल्मी संगीत सुनने को मिलता है। एक ने लिखा है कि बद्रीनाथ में तो उसे सस्ते गर्म कपड़े की मार्केट नजर आई। हमने तो अपनी आस्था को भी बाजारी बना दिया। अफसोस!
लैं. जनरल अनिल चैत खुद बद्रीनाथ से 12 किलोमीटर पैदल चल कर 500 लोगों को वहां से निकाल कर लाए हैं। इसे कहते हैं लीडरशिप। पर एक मिसाल नहीं है, जहां नागरिक प्रशासन ने साहस और संकल्प दिखाया हो। एक मिसाल नहीं। वास्तव में जिस तरह वहां निर्माण हुआ है वह आपराधिक लापरवाही ही नहीं आपराधिक मिलिभगत भी दिखाता है। कोई तो अवैध ढंग से बने इन मकानों के बह जाने के लिए जवाबदेह है। बताया जाता है कि केंद्रीय सरकार का एक आपदा प्रबंधन भी है। ऐसी तबाही से निबटने के लिए तीन कमेटियां है, तीनों ही प्रधानमंत्री के नीचे काम करती हैं। वह किस मर्ज की दवा है? इन कमेटियों की कार्ययोजना में नाजुक हिमालय क्षेत्र में संभावित आपदा के लिए तैयारी करना शामिल है। प्रधानमंत्री को बताना चाहिए कि इन कमेटियों ने क्या किया क्योंकि जब आपदा आई तो ‘आपदा प्रबंधन’ तो कहीं नजर नहीं आया। क्या वह भी पानी में बह गया? इस देश में बाढ़, सूखा, भूकंप, समुद्री तूफान, भूस्खलन का लगातार सामना करना पड़ रहा है। मौसम में बदलाव आ रहा है जो जून में उत्तर भारत में मानसून की उपस्थिति में पता चलता है पर हमारा सारा तंत्र इस परिवर्तन के लिए बेतैयार है। उत्तराखंड में नदियों के स्वाभाविक बहाव का 6,40,247 मीटर मार्ग बदला गया। चाहे भोपाल हो, चाहे भुज हो, चाहे 2005 में मुंबई की बरसात हो हमने आपदा से निबटने में कोई सबक नहीं सीखे। वे संस्थाएं ही सक्रिय नहीं जो इससे निबट सके। अब आगे निर्माण है। मुख्यमंत्री ‘नए उत्तराखंड’ का वायदा कर रहे हैं। उनकी कारगुजारी तथा रिकार्ड को देखते हुए घबराहट होती है। देश में इतना दम है कि हम उस क्षेत्र का नवनिर्माण कर सकते हैं लेकिन क्या सरकारी मशीनरी इसमें अपना मौका तो नहीं देखेंगी? उत्तराखंड का नवनिर्माण किसी कुशल प्रशासक के हवाले किया जाना चाहिए ऐसे किसी व्यक्ति के हवाले नहीं जिसे भ्रष्टाचार के कारण अपना पद छोडऩा पड़ा था।
जहां सरकार की जिम्मेवारी है वहां हमें भी अपनी जिम्मेवारी समझनी चाहिए। उत्तराखंड के पहाड़ी कस्बे तथा गांव इतने दबाव को नहीं सह सकते। ठीक है इससे वहां की अर्थव्यवस्था मजबूत हुई है पर प्रदेश का नाजुक पर्यावरण तथा कमजोर ढांचा इतने ‘धार्मिक पर्यटकों’ को संभाल नहीं सकता। अब सबके पास गाड़ियाँ आ गई हैं सब परिवार को लेकर निकल पड़ते हैं। भक्ति भी और सैर-सपाटा भी। शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद का कहना है लोग चार धाम की यात्रा पिकनिक की तरह मना रहे हैं। अभिनेता टॉम आलटर ने बताया है कि पहले यह यात्रा ऋषिकेश से पैदल हुआ करती थी। अब धुआं छोड़ती गाडिय़ों में लोग धड़ाधड़ पहुंच रहे हैं। 2004 में 5 लाख लोग बद्रीनाथ की यात्रा पर गए थे अब इनकी संख्या 10 लाख के करीब पहुंच रही है। इलाहाबाद के महाकुंभ में 10 करोड़ लोग आए जो संख्या 2001 से दोगुनी है। उत्तराखंड की जनसंख्या 1 करोड़ है पर 2011 में 2 करोड़ लोग वहां गए थे, और वह भी अधिकतर गर्मियों में। खेतीबाड़ी के लिए जगह कम हो रही है। अनुमान है कि 2012 तक 10,000 हैक्टेयर खेती के लिए जमीन का व्यवसायिक इस्तेमाल हो चुका था। पर कोई नहीं देख रहा कि क्या यह सही हुआ है?
समय आ गया है कि इस नाजुक क्षेत्र में इस ‘धार्मिक पर्यटन’ पर नियंत्रण लगाया जाए। हमारे लोग ऐसे किसी नियंत्रण या अनुशासन पर भडक़ जाते हैं पर इस त्रासदी से सबक सीखना चाहिए कि ऊपर उतने ही लोग जाएं जितने संभाले जा सके, जैसे अमरनाथ यात्रा में किया जाता है। वैष्णो देवी यात्रा के लिए रोजाना 20,000 से 30,000 लोगों को पास दिए जाते हैं। नीचे से नियंत्रण है। यह सख्ती से लागू होना चाहिए नहीं तो लोग अनुशासन में नहीं रहते। अमरनाथ यात्रा के दौरान एक बार लोगों को संभालने के लिए लाठीचार्ज हो चुका है। धार्मिक जोश के साथ होश की भी जरूरत है। साऊदी अरब की सरकार भी हज यात्रियों की संख्या सख्ती से नियंत्रित करती है। हमारे देश में ऐसे नियंत्रण की बहुत जरूरत है क्योंकि हममें अनुशासन की घोर कमी है। हमें भी समझना चाहिए कि हम सरकार से तो लड़ सकते हैं प्रकृति से नहीं। आज से 55-60 वर्ष पहले जब हम मनाली के पास रोहतांग दर्रे पर जाते थे तो जीप बहुत दूर छोड़ कर पैदल ऊपर बर्फ पर चढऩा पड़ता था। आज दर्रे पर ट्रैफिक जाम सामान्य है, प्लास्टिक का कूड़ा अलग जमा हो रहा है। ऐसी लापरवाही विनाश को आमंत्रित करती है। किन्नौर से संकेत मिल गया है।
धार्मिक पर्यटन पर नियंत्रण चाहिए,
सुझाव तो उत्तम है पर बहरी सरकार सुने तब न ……
व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है | जीवन यापन क लिए ऐसे स्थल उनकी आमदनी मैं सहायक होते है | आस्था का बाजारीकरण जिससे कहा गया है किसी की दो वक़्त की रोटी का एक साधन भी हो सकता है |