एक विवादास्पद और अनावश्यक कवायद
सरकार ने विवादास्पद सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम विधेयक में कुछ फेरबदल करने का फैसला किया है। पहले हिंसा के लिए बहुसंख्यकों को जिम्मेवार ठहराए जाने का प्रावधान था अब यह विधेयक विभिन्न सांप्रदायिकों, समूहों या समुदाय के बीच तटस्थ रहेगा। इससे पहले विधेयक में स्पष्ट उल्लेख था कि दंगों का दायित्व बहुसंख्यक समुदाय पर होगा। अर्थात् कहीं भी दंगा होगा तो इसके लिए हिन्दू समुदाय को ही जिम्मेवार ठहराया जाना था। इसी से इस सरकार की घटिया और संकीर्ण मानसिकता स्पष्ट होती है। चुनाव से पहले प्रयास सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का था जो उलटा पड़ गया है। कानून का सिद्धांत है कि इसके आगे सब बराबर हैं। इस विधेयक के मूल प्रावधानों में इस सिद्धांत का शीर्षासन किया गया था। खैर अब भाजपा तथा जयललिता तथा ममता बनर्जी के विरोध के बाद इसमें कई बदलाव किए जा रहे हैं। हैरानी है कि चुनाव से ठीक पहले इस हताश सरकार को वह विधेयक याद आ रहा है जिसे नरेंद्र मोदी ने सही ‘विनाश का नुस्खा’ बताया है। टाईमिंग ही शंका उत्पन्न करती है। सरकार को भी मालूम है कि इस माहौल में इसे वह पारित नहीं करवा सकती। कई प्रादेशिक पार्टियां इसका विरोध कर रही हैं क्योंकि वे मानती हैं कि यह संघीय ढांचे पर प्रहार है और उनके अधिकारों का अतिक्रमण है फिर भी हड़बड़ी में इसे लाने का अधपका प्रयास किया जा रहा है। अगर पारित हो गया तो कांग्रेस मुसलमानों में नम्बर बनाने का प्रयास करेगी, अगर नहीं हुआ तो भाजपा को इसके लिए दोषी ठहरा दिया जाएगा। लेकिन कांग्रेस का नेतृत्व क्यों समझता नहीं कि देश अब इन तमाशों से प्रभावित नहीं होता। मुसलमान भी नहीं होते। मुसलमान भी जानते हैं कि यह सब दिखावे का प्रयास है, निकलेगा कुछ नहीं। केवल चुनाव से पहले वोट बटोरने का प्रयास है इसलिए वे भी झांसे में नहीं आ रहे। मुजफ्फरनगर के दंगा पीड़ित इस वक्त बुरी हालत में हैं। सर्दी तथा मैडिकल सेवा के अभाव में 40 बच्चे मर चुके हैं। 70-80 बच्चे नमोनिया से पीड़ित हैं। जो लोग राहत शिविर में बचे हैं उनके पास तो इस सर्दी में कंबल भी नहीं हैं। उनकी सही मदद कोई करने को तैयार नहीं। न प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार और न ही केंद्र की यूपीए सरकार लेकिन नया सब्ज़बाग दिखाया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि दोनों बहुत ‘सैक्यूलर’ सरकारें हैं।
सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए पहले ही कई कानून हैं और कानून की जरूरत क्या है, विशेष तौर पर ऐसा कानून जो देश के अंदर सांप्रदायिक स्थिति और बिगाड़ने की क्षमता रखता हो? असली समस्या है कि आईपीसी (भारतीय दंड संहिता) में जो कानून है उन्हें सही तरीके से लागू नहीं किया जाता। राजनीति के कारण प्रशासन से छेड़छाड़ की जाती है जिसकी मिसाल मुजफ्फरनगर के दंगे हैं। राजनीतिक नेतृत्व ने इन्हें रोकने का प्रयास ही नहीं किया। ऐसी स्थिति में नया कानून क्या कर लेगा? असली जरूरत तो शरारती तत्वों से सख्ती से निबटने के संकल्प की है ताकि दंगे हों ही नहीं। यह संकल्प यहां गायब है। देश में सबसे अधिक दंगे महाराष्ट्र में होते हैं जहां कांग्रेस की सरकारें रही हैं। वहां सरकारें इन्हें रोकने में सफल क्यों नहीं रहीं? क्या इस प्रकार का कानून पहले वहां नहीं बनना चाहिए था? नए कानून में दंगों की जिम्मेवारी अफसरशाही पर डाली जाएगी। मातहत की गलती के लिए वरिष्ठ अफसर जिम्मेवार होगा जबकि अफसरशाही आग नहीं लगाती। आग राजनीतिक नेतृत्व अपने स्वार्थ के लिए लगवाता है। उत्तर प्रदेश में दुर्गा शक्ति का मामला है जिसे केवल इसलिए प्रताड़ित किया गया क्योंकि वह अपनी जिम्मेवारी निभाने का प्रयास कर रही थी। जहां ऐसा राजनीतिक नेतृत्व हो वहां आप ऐसे दस कानून बना लो कुछ अंतर नहीं पड़ेगा। राजनीतिक नेता विभिन्न समुदायों के बीच तनाव रखते हैं ताकि इनका उन्हें फायदा हो सके। कानून इनके नापाक इरादों के आगे बेबस हो जाता है।
सरकार चाहती थी कि सांप्रदायिक हिंसा के लिए हिन्दुओं को जिम्मेवार ठहराया जाए पर उस वक्त क्या स्थिति होगी जब टकराव दो अल्पसंख्यक समुदायों के बीच होगा? मिसाल के तौर पर उत्तर प्रदेश में शिया-सुन्नी टकराव रहता है। असम में बोडो तथा मुसलमानों में हिंसक टकराव हो चुका है। कुछ जगह ईसाईयों तथा मुसलमानों के बीच हिंसा हो चुकी है। ऐसी स्थिति में प्रस्ताविक कानून किस के खिलाफ कार्रवाई करेगा? अर्थात् मामला बहुत उलझा हुआ है आसानी से इसका समाधान नहीं निकलेगा। उलटा ऐसी अनाड़ी छेड़छाड़ से सांप्रदायिक तनाव घटने की जगह बढ़ सकता है। न ही इस सरकार के पास इस बात का जनादेश है कि वह संविधान की मूल भावना से खिलवाड़ करे। न ही केंद्र में यूपीए सरकार की इस जर्जर हालत में ऐसे किसी विधेयक के पारित होने की ही संभावना है। फिर अनावश्यक विवाद और तनाव क्यों खड़ा किया जा रहा है? अगर आप कुछ सही नहीं कर सकते तो कुछ बिगाड़ों तो नहीं।
एक विवादास्पद और अनावश्यक कवायद,