चाय वाले से बच कर रहो!
चुनाव का मौसम है। इस दौरान नेताओं को कुछ आज़ादी तो है पर एक-दूसरे पर हमला करते वक्त वे जरूरत से अधिक असावधान हो रहे हैं। ‘खूनी पंजे’ के कारण नरेंद्र मोदी चुनाव आयोग को जवाबदेह बन गए हैं। कांग्रेस के शकील अहमद ने मोदी को इंसान के रुप में जानवर कहा है। सबसे दुर्भाग्यपूर्ण समाजवादी पार्टी के नेता नरेश अग्रवाल की टिप्पणी है कि ‘चाय बेचने वाले का नज़रिया राष्ट्रीय स्तर का नहीं हो सकता ठीक वैसे ही जैसे एक सिपाही को कप्तान बना दिया जाए तो उसका नज़रिया कप्तान का नहीं हो सकता।’ यह एक टिप्पणी देश के सभी होनहार गरीबों का अपमान है जो उच्चाकांक्षी हैं। नरेश अग्रवाल तो कह रहे हैं कि ऐसे लोग किसी भी उच्च पद के हकदार हो ही नहीं सकते। अर्थात् जहां वे फंसे हुए हैं वहां ही इन्हें फंसे रहना चाहिए ऊपर उठने का प्रयास निरर्थक है, फिज़ूल है। नरेंद्र मोदी ने कभी भी अपना अतीत नहीं छिपाया। उन्होंने माना कि उनके पिता का टी स्टाल था और वे खुद भाग- भाग कर रेलयात्रियों को चाय पिलाते थे। ऐसे ही एक और नेता मुझे याद आते हैं। स्वर्गीय राजेश पायलेट बचपन में दिल्ली की सरकारी कोठियों में दूध बेचते थे और एक दिन अपनी मेहनत, ईमानदारी तथा प्रतिभा के बल पर जब वे मंत्री बने तो वे इन्हीं में से एक कोठी में रहने लगे थे। मोदी की तरह उन्होंने भी कभी यह नहीं छिपाया कि उनका जन्म रईस परिवार में नहीं हुआ था। नरेंद्र मोदी या राजेश पायलेट की ज़िंदगी हमारे लोकतंत्र की जीत का जश्न है, मज़ाक का पात्र नहीं। यहां असंख्य ऐसे उदाहरण हैं जहां गरीब परिवार के बच्चों ने अपनी मेहनत से उन्नति की है। एक रिक्शा चालक का बच्चा जिलाधीश बन चुका है। जालन्धर के कन्या महाविद्यालय के एक सेवादार की लड़की चार्टड अकांऊटैंट बन चुकी है। नरेश अग्रवाल, क्या ऐसे लोगों को ऊपर तक पहुंचने का अधिकार नहीं है?
नरेंद्र मोदी की जीवनी पढ़ो तो मालूम होता है कि उन्होंने किस तरह अपनी मेहनत, प्रतिभा, सोच तथा ईमानदारी के बल पर संघर्ष कर सार्वजनिक जीवन में अपनी जगह बनाई है। और नरेश अग्रवाल का संबंध तो समाजवादी पार्टी से है। यह खाक उनका ‘समाजवाद’ है कि आपको एक ‘चायवाले’ की तरक्की पर आपत्ति हो रही है? हमारे देश में लालबहादुर शास्त्री की भी मिसाल है। शास्त्री जी के भी एक आर्थिक तौर पर कमज़ोर परिवार से संबंध थे। जब ताशकंद जाना था तो वहां की सर्दी का सामना करने के लिए उनके पास ओवर कोट नहीं था। देश का प्रधानमंत्री मांग कर ओवर कोट लेकर गया था। जब अचानक वहां उनकी मौत हो गई तो कार खरीदने के लिए बैंक का ऋण अभी वापिस करना था। इसे अदा करने के लिए ललितजी को कार बेचनी पड़ी। ऐसे लोग हैं जो देश के लिए मिसाल हैं। अमेरिका में भी ऐसी कई मिसाले हैं। वहां सभी का जन्म रईस कैनेडी परिवार में नहीं हुआ। बराक ओबामा की मिसाल है जो अश्वेत तथा कमजोर परिवार से संबंधित होने के बावजूद दुनिया के सबसे ताकतवार व्यक्ति बनने में सफल रहे।
कल को क्या होता है कहा नहीं जा सकता पर अगर नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने में सफल रहते हैं तो वे कह सकेंगे कि,
अपना ज़माना आप बनाते हैं अहले दिन,
हम वह नहीं जिसे ज़माना बना गया!
नरेंद्र मोदी तथा राहुल गांधी में असमानता स्पष्ट है। राहुल का जन्म अंग्रेजी के मुहावरे के अनुसार ‘मुंह में चांदी के चमच’ के साथ हुआ था। इसलिए उन्हें अनुभव प्राप्त करने के लिए रेल के सामान्य डिब्बे में सफर करना पड़ा, दलित की कुटिया में रात गुज़ारनी पड़ी, कलावती का ज़िक्र करना पड़ा। मोदी को इन सब के बारे जानकारी प्राप्त करने की जरूरत नहीं क्योंकि उन्होंने सब देखा और अनुभव किया हुआ है। इसलिए वे झट लोगों से रिश्ता बना लेते हैं जबकि राहुल आज तक सार्वजनिक जगह असहज नज़र आते हैं। रेलयात्रियों को चाय पिलाने वाले व्यक्ति को मालूम है कि सामान्य डिब्बा कैसा होता है अपनी एसपीजी से घिरे उसे उसमें सफर कर अनुभव लाने की जरूरत नहीं। भाषा तथा शैली में भी अंतर स्पष्ट है। राहुल अभी तक अपने परिवार की कुर्बानी तथा योगदान का ही ज़िक्र करते रहे हैं जिसे लेकर जनता अब उब चुकी है। वे यह प्रभाव दे रहे हैं कि उन्हें वोट इसलिए मिलना चाहिए क्योंकि परिवार का देश पर बहुत कर्ज़ा है, बहुत मेहरबानियां है इसीलिए बार-बार वे तथा सोनिया गांधी कह रहे हैं कि ‘हमने दिल्ली से पैसा भेजा।’ प्रियंका वाड्रा जो न सांसद हैं न कोई पद है भी ऐसे उपकार का ज़िक्र करना नहीं भूलती। इसी पर नरेंद्र मोदी का कटाक्ष मज़ेदार है। सोनिया गांधी द्वारा छत्तीसगढ़ को केंद्रीय फंड दिए जाने का जवाब देते हुए मोदी का कटाक्ष था, ‘क्या आप अपने मामा के घर से लाकर दे रहे हो?’ कुछ लोगों को यह टिप्पणी पसंद नहीं आई पर यह वह भाषा है जो लोग समझते हैं। जो आपका है नहीं वह हमें दे कर आप कैसी मेहरबानी जता रहे हो? लोगों का पैसा लोगों में बांटा जा रहा है बीच में आप मिडलमैन या मिडलवोमन कैसे टपक गए? निश्चित तौर पर भविष्य में ये लोग अब सोच समझ कर ऐसे दावे करेंगे। चाय वाले ने इन्हें चुप्प करवा दिया! इसलिए नरेश अग्रवाल जैसे जो आपत्ति कर रहे हैं उनसे मुझे कहना है कि आप ‘चायवाले’ से बच कर रहो। कभी वह चाय पिलाता था। आज वह गर्मा-गर्म चाय ऊपर भी गिरा देता है!
चाय वाले से बच कर रहो!,
बहुत सुंदर और सारगर्भित आलेख। आपका ब्लाग देखकर अच्छा लगा। साथ ही यह याद आया कि मैं तब जालंधर अमर उजाला में शिक्षा संवाददाता हुआ करता था. मैंने अमर उजाला में कालम लिखने के लिए आपके संपर्क किया था। बाद में वहां आपने लंबे समय तक लिखा भी।
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