
मोदी की जिम्मेवारी
नरेंद्र मोदी एक बार फिर सुर्खियों में हैं। क्योंकि वे किसी का लिखा भाषण नहीं पढ़ते इसलिए भी अपनी बात ठोक कर कहते हैं। जिससे कई बार बहस शुरू हो जाती है। हाथ से काम किया हुआ है इसलिए सब जानते भी हैं। कांग्रेस के बारे उनका कहना है कि जब -जब वह फंसती है सैक्यूलरिज़्म का बुर्का पहन लेती है। बात सही है। अगला चुनाव जो महंगाई, भ्रष्टाचार, प्रशासकीय अक्षमता, गिरते रुपए आदि पर लड़ा जाना चाहिए कांग्रेस उसका रुख धर्मनिरपेक्षता-सांप्रदायिकता की बहस की तरफ मोड़ना चाहती है। इसीलिए इशरत जहां मुठभेड़ का मामला भी उठाया जा रहा है। देश में पिछले 5 वर्षों में 191 मुठभेड़ हो चुके हैं। पंजाब में आतंकवाद पर विजय केपीएस गिल ने मुठभेड़ की रणनीति के द्वारा ही प्राप्त की थी, लेकिन बाकी मुठभेड़ की परवाह किए बिना केवल इशरत जहां का मामला उठाया जा रहा क्योंकि यह कांग्रेस की सैक्यूलरिज़्म वाली बहस में माफिक बैठता है। खुद गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे यह कहने को तैयार नहीं कि इशरत जहां तथा उसके साथी आतंकवादी नहीं थे। यह भी नहीं कहा जा रहा कि इनमें से दो पाकिस्तानी नहीं थे। इस मामले को उछाल कर आईबी को नाराज कर लिया गया है जिसका देश की सुरक्षा पर बुरा असर पड़ेगा पर कांग्रेस यह कीमत चुकाने के लिए तैयार है क्योंकि नरेंद्र मोदी को घेरने के लिए उनके पास एक ही मुद्दा है, सैक्यूलरिज़्म बनाम कौम्यूलिज्म।
हाल ही में नरेंद्र मोदी की एक इंटरव्यू से काफी बहस छिड़ गई हैं। उनका कहना है कि वह हिन्दू है, राष्ट्रवादी हैं इस तरह वह हिन्दू राष्ट्रवादी है। अब इस पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? लेकिन अंग्रेजी मीडिया तथा कांग्रेस का एक वर्ग इस पर भी आपत्ति कर रहा है। पूछा जा रहा है कि उन्होंने खुद को ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ क्यों कहा, ‘भारतीय राष्ट्रवादी’ क्यों नहीं कहा? क्या बचकाना तर्क है? क्या इस देश में खुद को हिन्दू कहना अपराध है? यह पाकिस्तान तो नहीं कि हिन्दू पहचान छिपाने की जरूरत है? अमेरिका में राष्ट्रपति हर रविवार चर्च जाते हैं। बाईबल पर हाथ रख शपथ लेते हैं। यह व्यक्तिगत आस्था का मामला है। वे अपनी ईसाई पहचान भी स्पष्ट करना चाहते हैं लेकिन हमारे देश में अगर अमित शाह अयोध्या जाए तो उस पर बवाल मच जाता है। वहां भव्य राममंदिर के निर्माण की प्रार्थना गुनाह बन जाती है। दूसरा विवाद ‘कुत्ते के बच्चे’ को लेकर उठ गया है। पर आखिर मोदी ने कहा क्या? ‘कुत्ते का एक छोटा बच्चा भी पहिए के नीचे आ जाए तो दु:ख होगा कि नहीं… अगर कुछ बुरा होता है तो यह स्वाभाविक है कि बुरा लगेगा।’
यह मैं स्वीकार करता हूं कि ‘कुत्ते के बच्चे’ वाली तुलना बहुत बढ़िया नहीं है। अगले ही दिन उन्होंने यह स्पष्ट भी किया कि हर जीवन बहुमूल्य है। पर आलोचक इस पर भी बिगड़ रहे हैं कि उन्होंने गलत तुलना की है। जो कांग्रेसी नेता मोदी की ‘कुत्ते के बच्चे’ वाली टिप्पणी पर इतराज करते हैं उन्हें इसकी 1984 के दंगों के बाद राजीव गांधी की टिप्पणी कि ‘जब बड़ा पेड़ गिर जाता है तो जमीन में हलचल होती है’ से तुलना करनी चाहिए। राजीव के शब्द तो बेपरवाह और क्रूर थे। पश्चात्ताप का एक अंश नहीं था। मारे गए 4000 लोगों के प्रति संवेदना की एक झलक नहीं थी। एक वाक्य में उस नरसंहार को रफादफा कर दिया गया जबकि मोदी ने संवेदना प्रकट करने का प्रयास किया है। उन्होंने मानवीय हानि को महत्त्वहीन बताने का प्रयास नहीं किया चाहे मेरा मानना है कि शब्दों का चयन बेहतर हो सकता था। अगर प्रधानमंत्री बनना है तो कुछ सावधानी भी चाहिए।
भाजपा में अब स्पष्टता नजर आती है। आतंरिक कलह एक तरफ रख मोदी को पार्टी का अर्जुन घोषित किया जा रहा है। पहले गठबंधन चलाने की मजबूरी में संघ की भूमिका कमजोर पड़ गई थी और 2005 में के. सुदर्शन ने टीवी के कैमरों को आगे आकर वाजपेयी तथा आडवाणी को खुद रिटायर होने तथा युवाओं को आगे लाने की सलाह दे दी थी। उनकी सलाह की परवाह नहीं की गई। सुदर्शन का अविमर्श अविवेकपूर्ण था जिससे भाजपा और उससे अधिक संघ का नुकसान हुआ था। वर्तमान सरसंघचालक भागवत ने यह भूल नहीं की और पर्दे के पीछे रहते हुए भाजपा को सही दिशा दी है। भाजपा का प्रयास होगा कि अगले चुनाव अमेरिका की तरह प्रैसिडैंशल हों, नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी। कांग्रेस भी जानती है कि मोदी के सामने राहुल उन्नीस रहेंगे इसलिए राहुल की उम्मीदवारी को लेकर कलाबाजियां खा रहे हैं। एक महासचिव दिग्विजय सिंह कहते हैं कि राहुल पीएम पद के उम्मीदवार नहीं होंगे तो दूसरे महासचिव जनार्दन द्विवेदी का कहना था कि राहुल ही चुनाव अभियान का नेतृत्व करेंगे और अब तीसरे महासचिव अजय माकन का कहना है कि अभी कोई फैसला नहीं हुआ। कांग्रेस के अंदर तमाशा चल रहा है। खुद राहुल खामोश है। शायद तय करने की कोशिश कर रहे हैं कि हवा का रुख क्या है? देश में कुछ भी हो जाए कांग्रेस की त्रिमूर्ति मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी और राहुल गांधी अपनी चुप्पी नहीं तोड़ते। हमारा एकमात्र लोकतंत्र है जहां शीर्ष नेताओं को चुप रहने की सुविधा मिली हुई है। अर्थ व्यवस्था का फटेहाल है। जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने तो डॉलर के मुकाबले 41 रुपए थे, आज वह 60 रुपए के आसपास है। अर्थात् रुपए का 50 प्रतिशत अवमूल्यन हो चुका है लेकिन अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री खामोश हैं।
देश के शिखर पर अराजक भटकन की स्थिति बन रही है। प्रधानमंत्री यह प्रभाव दे रहे हैं कि जैसे उन्होंने स्टीयरिंग से हाथ उठा लिया है। इन नौ सालों में देश का हर क्षेत्र में पतन हुआ है। विकास की दर गिरी है, रुपया गिरा है, लोगों का विश्वास गिरा है। विदेशियों ने पैसा निकालना शुरू कर दिया है। केवल भ्रष्टाचार और अनैतिकता बढ़ी है। कांग्रेस भी जानती है कि इन नौ वर्षों में देश कमजोर हुआ है और शासन का पतन हुआ है इसीलिए सार्वजनिक वार्तालाप को शासन से हटा कर बासी सैक्यूलर बनाम नॉन-सैक्यूलर पर ले जाने की कोशिश कर रही है। अगर चुनाव शासन, रोजगार, महंगाई, भ्रष्टाचार, घोटालों, अर्थव्यवस्था पर लड़ा जाएगा तो कांग्रेस तबाह हो जाएगी। इसीलिए वह भावनात्मक मुद्दों पर चुनाव लडऩा चाहते हैं। इशरत जहां मुठभेड़ जैसे मसलों को उठाने का मकसद यही है पर लोग एक निर्णायक नेतृत्व के लिए तड़प रहे हैं जो कुशल शासन दे और पटरी से उतर रही अर्थव्यवस्था को फिर पटरी पर लाएं। लोग बेहतर भविष्य के लिए वोट डालेंगे इसलिए नरेंद्र मोदी की जिम्मेवारी बहुत है। उन्हें विकास पुरुष समझा जा रहा है जो इस देश में फिर से जान डाल सकते हैं। हमें 1990 के भारत में नहीं लौटना। उन्होंने उस इंटरव्यू में खुद कहा है कि लोगों के टूटे हुए भरोसे को फिर से कायम करना है। इसलिए उन्हें पुराने पचड़ों में फंसे बिना लोगों को भविष्य का ब्लू प्रिंट पेश करना है। अनावश्यक बहस शुरू कर मुख्य मुद्दों से ध्यान हटा कर वे केवल अपने विरोधियों के गेम प्लैन को सफल बना रहे हैं। उनकी ताकत उनका शासन का रिकार्ड है जबकि यूपीए की कमजोरी भी उनका शासन का रिकार्ड है। अगला चुनाव इस पर, और सिर्फ इस पर, केंद्रित होना चाहिए। लोग बेसब्री से अगले चुनाव की इंतजार कर रहे हैं। परेशानी सबको है। मुसलमानों को भी उतनी ही है जितनी हिन्दुओं को। हिसाब बराबर करने के लिए सबके पास भी केवल एक हथियार है, वोट।
मोदी की जिम्मेवारी,
मोदी को जिम्मेदारी तो दी जा सकती है, किन्तु उनके शब्दों का चयन, नीतियाँ व विवादस्पद बयाँ थमने का नाम ही नही ले रहे. चंद सवालों से ही उनकी साम्प्रदायिकता, धर्मं निरपेक्षता व् समानता की भावना सवालों की कठघरे में आ जाती है जिसे दुनिया के सबसे विशाल लोकतांत्रिक राष्ट्र की कमान संभाली जानी है.
खुद को हिन्दू राष्ट्रवादी बताने वाले मोदी को जब संसदीय चुनाव समिति का प्रमुख बनाया गया तो उन्होंने अपना सबसे महत्वपूरन साक्षात्कार अन्तराष्ट्रिय न्यूज एजेंसी ”रायटर” को ही क्यों दिया? अगर उनके मन में मुसलमानों के प्रति समानता व् सद्भावना है तो केन्द्र सरकार द्वारा अल्प्संन्ख्य्क मुसलमानों के लिए चलाई जा रही छात्रवृति स्कीम जिसमे केन्द्र सरकार का ७५% व राज्य सरकार का २५% योगदान है. ये स्कीम गुजरात में लागू क्यों नही है? २३जून २०१३ को पंजाब में पठानकोट के नजदीक माधोपुर रेली में संविधान का अनुछेद ३७० ख़त्म हो कर ही रहेगा जेसी भड़काऊ बयानबाजी समझ से परे है.