गोली पाकिस्तान से आई
पाकिस्तान की नीति स्पष्ट है। वे हमें दबाव में रखना चाहते हैं। उनकी पश्चिमी सीमा पर आतंकवादियों के साथ वे लड़ाई हार रहे हैं। हाल ही में वहां डेरा इस्माईल खान जेल तोड़ कर तालिबान 250 कैदियों को छुड़ा कर साथ ले गए। जब से नवाज शरीफ प्रधानमंत्री बने हैं रोजाना बम फट रहे हैं। अब आतंकवादियों का ध्यान बँटाने के लिए पाकिस्तान के जरनैल अपनी पूर्वी सीमा पर गड़बड़ करते नजर आ रहे हैं। याद रहे कि मुंबई पर 26/11 के हमले के बाद जेहादियों ने कहा था कि हम पाकिस्तान की सेना के साथ लड़ तो रहे हैं लेकिन अगर भारत के साथ जंग होगी तो हम पाकिस्तान की सेना के साथ मिल कर दुश्मन का मुकाबला करेंगे। अब भारत-पाक रिश्तों की दिशा यही लग रही है। घुसपैंठ बढ़ रही है। पिछले साल से दोगुनी हो गई है। कश्मीर में हमले बढ़ रहे हैं। नियंत्रण रेखा को फिर गर्म कर दिया गया है। और हम कह रहे हैं कि नहीं, नहीं, ये पाक सैनिक नहीं थे बल्कि पाक सेना की वर्दी में आतंकवादी थे। क्या एंटनी साहिब समझते हैं कि उनकी सेना तथा लश्करे तोयबा में कोई अंतर है? गोली पाकिस्तान से आई है, यह काफी है। हाल ही में अफगानिस्तान में जलालाबाद में हमारे वाणिज्य दूतावास पर हमले की कोशिश की गई थी। इसके बारे भी सूचना है कि सारी योजना पाक की खुफियां एजंसियों ने बनाई थी केवल कार्रवाई बागी अफगान ग्रुप ने की।
हमारा दुर्भाग्य है कि हमारी सरकार कमजोर है इसलिए एक तरफ चीन तो दूसरी तरफ पाकिस्तान हमें दबाने की कोशिश कर रहे हैं। यह भी हो सकता है कि दोनों मिल कर कार्रवाई कर रहे हैं क्योंकि भारत का उभार दोनों के हित में नहीं है। लेकिन एंटनी के बयान जैसा समर्पण तो स्वीकार नहीं। यह संभव नहीं कि हम उनके लिए व्यापार के दरवाजे खुले छोड़ते जाएं और वे उधर से गोलियां दागते जाएँ। जनवरी में सैनिकों के सर कलम के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था कि उस देश के साथ ‘बिसनेस एस यूजवल’ नहीं हो सकता पर कुछ समय व्यतीत जाने के बाद रिश्तों को फिर ‘यूजवल’ किया जा रहा है। अगले वर्ष अमेरिका अफगानिस्तान से निकल जाएगा तब स्थिति और बिगड़ेगी क्योंकि सभी आतंकी गुटो का ध्यान हमारी तरफ ही होगा।
हमारे रक्षामंत्री ने कह दिया कि ‘पाक सेना की वर्दी में आतंकवादियों ने हमला किया था।’ क्या उनका उस दर्जी के साथ सम्पर्क था जिससे यह वर्दी सिलाई थी? ए के एंटनी की कलाबाजियों से पता चलता है कि पाकिस्तान के साथ संवाद को बचाने के लिए उच्च स्तरीय प्रयास किया गया। आखिर ऐसे बयान जो संसद में दिए जाते हैं वे बहुत ध्यान से तैयार किए जाते हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पाकिस्तान के साथ संवाद को बचाना चाहते थे और न्यूयार्क में अगले महीने नवाज शरीफ से मिलना चाहते थे। संवाद में बुराई नहीं है। पाकिस्तान के साथ शांति का प्रयास भी अनुचित नहीं है पर यह संवाद केवल संवाद के लिए तो हो नहीं सकता। इसका कोई मकसद तो चाहिए। पिछले 15 वर्ष से हम उनके साथ ‘संवाद’ में हैं जिस दौरान हमारी संसद पर हमला हुआ कारगिल का युद्ध हुआ, मुंबई पर हमला हुआ और अब नियंत्रण रेखा पर ये घटनाएं हो रही हैं। हमें पाकिस्तान से आखिर क्या चाहिए? यही कि वह अपनी जमीन से हमारे खिलाफ आतंकी गतिविधियों पर रोक लगाए। अगर नवाज शरीफ ऐसा नहीं करवा सकते या ऐसा नहीं करना चाहते, तो संवाद के मायने क्या हैं? कहा जा रहा है कि अगर हम पाकिस्तान से वार्ता नहीं करेंगे तो नवाज शरीफ कमजोर हो जाएंगे जिन्होंने भारत के साथ दोस्ती करने के कई संकेत दिए हैं। लेकिन यह भी तो हकीकत है कि उन्होंने अपने पालतू आतंकवादियों पर नियंत्रण करने का प्रयास नहीं किया। इसका प्रमाण हाफिज सईद की खुली गतिविधियां है जो पाकिस्तान में भारत विरोधी माहौल बनाने में लगा हुआ है। यह वही हाफिज सईद है जिसकी जमात उद दावा को पाकिस्तान पंजाब की सरकार जिसके मुखिया नवाज शरीफ के छोटे भाईसाहिब शहबाज हैं, 60 करोड़ रुपया देकर हटी है। लाहौर में ईद की नमाज की अगुवाई इसी हाफिज सईद ने की जिसे भारत अपना अपराधी समझता है। हाफिज के साथ शरीफ परिवार का पुराना रिश्ता है। चुनाव में हाफिज के कट्टरवादी समर्थकों ने नवाज शरीफ की पार्टी का खूब समर्थन किया था।
हाफिस सईद तो एक प्रकार से अलग अपनी हकूमत चला रहा लगता था। एक भारतीय पत्रकार के साथ इंटरव्यू में पाकिस्तान की पूर्व विदेशमंत्री हीना रब्बानी खार ने बताया था कि जरदारी सरकार भारत के साथ रिश्ते सुधारने के लिए बहुत दूर तक जाना चाहती थी लेकिन मुंबई पर 26/11 के हमले ने सब कुछ तमाम कर दिया। अब फिर माहौल जान बूझकर खराब किया जा रहा है। जेहादी तथा सेना नवाज शरीफ को ही अप्रासंगिक बना रहे हैं। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने कहा था कि मैं बॉस हूं पर हाल की घटनाएं तो बताती हैं कि उनके पल्ले कुछ नहीं। कम से कम जहां तक भारत का सवाल है नीति उनके हाथ में नहीं है।
पाकिस्तान के प्रति नरम नीति को जनता का समर्थन प्राप्त नहीं है लेकिन डा. मनमोहन सिंह के दिल में पाकिस्तान के प्रति नरम कोना अवश्य है। आखिर वे कह चुके हैं कि वे उस दिन की कल्पना करते हैं जब नाश्ता अमृतसर में हो, दोपहर का भोजन लाहौर में और रात का भोजन काबुल में! ऐसा कुछ नहीं होने वाला। पाकिस्तान की नीति पर हावी जेहादी मानसिकता ऐसा नहीं होने देगी। नवाज शरीफ की भावना सही हो सकती है पर तर्क दिया जा रहा है कि हमें उनके लोकतांत्रिक नेतृत्व को मजबूत करना चाहिए। यह हमारी जिम्मेवारी कैसे है? अगर राजनीतिक नेतृत्व के पल्ले कुछ नहीं तो हम उन्हें बचा कर क्या कर लेंगे? ज्यादा से ज्यादा वहां फिर तख्ता पलट जाएगा। तब जो स्थिति होगी हम उसका भी सामना कर लेंगे।
जरूरी है कि पाकिस्तान के प्रति नीति में स्पष्टता आए। हम कलाबाजियां खा रहे हैं। हमारी सरकार तो अपनी सेना को परस्पर विरोधी सिग्नेल दे रही है। दुनिया भर में हमारी छवि कैसी बन रही है कि यह ऐसी सरकार है जिसके बाएं हाथ को मालूम नहीं कि दायां हाथ क्या कर रहा है? अफसोस है कि पाकिस्तान के हमले से सारा देश उत्तेजित है पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह खामोश रहे। वे पाकिस्तान की आलोचना नहीं करना चाहते थे यह समझ आता है, पर कम से कम शहीद सैनिकों को श्रद्धांजलि तो अर्पित कर सकते थे।
यहां तो पाकिस्तान को लेकर बिल्कुल राजनीतिक, कूटनीतिक और सामरिक घपला है। नवाज शरीफ के साथ बातचीत पर कोई इतराज नहीं लेकिन इसके लिए जरूरी है कि परवेज मुशर्रफ अपना वह वायदा जो उन्होंने 2004 में दिया था कि पाकिस्तान की जमीन भारत खिलाफ आतंकी गतिविधियों के लिए इस्तेमाल नहीं होगी, पूरा करें। नवीनतम घटना तो बताती है कि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री एक बेबस और लाचार राजनेता हैं जिनकी पहली कूटनीतिक कोशिश को उनके अपने ही लोगों ने बेकार कर दिया है। दूसरी तरफ हमारे प्रधानमंत्री हैं जो पाकिस्तान से तो संवाद चाहते हैं पर अपने लोगों के साथ जिनका कोई संवाद नहीं है। इस बार लाल किले से डा. मनमोहन सिंह का अंतिम भाषण होगा। दोहरी बधाई! स्वतंत्रता दिवस की और अंतिम भाषण की!
गोली पाकिस्तान से आई,
hindustan or pakistan bhai bhai hai. kissi zamane m badda bhai chote ko ankh bhi dikhata tha toh, paon zamin m ghadh jate the. Lekin aj chota(pakistan) he ankhein dikhane lagga hai, kyunki badde (hindustan ) ne khabhi uske kan khich k nahi rakhe. rakhe hote toh aj nobat yeh na ati.