दहशत में राजनीति
यह सौभाग्य ही कहा जाएगा कि पटना में नरेंद्र मोदी की हुंकार रैली में हुए बम विस्फोट के बाद भगदड़ नहीं मची और लोगों ने संयम के साथ नरेंद्र मोदी का भाषण सुना लेकिन यह साफ है कि 2014 के राजनीतिक अभियान ने हिंसक तथा दहशत भरा मोड़ ले लिया है। केंद्र तथा प्रादेशिक सरकार को एकदम सतर्क तथा सावधान हो जाना चाहिए। विशेष तौर पर नरेंद्र मोदी की वही एसपीजी सुरक्षा व्यवस्था होनी चाहिए जो सोनिया गांधी या राहुल गांधी की है। सब जानते हैं कि वह आतंकवादियों के निशाने पर हैं इसलिए किसी भी चूक की भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। केंद्रीय सरकार को राजनीति से ऊपर उठ कर इस मामले में सही निर्णय लेना चाहिए। बिहार सरकार की असफलता पूर्ण है। कई महीनों से मालूम था कि नरेंद्र मोदी की रैली होनी है। यह भी मालूम था कि आतंकवादी मोदी को निशाना बना कर देश में अफरातफरी फैलाना चाहते हैं लेकिन आदत के मुताबिक नीतीश कुमार की सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। पहले कहा गया कि खुफिया विभाग से कोई चेतावनी नहीं मिली थी। क्या सामान्य पुलिस कामकाज के लिए आपको खुफिया चेतावनी चाहिए? इंडियन मुजाहिद्दीन का जो एक लड़का सौभाग्यवश भागता पकड़ा गया है उसने कबूल किया है कि उन्होंने पटना के गांधी मैदान के चारों तरफ 11 बम लगाए थे। लेकिन पुलिस को पता नहीं चला? ऐसा ही आतंकी बोध गया में कर गए थे तब भी बिहार की व्यवस्था सोई रही। यह मालूम था कि पटना में लाखों लोग इकट्ठे होंगे पर मूलभूत प्रबंध, तलाशी तथा मैदान की छानबीन नहीं की गई। पर्याप्त पुलिसकर्मी नहीं थे। न रेलवे स्टेशन और न ही अस्पतालों में ही एमरजैंसी प्रबंध किया गया। दर्जनों घायल ज़मीन पर पड़े हुए थे। आसपास कोई एम्बूलैंस नहीं थी। साईकल पर कई लोगों को हस्पताल लाया गया।
अब तो यह भी साफ हो गया है कि रवैया लापरवाही वाला ही नहीं था, बल्कि आपराधिक लापरवाही वाला था। पटना रैली से सिर्फ चार दिन पहले आईबी ने बिहार सरकार को चौकस किया था, ‘नरेंद्र मोदी को क्योंकि हिन्दुओं का नेता देखा जा रहा है इसलिए उग्रवादी मुस्लिम गुट उन्हें नापसंद करते हैं और उन्मादग्रस्त उन्हें निशाना बना सकते हैं।’ पर क्योंकि नीतीश कुमार को नरेंद्र मोदी की शक्ल पसंद नहीं इसलिए उनकी रैली का उचित प्रबंध नहीं किया गया। नीतीश तो राजनीतिक विरोध को दुश्मनी के स्तर पर ले आए हैं। पहले राष्ट्रपति को बुला कर मोदी की रैली रद्द करवाने का बचकाना प्रयास किया और जब राष्ट्रपति ने खुद को इस पचड़े से निकाल लिया तो रैली के प्रबंध में लापरवाही की गई। निश्चित तौर पर नीतीश कुमार को बहुत सवालों के जवाब देने हैं। दूसरा, मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति के कारण बिहार के अंदर सुरक्षा व्यवस्था को कमज़ोर कर दिया। नीतीश का शायद मानना है कि अगर वे सख्ती करेंगे तो मुसलमान नाराज़ हो जाएंगे इसलिए बिहार को घरेलू आतंकवादियों का शरण स्थल बनने दिया। पूर्व गृह सचिव आर के सिंह ने भी कहा है कि आतंकवाद से जुड़े मामलों में बिहार सरकार से निबटने में उन्हें दिक्कत आती थी और नीतीश कुमार सरकार ने दरभंगा और मधुबनी मॉडयूल के बारे जानकारी के बावजूद उनके खिलाफ कार्रवाई करने से इंकार कर दिया था। इंडियन मुजाहिद्दीन के नेता यासीन भटकल की गिरफ्तारी के मामले में भी बिहार की सरकार ने अजब असहयोग दिखाया था। भटकल को हिरासत में लेने से ही इंकार कर दिया जिस कारण गृहमंत्रालय को दिल्ली से एनआईए की टीम भेज कर उसे गिरफ्तार करना पड़ा।
और यह भी नहीं कि बिहार सरकार को मालूम नहीं कि उनका प्रदेश आतंकवादियों का ट्रांसिट प्वायंट बन चुका है। नेपाल के साथ लंबी सीमा आतंकवादियों के पारगमन का आसान रास्ता बन चुकी है। नीतीश कुमार भी तथाकथित सैक्यूलरिस्टों की उस जमात में दाखिल हो गए हैं जो समझते हैं कि घरेलू आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई से उनका सैक्यूलरिज्म खतरे में पड़ जाएगा। जिस तरह आज़मगढ़ को हाथ लगाने से ये लोग घबराते थे उसी तरह से दरभंगा को भी हाथ लगाने में बिहार सरकार कांपती है। निश्चित तौर पर नीतीश कुमार देश के प्रति जवाबदेह है कि उनकी सहानुभूति किस के साथ है? जो आतंकवाद से लड़ रहे हैं या जो आतंकवादी या उनके समर्थक हैं? वोट के कारण आतंकवाद से घटिया सांप्रदायिक राजनीति करने के अपराध का संगीन इल्ज़ाम अब उन पर लग रहा है। बिहार भर्ती के लिए सुरक्षित जगह बन गया। यह रवैया तो मुसलमानों से भी अन्याय है। क्यों समझ लिया गया कि अगर कुछ आतंकी युवकों के खिलाफ कार्रवाई होगी तो मुस्लिम समुदाय इसे पसंद नहीं करेगा? क्या जो पटना में हुआ उससे मुस्लिम समुदाय प्रसन्न है? नीतीश कुमार को राहुल गांधी के मुजफ्फरनगर दंगों वाले बयान पर मुस्लिम समुदाय की तीखी प्रतिक्रिया से उचित सबक सीखना चाहिए। राहुल गांधी ने इंदौर में जनसभा को बताया कि ‘‘खुफिया एजंसी के एक अफसर ने उन्हें बताया कि पाकिस्तान की खुफिया एजंसी के लोग 15-16 मुस्लिम लड़कों के साथ बात कर रहे हैं जिनके रिश्तेदार मुजफ्फरनगर दंगों में मारे गए।’’ यह बयान असुखद सवाल उठाता है। क्या खुफिया अफसरों का यह काम है कि वह राहुल गांधी को ब्रीफ करें? और अगर किसी ने कर भी दिया तो भी क्या राहुल को अपने विवेक का इस्तेमाल कर इसके बारे खामोश नहीं रहना चाहिए था? तीसरा, अगर आईएसआई के लोग खुलेआम मुजफ्फरनगर घूम रहे हैं तो विभिन्न सरकारें, केंद्रीय तथा प्रादेशिक, किस मर्ज़ की दवा हैं? यह कैसी व्यवस्था है जो आईएसआई के लोगों को खुला घूमने की इज़ाज़त दे रही है? केंद्रीय गृह मंत्रालय तथा उत्तरप्रदेश सरकार दोनों इस बात का प्रतिवाद कर चुके हैं कि उनके पास ऐसी कोई सूचना है। राहुल के आक्षेप से मुस्लिम नेता तथा संगठन अलग क्षुब्ध हैं। देवबंदी उलमा ने उनकी राजनीतिक समझ पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। दूसरे कह रहे हैं कि दंगा पीडि़तों को आईएसआई से जोड़ कर अनावश्यक उनकी वफादारी को संदिग्ध बनाया जा रहा है। यह संदेश दिया जा रहा है कि असुरक्षित अल्पसंख्यक खतरनाक अल्पसंख्यक हैं।
यही इस देश की असली मुसीबत है। सब कुछ पापी वोट के लिए हो रहा है। राहुल अपनी सक्रियता दिखा कर सांप्रदायिक धु्रवीकरण का प्रयास कर रहे है तो नीतीश कुमार अपनी निष्क्रियता से वहीं संदेश देने का प्रयास कर रहें हैं। धु्रवीकरण की जो शिकायत नरेंद्र मोदी के प्रति की जाती है वही प्रयास हमारे सैक्यूलर शूरवीर कर रहें हैं। लेकिन क्या मुसलमानों की भी वहीं आशाएं और आकांक्षाएं नहीं है जो बाकी लोगों की है? उन्हें विकास नहीं चाहिए, खुशहाली नहीं चाहिए उन्हें केवल मोदी विरोधी टरकाऊ भाषण चाहिए? बहरहाल पटना की घटना से सबको सबक लेना चाहिए। भाषा से नफरत नहीं टपकनी चाहिए। टीवी चैनलों को भी कुछ संयम दिखाना चाहिए। वह भी माहौल को गर्म रखते हैं। इंडियन मुजाहिद्दीन को समाप्त करना अब प्राथमिकता होनी चाहिए। राजनेताओं को विशेष तौर पर तापमान कम करना चाहिए। उन्हें सोच समझ कर कीचड़, या मुद्दे, उछालने चाहिए। यह न हो कि दहशत की राजनीति करते करते राजनीति ही दहशत में फंस जाए।
दहशत में राजनीति ,