
वक्त वक्त की बात है!
किसे याद है कि कभी नीतीश कुमार भी अगले प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे? उस वक्त उनकी छवि एक विकास पुरुष की थी लेकिन एक के बाद एक गलत कदम उठाने के बाद उनकी हालत तो न घर के रहे न घाट वाली बनती जा रही है। वक्त का पहिया इतना उलटा चला कि जिस व्यक्ति को मनाने के लिए भाजपा ने बहुत प्रयास किया था और जिसे अपने खेमे में लाने के लिए कांग्रेस बहुत उतावली थी वह राजनीति में एक प्रकार से दर-दर की ठोकरें खाने पर मजबूर है और खुद स्वीकार कर रहा है कि ‘वक्त वक्त की बात है!’ नीतीश कुमार का पतन उस वक्त शुरू हो गया था जब अनावश्यक नरेंद्र मोदी का मुद्दा बना कर उन्होंने भाजपा के साथ अपना 17 साल पुराना रिश्ता तोड़ डाला था। उस वक्त वह सैक्यूलर रथ पर सवार थे लेकिन जनता को यह नहीं बता सके कि इतने वर्ष वह मोदी के बावजूद भाजपा के साथ गठबंधन में कैसे रहे? 2002 के दंगों के बाद वे वाजपेयी सरकार के रेल मंत्री रहे और फिर भाजपा के सहयोग से मुख्यमंत्री बन गए। भाजपा ने उन्हें उदारता से समर्थन दिया था लेकिन विनाश काले विपरीत बुद्धि को चरितार्थ करते हुए उन्होंने रिश्ता तोड़ दिया और तब से वे गिरते ही जा रहे हैं। पहले लगा कि कांग्रेस उन्हें दबोचने के लिए उतावली है। नीतीश भी तैयार थे। वे समझने लगे कि मुसलमानों में उनकी वही जगह हो जाएगी जो समस्तीपुर में लाल कृष्ण आडवाणी के रथ को रोकने के बाद लालू प्रसाद यादव की बनी थी लेकिन लाल सियाही लगा कर शहीद बनने का प्रयास सफल नहीं हुआ। कांग्रेस ने पहले बिहार को पिछड़ा दर्जा देने का झुंझना लटका दिया। हैरानी है कि नीतीश जैसा होशियार राजनीतिज्ञ इस झांसे में आ गया। उन्हें क्यों समझ नहीं आई कि कांग्रेस बिहार को विशेष दर्जा देकर कभी जनता दल (यू) को मज़बूत नहीं करेगी?
जब जनता दल (यू) का भाजपा के साथ गठबंधन टूट रहा था तो केंद्र ने बिहार को विशेष दर्जा देने के लिए रघुराम राजन, जो अब रिजर्व बैंक के गवर्नर हैं, की अध्यक्षता में कमेटी बनाई थी ताकि पिछड़े राज्यों की निशानदेही की जा सके और फिर उनकी सहायता की जा सके। इस कमेटी ने उड़ीसा के बाद बिहार को सबसे पिछड़ा प्रांत माना था और उसकी सहायता के लिए फार्मूला भी बताया था। उस वक्त समझा जा रहा था कि नीतीश कुमार की मांग मानी जाने ही वाली है लेकिन जैसी संभावना थी, मामला फंस गया। योजना आयोग ने रघुराम राजन कमेटी की सिफारिशों को रद्द कर दिया। आखिर अगर बिहार को विशेष दर्जा देकर उसकी विशेष आर्थिक सहायता की जाती तो जीत तो नीतीश कुमार की होती। कांग्रेस की सरकार उस व्यक्ति पर मेहरबानी क्यों करती जो इतना अविश्वसनीय है कि बिना कारण भाजपा को दगा दे गया? लेकिन अब तो हालात और भी बदल गए हैं। कांग्रेस चार विधानसभा के चुनाव हार गई है। बिहार में तो वह पहले ही कमज़ोर है। नीतीश कुमार को कांग्रेस के साथ गठबंधन में कोई फायदा नज़र नहीं आता। उनका धर्म निरपेक्षता बनाम सांप्रदायिकता वाला प्रयास भी मुस्लिम बेरुखी के कारण ठप्प हो गया। ऊपर से लालू प्रसाद यादव जेल से छूट गए हैं और राजद में फिर जान पड़ती नज़र आती है। सैक्यूलर वोट के लालू नीतीश कुमार से बड़े दावेदार हैं। लालू सोनिया गांधी के परिवार के प्रति वफादार भी रहे हैं। अब भी उनका कहना है कि राहुल गांधी नरेंद्र मोदी या अरविंद केजरीवाल से बेहतर प्रधानमंत्री बन सकते हैं। कांग्रेस भी उनके साथ गठबंधन को उत्सुक नज़र आती है।
नीतीश कुमार अलग थलग पड़ गए हैं। वे राम बिलास पासवान की पार्टी से गठबंधन चाहते हैं ताकि दलित तथा महादलित का उन्हें समर्थन मिल जाए लेकिन पासवान की रुचि लालू प्रसाद यादव में अधिक लगती है। लालू के जेल से बाहर आने से मुस्लिम-यादव समीकरण की अधिक संभावना बनती है जो कांग्रेस को भी रुचिकर नज़र आता है। इस वक्त नीतीश कुमार गठबंधन करना चाहते हैं लेकिन करने वाला कोई नज़र नहीं आता। अब फिर उन्हें फैडरल फ्रंट की याद आई है। वे तृणमूल कांग्रेस तथा बीज़ू जनता दल जैसी पार्टियों के साथ मिल कर फैडरल फ्रंट बनाना चाहते हैं लेकिन अभी बाकी पार्टियां अपने-अपने आंकलन में लगी हैं। किसी को याद नहीं कि कभी नीतीश कुमार को भी भावी प्रधानमंत्री समझा जाता था। भाजपा से संबंध तोडऩे पर शरद यादव भी नाखुश हैं। यह भी चर्चा है कि जनता दल (यू) के कुछ सांसद भाजपा में जा सकते हैं। आम चुनाव से कुछ महीने पहले बिहार के मुख्यमंत्री काले बादलों से घिरते नज़र आते हैं। बौद्ध गया पर आतंकी हमला तथा नरेंद्र मोदी की रैली के समय हुए विस्फोट उनकी प्रशासनिक क्षमता पर भी सवालिया निशान लगा गए हैं। इस वक्त कोई उनकी तरफ आने को तैयार नहीं। इतनी गालियां देने के बाद वे खुद भाजपा की तरफ जा नहीं सकते। वह एक गलती उन्हें असुरक्षित छोड़ गई और उनके पतन का कारण बन रही है। अब तो उनकी हालत पर कहा जा सकता है,
एक कदम गलत पड़ा था राहे शौक में
मंज़िल तमाम उम्र हमें देखती रही!
वक़्त वक़्त की बात है ,