वो सुबह कभी तो आएगी!
इस गणतंत्र दिवस पर देश की जनता व्याकुल नज़र आती है कि हम कहीं अपने लक्ष्य से भटक गए हैं और कोई हमें सीधे रास्ते पर डालने वाला भी नहीं है। पिछले पांच वर्ष विशेष तौर पर हमें विभ्रांत छोड़ गए हैं। भटकन का प्रभाव है। जिनका काम देश को संभालना तथा उसे आगे ले जाना था उन्हीं के पैर रेत के बने पाए गए। देश में अराजकता का माहौल है। पश्चिम बंगाल में वीरभूमि में मुखिया के आदेश पर लड़की के साथ गांव में बने स्टेज पर बारी-बारी से सबने बलात्कार किया। उसके बेहोश होने के बाद भी यह सिलसिला चलता रहा। उस लड़की का कसूर था कि उसने दूसरी बरादरी के लड़के के साथ प्यार किया था। यह कैसा समाज है? कहां गए हमारे मूल्य? हमें अपनी संस्कृति पर बहुत गर्व है पर यह देश ऐसा बन चुका है कि शाम के वक्त कोई महिला अकेली बाहर नहीं निकल सकती। एक तरफ देश ने तरक्की की है। अनुमान है कि 2030 तक हम जापान को पिछाड़ कर विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएंगे पर दूसरी तरफ देश के अंदर बहुत गला सड़ा है, पिछड़ा है, गंदा है, भ्रष्ट है, अनैतिक है कि जैसे वहां तक रोशनी पहुंची ही नहीं। जब अपनी राजनीति के लिए एक मुख्यमंत्री ही कानून का उल्लंघन करता है तो समझ लीजिए कि व्यवस्था का पतन हो गया। अदालत या मीडिया हैं जो कुछ आशा देते हैं पर जहां तक राजनीतिक वर्ग का सवाल है उसने देश के साथ बहुत धक्का किया है। ‘लूट लिए काफिले अपने ऐसे भी काफिला सालार हमें मिले हैं!’ और मैं केवल नई दिल्ली की ही बात नहीं कर रहा। नीचे तक यह हो गया है। अंग्रेज़ो को निकालने के बाद हमने शासकों की एक नई जमात को अपने पर लाद लिया। अब जनता प्रतिक्रिया कर रही है। ‘आप’ को शुरू में जो समर्थन मिला वह इसका संकेत है। वीआईपी शब्द अब गाली बनता जा रहा है।
दु:ख की बात है कि खुद को संविधान देने के 64 वर्ष के बाद भी लोकतंत्र की वास्तविक संकल्पना और अवधारणा साकार नहीं हुई। लोग वोट देते हैं लेकिन फिर भी खुद को व्यवस्था से बाहर समझते हैं। लाचार तथा बेसहारा समझते हैं। समाजवाद को देश त्याग चुका है पूंजीवादी हम बन नहीं सकते इसलिए बीच में कहीं देश लटक रहा है। पुराने मूल्य टूट रहे हैं नए स्थापित नहीं हो रहे। राजनेता-उद्योगपति-अफसरशाही की त्रिमूर्ति मिल कर हम पर राज़ कर रही है। देश के संसाधनों पर दो दर्जन घरानों का एकाधिकार है। इन्हीं लोगों को प्राकृतिक संसाधनों के शोषण का अधिकार दिया गया है। और जिनकी जिम्मेवारी निगरानी की है उनकी फाईलें गुम हो जाती हैं इस गणतंत्र में इतने बड़े घोटाले कैसे बर्दाश्त किए गए? जिनकी ईमानदारी को देख कर वोट दिए गए वे ही समझौते करते पाए गए। और जो ऊपर से चलता है वह नीचे तक पहुंच जाता है। निचले स्तर पर प्रशासन की हालत शोचनीय बनती जा रही है। एक तरफ आरटीआई जैसे कानून बन चुके हैं तो दूसरी तरफ प्रशासन की बेरुखी में कोई परिवर्तन नहीं आया। हम एक ही जगह पर खड़े होकर भागते नज़र आ रहे हैं। लेकिन इसमें कहीं हमारा अपना भी दोष है। हम खुद समझौतावादी बन चुके हैं। हमें सामूहिक हित की चिंता नहीं केवल अपना उल्लू सीधा करने से मतलब है। जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, ‘याद रहे आज़ादी और ताकत अपने साथ जिम्मेवारी लाते हैं।’ लेकिन आज अपनी जिम्मेवारी कौन समझता है? अपने कर्त्तव्य के बारे स्कूलों में पढ़ाया ही नहीं जाता है। हर आदमी केवल अपने लिए संघर्ष कर रहा है। न ही कोई राष्ट्रीय नेता है जो हमें दिशा ही दिखा सके। हम जिन की तरफ देखते हैं उन्हें खुद मालूम नहीं कि उन्होंने किधर जाना है!
क्या कुछ बदलेगा? क्या आज़ादी के साढ़े छ: दशकों के बाद वास्तव में स्वराज मिलेगा? यह स्वराज टोपियां डालने से नहीं मिलेगा। इसके लिए मेहनत करनी पड़ेगी, संवेदनशील तथा पारदर्शी प्रशासन देना होगा। अमेरिकी सरकार के प्रशासन में भारतीय छाए हुए हैं। उनकी प्रतिभा, मेहनत तथा ईमानदारी को स्वीकार किया जा रहा है, मान्यता दी जा रही है। हम ऐसी श्रेष्ठता यहां क्यों नहीं पा रहे? इसका कारण है कि हममें राष्ट्रीय चेतना का अभाव है। साठ वर्ष की आयु में एक व्यक्ति अपने जीवन के महत्वपूर्ण सोपान तय कर ऐसे मुकाम पर पहुंच जाता है कि वह अपने भविष्य को निर्धारित कर सकता है लेकिन दुर्भाग्यवश साठ साल से अधिक की आयु होने के बाद भी हमारे गणतंत्र में वह परिपक्वता तथा मजबूती नहीं आई। यह नहीं कि तरक्की नहीं हुई। लोगों का खानपीन, रहन-सहन सब सुधरा है। हाथ-हाथ में मोबाईल पकड़े हुए हैं। जागरुकता अधिक है लेकिन कहीं कुछ गायब है। सामूहिक चेतना का अभाव है। एक भीड़ तो नज़र आती है पर यह कारवां नहीं है!
क्या कुछ बदलेगा? 2014 निर्णायक वर्ष हो सकता है क्योंकि लोग स्पष्ट संदेश भेज रहे हैं कि जो अब तक चलता रहा वह उन्हें स्वीकार नहीं। लोगों का बिगड़ा मूड शासक वर्ग को भी सोचने और बदलने के लिए मजबूर कर रहा है। लेकिन केवल शासक को ही नहीं बदलना बल्कि शासित को भी बदलना है। उसे भी अधिक संवेदनशील होना है और अपना धर्म निभाना है क्योंकि अंत में एक गणतंत्र में शासित ही मालिक होता है। वह लापरवाह नहीं हो सकता। उसे 2014 के इस निर्णायक वर्ष में देश को सही दिशा में डालना है। इस आशा के साथ कि वो सुबह कभी तो आएगी हम सबको मिल कर इस अनोखे गणतंत्र को अधिक मजबूत, जवाबदेह तथा संवेदनशील बनाना है।
गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई!
वो सुबह कभी तो आएगी!,