अविश्वास मत पारित
ए खाक नशीनो उठ बैठो वह वक्त करीब है आ पहुंचा,
जब तख्त गिराए जाएंगे जब ताज़ उछाले जाएंगे!
हवा का रुख 17 नवम्बर को दिल्ली के दक्षिणपुरी विधानसभा क्षेत्र से मिल गया था। जैसे ही राहुल गांधी बोलने के लिये उठे लोगों ने बाहर निकलना शुरू कर दिया। उसके बाद से राहुल गांधी तथा सोनिया गांधी दिल्ली के चुनाव अभियान से लगभग लापता रहे। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को मैदान में उतारा ही नहीं गया। इन लोगों ने समझा था कि वे कुछ भी करते जाएं लोग बर्दाश्त करते जाएंगे। लोगों को बताते रहे कि ‘हमने’ दिल्ली से पैसा भेजा था पर नरेन्द्र मोदी के कटाक्ष कि ‘पैसा आपके मामा का था?’ ने लोगों की भावना को प्रकट कर दिया। हकीकत है कि यह देश अब गांधी-बादशाही से तंग आ गया है। मैंने लिखा था कि देश गांधी-थकावट से ग्रस्त है। ये परिणाम यही बताते हैं। बहुत हो चुका। आपने बहुत मेहरबानी कर दी लेकिन अब जनता परिवर्तन चाहती है। नये परीक्षण चाहती है। नई राजनीतिक-संस्कृति चाहती है। भ्रष्टाचार, अल्पसंख्यकवाद, बाहुबल का प्रयोग अब नहीं चलेंगे। लोग राजनीति में आदर्श की वापसी चाहते हैं। एक साफ सुथरा प्रशासन चाहते हैं। नही चाहते कि दिल्ली की केन्द्रीय तथा प्रादेशिक सरकार की नाक के नीचे राष्ट्रमंडल खेलों जैसे घोटाले हों। इनके कारण शीला दीक्षित की बलि ले ली गई। इन चुनावों में कांग्रेस की जो दुर्गत हुई है उसकी जिम्मेवारी से राहुल गांधी नहीं बच सकते। सारा अभियान उनकी देखरेख तथा अगुवाई में चलाया गया। उन्हें इस पराजय से अलग नहीं किया जा सकता।
हिमाचल प्रदेश तथा उत्तराखंड को छोड़ कर कांग्रेस के लिये लगातार बुरी खबर है। उत्तरप्रदेश तथा बिहार में राहुल गांधी ने आगे आकर चुनाव लड़े थे। तब से पराजय का सिलसिला थम नहीं रहा। आपके परिवार की कुर्बानियों में अब किसी की दिलचस्पी नहीं रही। और कुछ बताने को है नहीं। बहुत सार्थक प्रश्न है कि अब तक राहुल गांधी ने कांग्रेस का क्या संवारा है? न संसद में योगदान है, न एक भी चुनावी उपलब्धि है। गज़ब है कि फिर भी नेता हैं।
इतिहासकार रामचन्द्र गुहा का तो मानना है कि राहुल गांधी गलत व्यवसाय में हैं। यह तो साफ ही है कि उनके और सोनिया गांधी के नेतृत्व में यह सबसे पुरानी पार्टी का क्षय हो रहा है। उत्तर प्रदेश में वह 30 वर्ष से सत्ता से बाहर है। मध्य प्रदेश में 15, गुजरात में 20, बिहार में 25 साल से बाहर है। अब राजस्थान, दिल्ली तथा छत्तीसगढ़ भी हाथ से गये। लोग बहुत जागरूक हो गये। कैसे सोच लिया था कि राबर्ट वाड्रा के जमीनी मामलों को लोग नापसन्द नहीं करेंगे? यूपीए-II के समय जितने भी घपले हुये हैं उनके बारे सच चाहे बाहर नहीं आया पर लोग तो सच को जानते हैं, समझते हैं। और लोग जानते हैं कि इस महाभ्रष्ट यूपीए का नेतृत्व सोनिया गांधी करती हैं। इसकी आंच अब सोनिया गांधी तक पहुंच रही हैं। अगर पार्टी जल्द न संभली तो नरेन्द्र मोदी की ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की भविष्यवाणी सफल हो जाएगी। पर कांग्रेस संभलेगी कैसे? कौन संभालेगा?
कांग्रेस का प्रदर्शन 1977 से भी बुरा था। याद रखना चाहिये कि वह चुनाव एमरजेंसी के बाद करवाया गया था। राजनीति फैमिली बिजनैस की तरह नहीं चल सकती। लोगों की आकाक्षाएं बढ़ गई हैं। नया भारत सवाल पूछ रहा है। आम आदमी पार्टी ने भी खेल के नियम बदल दिए हैं। जो युवा हैं उन्हें नरेन्द्र मोदी की आक्रामकता पसन्द है। उन्हें अरविन्द केजरीवाल का झाड़ू पसन्द है। केन्द्र में नेतृत्व का शून्य नजर आता है। लोगों में एक आक्रामक और दृढ़ नेतृत्व के लिये भूख नजर आती है। ऊंची दीवारों के पीछे छिपी बादशाही की अब इस लोकतंत्र में जगह नहीं रही। इतना कुछ इस देश में हो गया है पर बादशाही इस घमंड में बैठी रही कि हमें कोई जवाब देने की जरूरत नहीं। लोगों के साथ संवाद पैदा करने की जरूरत नहीं। अब जनता ने ही जवाब दे दिया।
कांग्रेस पार्टी को एक लडख़ड़ाती, भ्रष्ट तथा अक्षम व्यवस्था का प्रतिनिधि समझा जाता है। देश में कुछ नया, कुछ ताज़ा उबर रहा है। समाचार छपा है कि राहुल गांधी हिमाचल सरकार तथा वहां कांग्रेस पार्टी के काम का रिव्यू करेंगे। सवाल उठता है कि खुद राहुल गांधी के काम का ‘रिव्यू’ कौन करेगा? इस तरह तो 2014 के चुनाव में कांग्रेस के लिए 100 का आंकड़ा छूना भी मुश्किल हो जाएगा। समझ लेना चाहिए कि वोटर अब खरीदा नहीं जा सकता। लोग अधीर हैं और समझते हैं कि अच्छी सरकार पर उनका अधिकार है। कांग्रेस के लिए बुरी खबर है उनके सब झांसों के बावजूद मुसलमान भी उनके पक्ष में नहीं गए। क्यों समझ लिया गया कि मोदी आ जाएगा, मोदी आ जाएगा, कह कर वह मुस्लिम वोटर को भयभीत करते रहेंगे और उन्हें अच्छी साफ-सुथरी सरकार नहीं चाहिए? अरविंद केजरीवाल तथा उनकी पार्टी को पहली बार में ही जो जनसमर्थन मिला है वह बताता है कि वोटर अब और बेवकूफ बनने को तैयार नहीं। उसे खैरात नहीं चाहिए, उसे सही साफ सरकार चाहिए। अगर सही साफ सरकार मिल जाएगी तो सब समस्याएं खुद हल हो जाएगी।
यह दिल्ली की वीआईपी कल्चर के खिलाफ भी लोगों की नाराज़गी है जहां बड़े लोग अपनी बड़ी कोठियों में गार्डों से घिरे रहते हैं और शहर महिलाओं के लिए असुरक्षित बन गया है। आप को मिला समर्थन न केवल कांग्रेस बल्कि भाजपा को भी सोचने पर मजबूर करेगा कि शहरी मतदाता अब मुखर हो रहा है। बिना किसी संगठन के आप ने दिल्ली का किला जड़ से हिला दिया। मिॅडल क्लास से लेकर बस्तियों में रहने वालों सबने केजरीवाल को समर्थन दिया। लोग बता रहे हैं कि अगर बड़ी पार्टियां उनकी आकांक्षाओं के प्रति लापरवाह रहेंगी तो लोग अपना विकल्प खुद ढूंढ लेंगे। इस देश में ऐसे लोग भरे हैं जिनके लिए हर दिन भारी है। जिंदगी से पिटे भारतवासी की आस है आप।
इन चुनावों में नरेंद्र मोदी का कितना प्रभाव हुआ? नरेंद्र मोदी का सबसे बड़ा योगदान रहा है कि उन्होंने वह माहौल तैयार किया जिसमें कांग्रेस को पराजित किया जा सका। जिस वक्त स्थिति स्पष्ट नहीं थी नेतृत्व संभालने का उन्होंने जोखिम उठाया। कांग्रेस तथा मीडिया का एक हिस्सा अभी भी 2002 में विचर रहा है उन्हें समझ नहीं आई की देश बदल रहा है। ‘शहजादे’ को निशाना बना मोदी बता गए कि राहुल में नेतृत्व करने की क्षमता नहीं है और इस प्रकार उन्होंने कांग्रेस के अभियान को ही पंक्चर कर दिया। यह चाय वाला विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़े लोगों पर गर्म-गर्म चाय उडेलने में सफल रहा! 36 लाख रुपए एक टायलेट पर खर्चने वाले मोनटेक सिंह आहलूवालिया को अगर आप योजना आयोग संभाल दोगे तो यही होगा। मोदी के चैलेंज ने राजनीति का खेल, और लोगों का मूड सब बदल दिया। उन्होंने खुद को आकांक्षी तथा अधीर भारत के साथ जोड़ लिया। भाजपा का कोई भी दूसरा नेता इस तरह दबंग नहीं है। कोई और कांग्रेस का इस तरह नुकसान न कर पाता। बाकी कसर महंगाई पूरी कर गई। 2009 में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वायदा किया था कि तीन महीने में महंगाई पर काबू पा लिया जाएगा। देश आज तक इंतज़ार कर रहा है। क्या समझा था कि इस लापरवाही की कीमत नहीं चुकानी पड़ेगी और ऐसे फिज़ूल तर्क कि महंगाई इसलिए बढ़ रही है क्योंकि गरीब अब दो सब्जियां खाते हैं, को लोग निगल जाएंगे? इसीलिए जनता ने अपना अविश्वास मत पारित कर दिया। क्या कोई लहर थी? निश्चित तौर पर कांग्रेस विरोधी लहर थी और मोदी के कारण स्थिति में भारी परिवर्तन आया है। वे कांग्रेस के खिलाफ जनाक्रोश के उत्प्रेरक हैं। इसे लहर का नाम दें या प्रभाव कहें, बात एक ही।
अविश्वास मत पारित ,