बदलने की इंतज़ार में फिज़ा
प्रकाश झा की फिल्म ‘सत्याग्रह’ के अन्तिम क्षणों में हताश, परेशान, निराश द्वारका आनंद (अमिताभ बच्चन) सवाल करते हैं अपने से, बाकी पात्रों से और हम सबसे, ‘यह कैसा देश बना लिया है हमने?’ यही सवाल आज सारा देश अपने से कर रहा लगता है। क्या यही भारत हमें चाहिये जहां भ्रष्टाचार तथा अनैतिकता एक व्यवसाय बन रहा है? जहां लोग महंगाई और कुव्यवस्था में पिस रहे हैं जबकि शासक वर्ग मौज मस्ती कर रहा है? हमारे ऊपर ‘रूल्स’ की किताब फैंकी जा रही है अपने हित के लिये कानून बदले जा रहे हैं। लोग सवाल पूछते हैं लेकिन जवाब देने वाला कोई नहीं। यदा कदा प्रधानमंत्री बाहर निकलते हैं और जवाब देते हैं कि मुझे कुछ नहीं छिपाना। पर यह बताते भी नहीं कि उनकी चौकीदारी के दौरान इतनी चोरी क्यों हुई? जिसे विश्व कुछ समय पहले तक ‘इंडिया स्टोरी’ कहता था वह गुम क्यों हो गई? आज बेबसी का माहौल है कि जैसे हमसे विश्वासघात किया गया है। इस हालत के बारे कहा जा सकता है:-
फिज़ा में इतनी घुटन है कि आज घबरा कर,
चिराग पूछ रहे हैं कि हवा कब आएगी?
लोग नई ‘हवा’ की इंतजार में हैं, पर कांग्रेस पार्टी के पास वहीं पुराना फार्मूला है। फिर परिवार के एक और सदस्य का नाम आगे किया जा रहा है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का भी कहना है कि वह राहुल गांधी के मातहत काम करने को तैयार हैं क्योंकि ‘उनमें प्रधानमंत्री बनने की योग्यता है।’ प्रधानमंत्री ने कैसी यह योग्यता देखी जो बाकी देश को नज़र नहीं आ रही? राहुल गांधी ने आदिवासियों के बीच नाटकीय घोषणा की है कि ‘आपके सपनों के लिये मैं अपने सपनों को कुचलने को तैयार हूं।’ इस बालीवुड टाईप डॉयलाग का मतलब क्या है? सिर्फ इसके कि परिवार ‘कुर्बानी’ की कथा जारी रखना चाहता है? इस बार कुर्बानी सपनों की होने जा रही है! परिवार को अपना भाषण-लेखक बदलना चाहिये। राहुल का कहना है कि पहले नारा था कि ‘आधी रोटी खाएंगे कांग्रेस को लाएंगे’, अब नारा होगा ‘पूरी रोटी खाएंगे, 100 दिन काम पर जाएंगे और कांग्रेस को लाएंगे।’
पर कांग्रेस का नेतृत्व जवाबदेह है कि लगभग साढ़े पांच दशक के कांग्रेस के सीधे या परोक्ष शासन के बावजूद अभी भी देश के एक वर्ग को पूरी रोटी क्यों नहीं मिल रही? अगर खाद्य सुरक्षा प्रदान करनी थी तो पहले क्यों नहीं की गई, नौ वर्ष इंतजार क्यों किया गया? ताकि चुनाव में दोहन किया जा सके? रोटी से ही राजनीति क्यों की जा रही है? पर आज भारत बदल गया है। उन्हें रोटी ही नहीं चाहिये उन्हें नौकरी चाहिये, उचित शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवा चाहिये, भ्रष्टाचार मुक्त शासन चाहिये, बेहतर सड़कें चाहिए। सब से बड़ी जरूरत एक ऐसे प्रधानमंत्री की है जो वास्तव में नेतृत्व दे सके। जो पैसा नेताओं, अफसरों तथा मिडलमैन की जेब में जाता है वह लोगों के विकास पर खर्च हो। राष्ट्र विशेष तौर पर युवा महत्वाकांक्षी और अधीर है, जो चलता आ रहा है वह उन्हें स्वीकार नहीं इसलिये उन्हें ऐसे नेता की तलाश है जो निश्चित तौर पर मनमोहन सिंह या राहुल गांधी न हो। नरेन्द्र मोदी को ऐसे नेता के तौर पर देखा जा रहा है जो देश की फिज़ा बदलने की क्षमता रखते हैं, जो देश का खोया आत्मविश्वास लौटा सकते हैं, जो निर्णायक हैं, जो इस लडख़ड़ाती व्यवस्था को सही कर सकते हैं। इसीलिये कुछ रुदन करने वाले नफ़रत से भरे कथित बुद्धिजीवियों को एक तरफ छोड़ कर देश आगे बढ़ गया है। वह देख रहा है कि सैक्यूलरवाद के नाम पर किस तरह देश को लूटा गया है। नीतीश कुमार की सरकार ने तो यासीन भटकल को बिहार में गिरफ्तार करने से इंकार कर दिया था। कहीं मुसलमान नाराज़ न हो जाएं। दूसरे बड़े सैक्यूलरिस्ट मुलायम सिंह यादव से मुजफ्फरनगर में दंगे नहीं रोके जा सके। इन्होंने सैक्यूलर-गैर सैक्यूलर बहस ही अप्रासंगिक बना दी है।
मोदी भाजपा का सबसे बढिय़ा चुनाव है, उनके बराबर का लोकप्रिय नेता पार्टी में नहीं है। कोई भी दूसरा भाजपा नेता रिवाड़ी में इतनी भीड़ इकट्ठी करने की क्षमता नहीं रखता। उनके पिता चाय का स्टाल चलाते थे और 14 वर्ष का नरेंद्र केतली ले भाग-भाग कर रेल के यात्रियों को चाय पहुंचाता था। मैं इसे लोकतंत्र का जश्न समझता हूं कि आर्थिक तौर पर कमजोर परिवार से संबंधित व्यक्ति इतना ऊंचा पहुंचने की क्षमता रखता है। मोदी ने जो कामयाबी हासिल की है वह अपने बल पर अपनी क्षमता के कारण प्राप्त की है और आज वे संतोष से कह सकते हैं कि:
अपना ज़माना आप बनाते हैं अहले दिल
हम वो नहीं जिन्हें ज़माना बना गया!
ठीक है आडवाणीजी कोपभवन में हैं। इस तरह अड़ कर उन्होंने अपनी इज्जत नहीं बढ़ाई। वे तो कांग्रेस की मदद करते नज़र आ रहे हैं। उनकी जायज आपत्तियां हो सकती हैं। पार्टी में मंथन होना चाहिए लेकिन एक बार निर्णय हो जाए तो यह उठापटक शांत हो जानी चाहिए। कार्यकर्ता मोदी के साथ हैं। जनता का मूड मोदी के साथ है। उनके वकील सुधेंद्र कुलकर्णी का कहना है कि नेता को काडर की बात नहीं सुननी चाहिए बल्कि नेता को काडर को दिशा दिखानी चाहिए। वह तो आतंरिक लोकतंत्र का ही शीर्षासन कर रहे हैं। यह एक तानाशाह की प्रवृत्ति है। बताया जा रहा है कि जो पार्टी चाहती है वह अप्रासंगिक है दिल्ली में बैठ कर चंद नेता ही फैसला करेंगे कि पार्टी के लिए बेहतर क्या है? लाल कृष्ण आडवाणी की राजनीति से अब देश उब गया है। जिस तरह लोग सचिन तेंदुलकर की रिटायरमैंट की इंतज़ार कर रहे हैं उसी तरह आडवाणी की रिटायरमैंट की तिथि की इंतज़ार की जा रही है।
समय के साथ परिवर्तन होना चाहिए। नए लोग आगे आने चाहिए। देश युवा हो रहा है। 65 प्रतिशत जनसंख्या युवा है। इन्हें समझने वाला आगे आना चाहिए। दिल्ली में बैठे मुट्ठी भर बुद्धिजीवी समझते हैं कि उन्हें ही मालूम है कि दिल्ली से बाहर लोग क्या चाहते हैं। कई यह नहीं पचा पा रहे कि टी-स्टॉल के मालिक का बेटा उनका नेता बन सकता है। यह बौद्धिक अहंकार है। आज ऐसा नेता चाहिए जो जनता की नब्ज़ जानता हो। जिसने ज़मीन पर काम किया हो। जो ऐसी लहर बना सके जो देश को एक सार्थक विकल्प पेश कर सके। जिस तरह से कांग्रेस के नेता नरेंद्र मोदी के नाम से चिढ़े हुए हैं उससे पता चलता है कि कांटा शरीर में चुभ रहा है। नरेंद्र मोदी के चुनाव का स्वागत है। भाजपा अपना विकल्प खड़ा कर रही है। जो सवाल द्वारका आनंद ने दिया उसके पीछे छिपी वेदना को समझना चाहिये। इस वेदना को पूरी तरह खत्म करना तो शायद मुश्किल हो, पर इसे कम जरूर करना होगा। हमें साफ-सुथरी सरकार चाहिए। बहुत बड़ी जिम्मेवारी नरेन्द्र मोदी के कंधों पर है। इसलिये आज उन्हें अपनी शुभकामनाएं देते हुये मुझे कहना है:-
जरूरत आज है बज़में अमल सजाने की,
उठ और उठ कर बदल दे फिज़ा जमाने की!
काम मुश्किल है, असंभव नहीं क्योंकि फिज़ा खुद बदलने की इंतज़ार में हैं।
बदलने की इंतज़ार में फिज़ा,
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