प्रकृति से जीते मानव से हारे
चक्रवाती तूफान फाइलिन की धार कुंद पड़ गई है। जितना यह भयानक तूफान था बहुत तबाही हो सकती थी लेकिन सभी सरकारी एजंसियों ने सही काम किया। मौसम विभाग ने सही बताया कि तूफान कहां आएगा, कब आएगा और इसकी गति क्या होगी। केंद्रीय सरकार के साथ तालमेल कर ओडिशा सरकार तथा आंध्रप्रदेश सरकारों ने लाखों लोगों को सुरक्षित जगह पहुंचाया। सुनामी के समय भी हमने देखा था कि अगर सरकारी एजंसियां चुस्त रहें तो वह किसी भी प्राकृति आपदा से निपट सकती हैं। 30 अक्तूबर 1999 में ऐसा ही तूफान ओडिशा में आया था। कई सौ लोग मारे गए थे। पूरी अराजक स्थिति थी। ऐसी ही स्थिति हमने हाल ही में उत्तराखंड में भी देखी थी जहां सरकार प्राकृतिक आपदा से निबटने में बिल्कुल बेतैयार थी। वहां कितने मारे गए इसका अभी भी सही अंदाज़ा नहीं पर यह संख्या हज़ारों में है पर फाइलिन से निबटने के लिए आंध्रप्रदेश तथा ओडिशा सरकारें बिल्कुल तैयार थी। ओडिशा में मुख्य सचिव ने सभी कलैक्टरों को पत्र लिख कर चेतावनी दी थी कि अगर उनके क्षेत्र में एक भी मौत हुई तो आप जिम्मेवार होंगे। राजनीतिक नेतृत्व ने भी स्पष्ट आदेश दिए और किसी प्रकार की लापरवाही की गुंजायश नहीं छोड़ी। 30 घंटों के बीच 9 लाख लोगों को सुरक्षित जगह पहुंचाया गया और अपने लोगों को सामूहिक तबाही से उन्होंने बचा लिया। तूफान के आने से बहुत पहले यह सब प्रबंध कर लिया गया। सारे सिस्टम ने सही काम किया।
इसका अर्थ है कि जब हम चाहें तो हम सही काम भी कर सकते हैं। आधुनिक व्यवस्था ने प्रकृति के प्रचंड रोष पर विजय पा ली। प्राणहानि न्यूनतम रही है। लेकिन इसी भारत में उन्हीं दिनों मध्यप्रदेश में दतिया के रतनगढ़ मंदिर में भगदड़ में 115 लोग मारे गए। जिस कुशल प्रशासन तथा व्यवस्था की हम ओडिशा तथा आंध्रप्रदेश में तारीफ कर रहे हैं वह यहां गायब मिला। हालत ऐसी शोचनीय थी कि समाचार है कि पुलिस वाले ही लोगों को लूटते रहे। जो मारे गए उनकी नकदी तथा जेवर लूट लिए गए। इससे पहले भी वह वसूली करने में लगे रहे। ऐसे कर्मचारियों पर आपराधिक मामले दर्ज होने चाहिए।
रतनगढ़ मंदिर का हादसा हमारी व्यवस्था का घटिया चित्र पेश करता है। यहां 2006 में भी ऐसा ही हादसा हुआ था जब भगदड़ में 50 लोग मारे गए थे। कोई सबक नहीं सीखा गया। वही ‘बीमारू’ सरकारी मानसिकता नज़र आई। पांच लाख लोग वहां उपस्थित थे। इन्हें संभालने की कोई योजना नहीं थी। लाखों लोगों को संभालने के लिए दर्जन भर पुलिस कर्मचारी थे। मध्यप्रदेश सरकार की पूर्ण असफलता है। अब अफसरों को मुअत्तल किया जा रहा है पर निर्देश देना तो राजनीतिक नेतृत्व का काम है। कतार में खड़े होकर अपनी बारी की इंतज़ार करना दुर्भाग्यवश हिंदू श्रद्धालुओं को नहीं आता। वह अनुशासन नज़र नहीं आता जो दूसरे धर्म स्थलों में सामान्य है। इसीलिए बार-बार ऐसे हादसे होते हैं। फरवरी में कुंभ में 4 करोड़ लोगों ने हिस्सा लिया। सब कुछ ठीक-ठाक गुज़र गया लेकिन बाद में इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर हादसे में 36 लोग भगदड़ में मारे गए। सारे प्रबंध सही थे केवल रेलवे स्टेशन पर लापरवाही थी इसलिए हादसा हो गया। मेला या मंदिर प्रबंधन भी अपनी जिम्मेवारी नहीं निभाते।
चक्रवात से निबटने वाली व्यवस्था तथा मंदिर में हादसे के लिए जिम्मेवार व्यवस्था एक ही देश का हिस्सा है। यह एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हम प्रकृति पर जीत गए लेकिन इंसानी नालायकी का शिकार हो गए। जहां एक तरफ यह संदेश है कि अगर हम चाहें तो कुछ भी कर सकते हैं, सुनामी को भी संभाल सकते हैं और चक्रवात को भी तो दूसरी तरफ उत्तराखंड तथा रतनगढ़ मंदिर हादसे से यह संदेश है कि वही चाल बेढंगी है जो पहले थी अब भी है। इस बेढंगी चाल की कीमत 115 जानों ने चुकाई है। ऊपर से अब राजनीति हो रही है। कपिल सिब्बल का मुस्कराते कहना है कि ‘हम’ 9 लाख लोगों को संभाल गए ‘इन्होंने’ लोगों को मरवा दिया। शेम! इस दर्दनाक हादसे पर भी सिब्बल राजनीति रोटियां सेंकने का घटिया प्रयास कर रहे थे। कांग्रेस मुख्यालय में पत्रकार सम्मेलन कर मौसम विभाग की बढ़िया कारगुज़ारी का श्रेय लिया जा रहा है। बेहतर होगा राजनीति छोड़ कर इन दो घटनाओं से उचित सबक ग्रहण किया जाए ताकि भविष्य में हम फिर मानवीय आपदा का शिकार न हों।
प्रकृति से जीते मानव से हारे ,