एक गैर जरूरी बहस
आजकल जो बहस चल रही है कि क्या जवाहरलाल नेहरू बड़े नेता थे या सरदार पटेल को मैं बिलकुल गैर जरूरी समझता हूं। नरेन्द्र मोदी का कहना है कि अगर पटेल पहले प्रधानमंत्री होते तो देश की तस्वीर ही अलग होती। यह बात तो सही है कि नेहरू तथा पटेल की विचारधारा अलग-अलग थी लेकिन क्या होता, क्या न होता, इसके बारे क्या कहा जा सकता है? पटेल का देहांत दिसम्बर 1950 में हो गया था। अर्थात् आजादी मिलने के कुछ ही वर्ष बाद 63 साल पहले वे चल बसे। लेकिन आजादी के लिए संघर्ष तथा उसके बाद देश को संभालने के लिए उनका योगदान इतना था कि लोग आज भी उन्हें याद रखते हैं। जवाहरलालजी ने खुद उन्हें ‘आज़ादी की लड़ाई का कप्तान कहा था।’ वे सचमुच लोहपुरुष थे।
चाहे इस वक्त बहस पटेल बनाम नेहरू बनाई जा रही है लेकिन कई मामलों में तीखे मतभेदों के बावजूद दोनों एक दूसरे का बहुत आदर करते थे और एक दूसरे के प्रति अनुराग भी था। फरवरी 1948 में जवाहरलालजी ने पटेल को लिखा था, ‘हमारे दोनों के बारे जो अफवाहें उड़ाई जा रही हैं उनसे मैं बहुत आहत हूं… हमें इस शरारत को खत्म करना चाहिए।’ याद रखना चाहिए कि 29 अप्रैल 1946 को कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव में 15 में से 12 कांग्रेस कमेटियां जवाहरलाल नेहरू की बजाय सरदार पटेल को अध्यक्ष बनाना चाहती थी लेकिन गांधी जी नेहरू को भावी नेता चाहते थे इसलिए बिना किसी कड़वाहट के पटेल ने अपना नाम वापिस ले लिया था। सी. राजागोपालाचारी ने भी लिखा था कि नेहरू को विदेश मंत्री तथा पटेल को प्रधानमंत्री बनना चाहिए था लेकिन पटेल ने महात्मा जी का आदेश माना। आजकल गांधी परिवार अपनी कुर्बानी की बहुत चर्चा करता है पर असली ‘कुर्बानी’ तो पटेल की थी कि देश हित में उन्होंने प्रधानमंत्री के पद से अपना दावा वापिस ले लिया था।
सरदार पटेल का देहांत 75 वर्ष की आयु में हुआ था इसके बावजूद देश में यह भावना है कि वे जल्दी चले गए। जब भी देश में कोई संकट की स्थिति उत्पन्न होती है तो यह सवाल स्वाभाविक उठता है कि अगर पटेल जीवित होते तो क्या हालत होती? उनमें दमदार नेतृत्व देने की वह क्षमता थी जो आजकल के नेताओं में गायब है। उनमें वास्तविकता पहचानने की स्वस्थ योग्यता भी थी जो दुर्भाग्यवश नेहरूजी में नहीं थी। 1962 में चीन के हाथों पराजित होने के बाद नेहरू ने खुद स्वीकार किया था कि वे अवास्तविक दुनिया में रह रहे थे। पटेल में ऐसे कोई नखरे नहीं थे। एक बार वे तय कर लेते तो वे अडिग थे। नेहरू महान् स्टेटसमैन तथा उदारवादी थे इसीलिए दुनिया में उनकी इतनी प्रसिद्धि थी लेकिन कई बार वे हकीकत से कट जाते थे जिसकी देश को कीमत चुकानी पड़ती थी। रियासतों को भारत संघ में शामिल करने में पटेल का योगदान सभी स्वीकार करते हैं। विशेषतौर अगर केन्द्रीय सरकार हैदराबाद में दखल न देती तो आज हैदराबाद भी कश्मीर की तरह सरदर्द बन गया होता। उल्लेखनीय है कि एक ही रियासत का मामला जवाहरलाल नेहरू पर छोड़ा गया था क्योंकि कश्मीर के प्रति उनका विशेष लगाव था, और यही कश्मीर का मसला आज तक सुलझा नहीं। सर आर्चीबालड नयी ने एलन कैम्पबेल-जॉनसन से कहा था कि उन्होंने सोचा था कि इस मामले में बेहद तकलीफ आएगी और उन्हें हैरानी नहीं होगी कि अगर इसे पूरा करने में एक पूरी पीढ़ी लग जाए लेकिन इसे मई 1948 तक पूरा कर लिया गया। देश को एक ईकाई में बांधना पटेल का इतना बड़ा योगदान है कि अगर उनकी और कोई उपलब्धि न भी गिनी जाए तब भी उनकी यह हिम्मत उन्हें आजाद भारत के इतिहास में अमर बना देती है। इसीलिए बहुत तकलीफ होती है जब पटेल के योगदान को कम आंकने का प्रयास किया जाता है। क्योंकि अधिकतर सत्ता एक ही परिवार के हाथ रही है इसलिए देश को यही प्रभाव दिया जाता है कि जिसके नाम के पीछे नेहरू या गांधी नहीं है उसका आजादी दिलवाने तथा आधुनिक भारत के निर्माण में कोई योगदान नहीं है।
पटेल के प्रति उनके वंशजों ने जो तुच्छ रवैया अपनाया उसका नेहरू में लेशमात्र भी नहीं था क्योंकि नेहरू ऐसे घटियापन से बहुत ऊपर थे। उन्होंने सदैव पटेल को बराबर समझा। दोनों में भारी भिन्नता थी लेकिन दोनों एक दूसरे के पूरक भी थे। नेहरू के उच्च आदर्शवाद और पटेल के स्वस्थ यथार्थवाद में समन्वय था। दिलचस्प है कि दोनों बड़े नेता अपने मतभेद महात्माजी के पास ले जाते थे ठीक जिस तरह दो झगड़ते स्कूली छात्र अध्यापक तक शिकायत लेकर जाते हैं और उनके निर्णय के बाद खामोश भी हो जाते थे। एक समय यह भी आया जब दोनों अपने-अपने पद से हटना चाहते थे पर साथ यह भी कहा था कि दूसरा अपनी जगह बना रहे लेकिन महात्माजी के कहने पर दोनों बने रहे। गांधीजी की हत्या, जो दोनों को भावनात्मक तौर पर तबाह कर गई थी, के बाद नेहरू और पटेल दोनों समझ गए कि देश को उनकी जरूरत है इसलिए सब मतभेद एक तरफ रख मिलकर काम करने का संकल्प लिया था। नेहरू ने फरवरी 1948 में पटेल को पत्र लिखा था, ‘‘बापू की हत्या से उत्पन्न इस संकट में मैं समझता हूं कि यह मेरा कर्त्तव्य है और आपका भी, कि हम इसका मुकाबला दोस्तों तथा साथियों की तरह करें।’’ पटेल ने दो दिन के बाद जवाब दिया था, ‘‘देश का हित तथा हमारा आपसी स्नेह तथा सम्मान जो हमारी भिन्नता तथा मतभेदों से ऊपर है, ने हमें इकट्ठे रखा है… अपने शोकग्रस्त देश के हित में है कि हम मिलकर काम करें।’’ गांधीजी की हत्या के बाद संविधान सभा में पटेल ने पहली बार नेहरू को ‘मेरा नेता’ कहा था।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कहना है कि उन्हें गर्व है कि वह भी उस पार्टी से जुड़े हैं जिससे पटेल जुड़े थे और वे पक्के कांग्रेसी थे। यह ‘कांग्रेसी’ वाला दावा ही समस्या की जड़ है। क्या सरदार पटेल या जवाहरलाल नेहरू को आज के संदर्भ में कांग्रेसी कहा जा सकता है? क्या डा. मनमोहन सिंह की इस कांग्रेस का उस आदर्शवादी संस्था तथा उस उच्च नेतृत्व से कोई रिश्ता भी है जिसने देश को आजादी दिलवाई और सही परम्पराएं कायम की? इस संदर्भ में गांधी जी का सुझाव याद आता है कि कांग्रेस को ‘डिसबैंड’ कर दो। जवाहरलाल नेहरू के योगदान को भी कैसे नकारा जा सकता है? यह सही है कि वे पश्चिमी उदारवाद से बहुत प्रभावित थे। कश्मीर में उन्होंने गलती की और चीन के बारे उनका आंकलन महंगा साबित हुआ लेकिन जवाहरलाल नेहरू ने आधुनिक भारत की नींव रखी। उन्होंने लोकतंत्र को मजबूत किया और ऐसी संस्थाएं और परम्पराएं कायम की जो आज तक हमारा मार्गदर्शन कर रही हैं। अगर हम अपनी तुलना पाकिस्तान से करें तो स्पष्ट हो जाता है कि किस तरह हमारे सही नेतृत्व ने विभाजन की त्रासदी से देश को उबारा और सही दिशा पर चलाया। जवाहरलाल नेहरू तथा सरदार पटेल दोनों ने मिलकर काम किया था लेकिन क्योंकि पटेल दिसम्बर 1950 में चल बसे थे इसलिए देश को संभालने की जिम्मेदारी केवल नेहरू के कंधों पर थी। उन्होंने स्वीकार भी किया था कि वे अकेला महसूस करते हैं क्योंकि कोई उनका भार बांटने वाला नहीं है।
नेहरू तथा पटेल एक दूसरे से शालीनता के साथ असहमत होते थे और शालीनता के साथ ही मिलकर काम करते थे। इसलिए पटेल तथा नेहरू की भूमिका तथा योगदान को लेकर जो बहस चल रही है इसे मैं अनावश्यक और अशोभनीय समझता हूं। विषय नेहरू या पटेल नहीं हैं क्योंकि देश के नवनिर्माण की नींव रखने वाले नेहरू तथा पटेल दोनों थे। एक को उठाने के लिए दूसरे को गिराने की जरूरत नहीं।
एक गैर जरूरी बहस,
Touching………. I have seen documentary movies on Patel and Nehru and listened and read so much about Patel and Nehru relationships ..but it seems through this informative article that so much still needed to be explored…………….
Tragedy is that after 66 years of independence we could not have strong leader like Patel………….
There may certainly have been some differences between the two stalwarts; however, it will be nothing short of trivialisation if we blindly adhere to the theory of single dimensional antagonistic relationship that Patel and Nehru shared, as is being proclaimed by some parties.
It is in this context an appreciation article that Sardar Patel wrote on October 14, 1949, a month before Nehru’s 60th birthday for Abhinandan Granth, where he heaped praises on Nehru’s merits and also went on to elaborate the deep ties he shared with him.
Excerpts from the article:
“Jawaharlal and I have been fellow-members of the Congress, soldiers in the struggle for freedom, colleagues in the Congress Working Committee, and other bodies of the Congress, devoted followers of the Great Master who has unhappily left us to battle with grave problems without his guidance, and co-sharers in the great and onerous burden of administration of this vast country. Having known each other in such intimate and varied fields of activity we have naturally grown fond of each other; our mutual affection has increased as years have advanced, and its is difficult for people to imagine how much we miss each other when we are apart and unable to take counsel together in order to resolve our problems and difficulties.
…Gifted with an idealism of high order, a devotee of beauty and art in life, and equipped with an infinite capacity to magnetize and inspire others and a personality which would be remarkable in any gathering of world’s foremost men, Jawaharlal has gone from strength to strength as a political leader.
…It was, therefore, in the fitness of things that in the twilight preceding the dawn of independence he should have been our leading light, and that when India was faced with crises after crises, following the achievement of our freedom, he should have been the upholder of our faith and the leader of our legions. No one knows better than myself how much he has laboured for his country in the last two years of our difficult existence. I’ve seen him age quickly during that period, on account of the worries of the high office that he holds and the tremendous responsibilities that he wields.
…As one older in years, it has been my privilege to tender advice to him on the manifold problems with which we have been faced in both administrative and organizational fields. I have always found him willing to seek and ready to take it. Contrary to the impression created by some interested persons and eagerly accepted in credulous circles, we have worked together as lifelong friends and colleagues, adjusting ourselves each other’s advice as only those who have confidence in each other can.
…It is obviously impossible to do justice to his great and pre-eminent personality in these few condensed words. The versatility of his character and attainment at once defy delineation. His thoughts have sometime a depth which it is not easy to fathom, but underlying them to all is a transparent sincerity and a robustness of youth which endear him to everyone without distinction of caste and creed, race or religion”.