मनमोहन II और बादल II
पंजाब की प्रकाश सिंह बादल सरकार अक्सर हर मामले पर अपनी मुसीबत के लिए केंद्र की मनमोहन सिंह सरकार को कोसती रहती है पर देखा जाए तो दोनों सरकारों के कामकाज में काफी समानता है। डा. मनमोहन सिंह की पहली सरकार ने अच्छा काम किया था। देश की विकास की दर तेज हुई और हमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत इज्जत मिली। देश में आशा का माहौल था जिस कारण 2009 में लोगों ने यूपीए को दोबारा सत्ता में आने का मौका दिया। इसका बड़ा श्रेय खुद मनमोहन सिंह को जाता है क्योंकि मिडल क्लास तब उनकी दीवानी थी। लेकिन दूसरी बार यूपीए सरकार का प्रदर्शन शोचनीय रहा और सरकार भ्रष्टाचार, घपलों और गिर रही आर्थिक दर तथा रुपए को लेकर बुरी तरह से फंस गई हैं। खुद डा. मनमोहन सिंह की छवि एक निष्क्रिय और लापरवाह प्रशासक की बन गई हैं जिनके बारे कहा जा सकता है कि,
अब के आएगी खिजा तो किससे करेंगे शिकवा,
हम से अपनी बहारों को संभाला न गया!
मनमोहन सिंह सरकार की ही तरह पंजाब की बादल सरकार ने पहली अवधि में बढ़िया प्रदर्शन किया। इंफ्रास्ट्रक्चर पर बहुत खर्चा किया गया और लोगों में उम्मीद जगी कि विशेष तौर पर सुखबीर बादल पंजाब को आधुनिक बनाने के लिए तत्पर हैं। इसी कारण इस सरकार को भी दूसरी बार जनसमर्थन मिला। पर पंजाब की अकाली-भाजपा सरकार के बारे भी कहा जा सकता है कि वह भी अपनी बहारों को संभाल नहीं सके। मनमोहन सिंह-सोनिया गांधी सरकार की ही तरह प्रकाश सिंह बादल-सुखबीर सिंह बादल सरकार की दूसरी अवधि भी निराशाजनक रही और पंजाब सरकार भी भटकती नजर आती है। मनमोहन सिंह II तथा प्रकाश सिंह II का ग्राफ समानांतर गिर रहा है। अंतर केवल दोनों नेताओं की शख्सियत में है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने ‘आइवरी टावर’ में बंद होकर बैठ गए हैं जबकि प्रकाश सिंह बादल का संगत दर्शन जारी है। कांग्रेस इसकी आलोचना तो करती है पर कांग्रेसी भूल गए कि उनके मुख्यमंत्री अमरेंद्र सिंह ने कभी संगत के ‘दर्शन’ करने का कष्ट ही नहीं किया था।
पंजाब की औसत विकास दर राष्ट्रीय औसत से भी नीचे गिर गई है। ऐसा तो आतंकवाद के दौर में भी नहीं हुआ था। पंजाब पिछले 20 वर्ष में सबसे कम विकास दर वाले राज्यों में बना हुआ है। इसका असर चारों तरफ नजर आ रहा है। प्रदेश का विकास ठप्प हो गया है। शिक्षा तथा स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों पर खर्च निरंतर कम होता जा रहा है। सबसिडी का बोझ इतना है कि यह अर्थव्यवस्था को ही ले बैठा है। बार-बार बिलों का भुगतान रोका जा रहा है। कर्मचारियों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं है। राजस्व में वृद्धि का लक्ष्य भी पूरा नहीं हो रहा। वैट में वृद्धि का 25 प्रतिशत का लक्ष्य केवल 12 प्रतिशत पर आकर रुक गया है। इस मामले में हरियाणा पंजाब से कहीं आगे है। उद्योग पलायन कर रहा है जिससे बेरोजगारी बढ़ेगी। अभी ‘खिजा’ वाली हालत तो नहीं पहुंची, पर बादल परिवार को सावधान हो जाना चाहिए।
प्रदेश पर कर्जा 95,000 करोड़ रुपए हो गया है जो 2007 से दोगुणा है। ऊपर से राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था कमजोर पड़ रही है जिसका असर सब पर पड़ेगा। जिन प्रदेशों का राजस्व मजबूत है वे इसे झेल जाएंगे जबकि पंजाब जैसे प्रांतों के लिए और मुसीबत होगी। समाचार पत्रों में छपी रिपोर्ट के अनुसार अब वेतन तथा पैंशन देने के लिए पुडा से 1000 करोड़ रुपए लेने की कोशिश हो रही है लेकिन इसके लिए पुडा को अपनी इमारतें बैंकों के पास गिरवी रखनी पड़ेंगी। पर जब जमीनें बेची जाएँ या इमारतें गिरवी रखी जाएँ तो समझ लेना चाहिए कि अंतिम उपाय किया जा रहा है। एक प्रकार से गहने बेचने वाली स्थिति आ रही है। पंजाब के वित्तमंत्री ढींढसा भी पी. चिदंबरम की तरह कह तो रहे हैं कि निराशा की कोई बात नहीं पर चारों तरफ यह संकेत है कि विकास का पहिया रुक गया है और सरकार के लिए रोजमर्रा का खर्च निकालना भी असंभव हो रहा है। ऐसी हालत केंद्र सरकार की नहीं है। क्या कोई इलाज है? इलाज तो वे ही हैं जो वर्षों से अर्थशास्त्री कहते आ रहे हैं और मुख्यमंत्री बादल सुनने को तैयार नहीं कि सबसिडी तथा सरकारी खर्चे कम किए जाएँ। ग्रामीण क्षेत्रों में बिजली की दी गई सबसिडी ने सबसे अधिक नुकसान किया है। न ही खर्चा कम किया जा रहा है। मिसाल के तौर पर 20 संसदीय सचिव की फौज की जरूरत क्या है जबकि उन्हें कोई काम नहीं सौंपा जा सकता? यह तो पद ही फिजूल है। नवजोत कौर सिद्धू ऊंची शिकायत कर रही हैं कि उन्हें काम नहीं दिया जा रहा और अमृतसर के विकास के लिए जो 100 करोड़ रुपए का वायदा किया था वह नहीं दिया गया। पैसा मिले कैसे जब पैसा है ही नहीं? भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष कमल शर्मा ने नवजोत कौर की शिकायत पर कहा है कि उन्हें यह शिकायत सार्वजनिक नहीं करनी चाहिए थी। लेकिन अंदर उठाने से सुधार तो होगा नहीं। कमल शर्मा से कुछ आशा नहीं। अकाली दल ने उन्हें जकड़ दिया है और वे प्रभावी नहीं हैं। दूसरी तरफ अगर नवजोत कौर सिद्धू को भी इतनी तकलीफ है तो उन्हें अपने बेकार संसदीय सचिव के पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। पंजाब को ऐसे ही किसी विस्फोट की जरूरत है जो आत्ममुग्ध शासकों को उनकी निद्रा से जगा सके।
सरकार के दबाव में कुछ उद्योगपतियों ने कह दिया है कि वे पंजाब नहीं छोड़ रहे। वे झूठ नहीं बोल रहे। उनके उद्योग पंजाब में लगे रहेंगे पर विस्तार पंजाब से बाहर हरियाणा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश आदि में हो रहा है। योजना आयोग के अनुसार पंजाब का औद्योगिक विकास 2007-08 में 15.90 प्रतिशत से गिर कर 2011-12 में 9.19 प्रतिशत रह गया है। इस बीच समाचार आया है कि उपमुख्यमंत्री सुखबीर बादल को अपने कैनेडा की यात्रा रद्द करनी पड़ गई है क्योंकि वहां की सरकार सुरक्षा प्रदान करने को तैयार नहीं। इस संदर्भ में सुखबीर बादल की टिप्पणी दिलचस्प है। उनका कहना था कि जब कैनेडा के प्रधानमंत्री यहां आए तो हमने उनकी सुरक्षा के लिए 5000 पुलिस के जवान तैनात किए पर कैनेडा बराबर की उदारता नहीं दिखा रहा। यहां गलती पंजाब सरकार की है, कैनेडा की सरकार की नहीं। पंजाब के सियास्तदान, विशेषतौर पर अकाली तथा कांग्रेसी, रईस एन.आर.आई को सर पर उठाने के माहिर हैं। जब भी एनआरआई सम्मेलन होता है तो इन लोगों की खूब खातिर की जाती है। कईयों को सशस्त्र एस्कार्ट तक दिए जाते हैं। जब हमारे लोग उधर जाते हैं तो उनकी भी खूब आवभगत होती है लेकिन यह केवल पंजाबी स्तर तक सीमित है। गोरे कोरे होते हैं। इसीलिए कैनेडा के प्रधानमंत्री ने सुखबीर बादल को सुरक्षा प्रदान करने से इंकार कर दिया। नियम नहीं है। सुखबीर कह रहे हैं कि हमने 5000 जवान तैनात किए। सवाल उठता है कि इतना अधिक प्रबंध करने की जरूरत क्या थी? आशा है इस प्रकरण से उचित सबक सीखा जाएगा। लेकिन उससे भी अधिक जरूरी है कि वर्तमान आर्थिक दुर्दशा से उचित सबक सीखा जाए। कभी देश का नम्बर-I प्रांत पंजाब गंभीर वित्तीय संकट के कगार पर खड़ा है।
मनमोहन II और बादल II,
पूरा देश आर्थिक संकट से जूझ रहा है, पंजाब के हालात कुछ ज्यादा ही पतले हैं। पंजाब सरकार को पूडा के पास अपनी जमीनें गिरवी रखनी पड़ी तो भारत सरकार को कई टन सोना इंग्लैण्ड के बैंको में गिरवी रखना पड़ा। पर दोनों में से किसी को भी राहत मिलने के आसार नहीं हैं। डालर के मुकाबले रुपया लगातार गिर रहा है। बुधवार को रुपया डालर के मुकाबले 68 .80 रुपया/डालर के स्तर पर पहुँच गया। पी. चिदम्बरम ने सोने में निवेश न करने की सलाह दे डाली, जैसे रुपये की गिरावट का एकमात्र कारण सोने की खरीद या सोने में निवेश ही हो। देश की आर्थिक नीतियों की तरफ कोई ध्यान नहीं, जिनका यह दुष्परिणाम है। रुपये की गिरावट और महँगाई में बढ़ौतरी दोनों बेलगाम हैं। आयात बढ़ रहा है, निर्यात कम हुआ है। सबसे अधिक आयात पैट्रोल और डीजल का है। इनकी निर्भरता कम करने का कोई उपाय नहीं। WTO के समझोते अनुसार आज उन चीजों का भी बड़ी मात्रा में आयात हो रहा है, जो जीवन के लिए आवश्यक नहीं। पिछले साल तो सेव का भी आयात हुआ। विदेशों से आयातित बीजों और फर्टिलाईजर्स के प्रयोग की निर्भरता ने किसानों को कर्ज में डुबोकर आत्महत्या के लिए तो मजबूर किया ही साथ ही धरती की उपजाऊ शक्ति भी कम हुई। इसके अलावा जमीन में इतना जहर घुल गया कि पूरा देश कैंसर जैसे घातक रोगों की चपेट में आ गया। इनसे लड़ने के लिए फिर से विदेशी दवाईयों का आयात। अजीब कुचक्र है। गलत नीतियों ने किसान के खेत से बैल को बाहर कर दिया और उस भोले अनपढ़ किसान को सुहाने सपने दिखाकर ट्रैक्टर और फर्टिलाईजर थमा दिए गए। बदले में उसे मिला कर्ज, डीजल और फर्टिलाईजर पर निर्भरता, धरती का बंजरपन, प्रदूषित जल, प्रदूषित वायु, कैंसर जैसे लाइलाज रोग…… और जो रुपया मिला उस बेचारे की खरीद की ताकत ही गायब हो गई। फिर वह आत्महत्या न करे तो क्या करे? इसके दुष्परिणामों की शुरुआत भले ही किसान से हुई हो, परन्तु आज इसका भागीदार देश का हर आम आदमी है। बैल केवल किसान का खेत ही नहीं जोतता था, वह ट्रांसपोर्टेशन का भी अच्छा साधन था, जिससे विदेशी मुद्रा की बचत होती थी। देश की आर्थिक स्थिति/रुपये को मजबूत करने के लिए केवल एक उपाय है; ऐसी आर्थिक और विदेश नीति अपनाना जिससे स्वदेशी उत्पाद को प्रोत्साहन मिले और विदेशी मुद्रा/डालर पर निर्भरता कम से कम हो तथा नेताओं/सचिवों की अनावश्यक फौज और उनकी फिजूलखर्ची पर अंकुश हो।