राजनीति की आतिशबाजी
दीवाली के इन दिनों हमारी राजनीति में केवल पटाखे ही नहीं बम भी फट रहे हैं। खूब आतिशबाजी हो रही है और दुर्भाग्यवश राजनीतिक प्रदूषण भी पैदा हो रहा है। लोग सभी पक्षों की बात सुनना चाहते हैं। यह उनका अधिकार भी बनता है कि उनके सामने सब अपनी अपनी बात रखें और जनता इन को सुनने के बाद अपना फैसला दे। इब्राहिम लिंकन ने कहा था, ‘मुझे लोगों में पूरा विश्वास है। अगर उनके सामने सच्चाई रखी जाए तो वे किसी भी संकट का सामना कर सकते हैं। असली बात है कि उनके सामने तथ्य रखे जाएं।’ असली बात यही है कि उनके सामने तथ्य रखे जाएं पर यही इस देश में नहीं हो रहा। किसी भी मामले में कुछ भी बताया नहीं जाता। केवल भावनाओं में उलझाने का प्रयास हो रहा है। विशेष तौर पर कांग्रेस की त्रिमूर्ति, सोनिया-मनमोहन सिंह- राहुल गांधी, खामोश रहते हैं। राहुल ने अब जरूर बोलना शुरू किया है लेकिन अपनी ही सरकार के अध्यादेश को ‘बकवास’ कह कर उन्होंने बहस का दर्जा नहीं बढ़ाया। दिल्ली में अपने भाषण में राहुल ने अवश्य शांति, विकास तथा भाईचारे की बात कही लेकिन चुनावी माहौल में अधिक संयम की आशा नहीं की जा सकती। दुनिया भर में नेता एक दूसरे पर ताबड़तोड़ हमले करते हैं। कई बार यह अवमानना की हद को भी पार कर जाते हैं। विसंटन चर्चिल ने अपने एक विरोधी के बारे कहा था, ‘उसके पास वे सभी गुण हैं जिन्हें मैं नापसंद करता हूं और एक भी ऐसी बुराई नहीं जो मुझे अच्छी लगती हो।’ पश्चिम के देशों में विशेष तौर पर एक-दूसरे का अपमान करना सामान्य समझा जाता है। मीडिया भी इसे बहुत उछालता है लेकिन भारत अलग देश है। यहां बर्ताव में संयम की जरूरत रहती है क्योंकि लोग नेताओं के मुंह से निकले एक एक अक्षर को सुनते हैं और नीचे तक इसका प्रभाव जाता है। उनके मुंह से निकला एक वाक्य तबाही को आमंत्रित कर सकता है।
सोनिया गांधी ने एक बार नरेंद्र मोदी को ‘मौत का सौदागर’ कहा था और अपनी इस गैर जिम्मेवारी की भारी कीमत चुकाई थी। कैप्टन अमरेंद्र सिंह अपने से बड़ी आयु वाले प्रकाश सिंह बादल को ‘लम्मा पा देयांगा’ कह बदतमीज़ी कर चुके हैं। अगर लोगों को उनकी यह भाषा पसंद आती तो आज अमरेंद्र सिंह वनवास में नहीं होते। एक लोकतंत्र में स्वस्थ बहस की बहुत गुंजायश है पर अपमान अपमान को आमंत्रित करता है। अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव में दोनों बड़ी पार्टियों के नेता तीन बार बहस करते हैं जिसमें अमेरिका तथा उसके लोगों के सामने जो आर्थिक, प्रशासनिक, विदेशी या सामरिक चुनौतियां हैं उन पर खुल कर बहस होती है। और जो यह बहस जीतता है वह ही आखिर में विजेता रहता है। रिचर्ड निक्सन जॉन कैनेडी से बहस में ही हारे थे। लेकिन हमारे देश में ऐसी स्वस्थ बहस की संभावना ही नहीं है। केवल कीचड़ उछाला जाता है। कितना अच्छा होता अगर देश में चार जगह, उत्तर, दक्षिण, पूर्व तथा पश्चिम में दो प्रमुख प्रतिद्वंद्वी नरेंद्र मोदी तथा राहुल गांधी अलग-अलग विषयों पर बहस करते। लेकिन यह होगा नहीं। कपिल सिब्बल ने मोदी को बहस की चुनौती दी है, वे तो अरुण जेतली के साथ भी बहस करने को तैयार नहीं। उनका कहना है कि जब जेतली भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हो जाएंगे तब वे उनसे भी बहस कर लेंगे। पर क्या सिब्बल खुद कांग्रेस के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं? कल को अगर रविशंकर प्रसाद कहें कि वे सोनिया गांधी से बहस करना चाहते हैं तो क्या कांग्रेस इसके लिए तैयार होगी? देश के शिखर पर रहने के बावजूद सोनिया ने तो आज तक किसी पत्रकार सम्मेलन को संबोधित नहीं किया और कांग्रेस शिकायत कर रही है कि मोदी पत्रकार सम्मेलन नहीं बुलाते। प्रधानमंत्री खुद केवल हवाई जहाज़ में आते जाते ही मीडिया से मिलते हैं अन्यथा प्रैस से दूर ही रहते हैं। इसके सिवाए कि ‘मैंने कुछ गलत नहीं किया, ‘या’ मैंने कुछ नहीं छिपाया’, मनमोहन सिंह ने उनकी सरकार के इतने घोटालों के बारे कुछ नहीं बताया।
असली समस्या तब आती है जब माहौल को सांप्रदायिक तौर पर गर्म करने का प्रयास किया जाता है। देश के आगे बहुत समस्याएं हैं। महंगाई, भ्रष्टाचार, कुशासन अंदर से खोखला कर रहे हैं बाहर से चीन तथा पाकिस्तान के नापाक इरादे स्पष्ट हो रहे हैं लेकिन हम इन पर बहस नहीं कर रहे। सारी बहस, सांप्रदायिक-गैर-सांप्रदायिक पर जाकर अड़ गई है। तीसरे मोर्चे को भी सांप्रदायिक विरोधी बताया जा रहा है जबकि लोगों की समस्याएं अलग हैं। उन्हें विकास चाहिए, सड़कें, बिजली, पानी, दवाई, शिक्षा, रोजगार चाहिए लेकिन हम बहस सरदार पटेल के योगदान को लेकर कर रहे हैं। नरेंद्र मोदी को भी समझना चाहिए कि उनकी विशेषता विकास पुरुष जो बढ़िया प्रशासन देने की क्षमता रखता है की उनकी छवि है। पुरानी बातों में उलझ कर वे भविष्य का खाका प्रस्तुत नहीं कर सकते। और सबसे अधिक घबराहट है कि भावनात्मक मुद्दे उछाल कर देश का माहौल फिर खराब न हो जाए। मीडिया को भी ध्यान रखना चाहिए। वहां हो रही बहस भी माहौल को प्रदूषित कर रही है। आने वाले छ: महीने बहुत कुछ तय कर जाएंगे लेकिन जरूरी है कि राजनीतिक आतिशबाजी ऐसी हो जो प्रदूषण न बढ़ाएं। अतीत में कई बार यह चिंगारी आग भी लगा चुकी है, इसलिए सभी से अनुरोध है कि अपनी बात इस तरह से रखें कि देश का अहित न हो,
पीने वालो बहको लेकिन पैमाने पर रहम करो,
मयखाने में पैमाने की बहुत जरूरत पड़ती है!
दीवाली मुबारिक!
राजनीति की आतिशबाजी ,