
येड़ा है, पर मेरा है?
एक न्यूज चैनल ने यह समाचार दिया है कि जिस तरह दो पुलिस कर्मियों को छुट्टी पर भेज कर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को अपना धरना समाप्त करने का रास्ता दिया गया उससे राहुल गांधी बहुत नाराज़ हैं। यह भी बताया गया कि यह समझौता करते वक्त गृहमंत्री ने प्रधानमंत्री या सोनिया गांधी से सलाह नहीं ली। एक और अखबार में छपा है कि जो कुछ हुआ वह उपराज्यपाल नजीब जंग के स्तर पर हुआ, गृहमंत्रालय को भी इसकी जानकारी नहीं थी। अगर इन समाचारों को मानें तो प्रभाव यह मिलता है कि केंद्रीय सरकार के बाएं हाथ को मालूम नहीं कि दाया हाथ क्या कर रहा है जबकि यह मानना असंभव है कि प्रधानमंत्री, कांग्रेस के नेतृत्व या गृहमंत्री की अनुमति के बिना केजरीवाल को धरना हटाने का रास्ता देने का इतना बड़ा फैसला लिया गया। बारिश तथा ठंड के बीच वहाँ हाजरी कम हो रही थी। खुली अपील के बावजूद जनता सड़कों पर नहीं उतरी। उनकी अपनी सेहत खराब थी। चारों तरफ केजरीवाल की आलोचना हो रही थी। ऐसी हालत में उन्हें खुद वहां से हटना पड़ता फिर सरकार ने उन्हें ‘फेस सेवर’ अर्थात् चेहरा बचाने का रास्ता क्यों दिया? यह सवाल मूल सवाल से जुड़ा हुआ है कि कांग्रेस ने आप की सरकार बनाने के लिए समर्थन क्यों दिया विशेषतौर पर जब केजरीवाल कांग्रेस पार्टी को धारावाहिक गालियां निकालते रहे? गृहमंत्री शिंदे ने मराठी में उन्हें ‘येड़ा’ अर्थात् पगला या असंतुलित कहा है पर प्रभाव यह दिया जा रहा है कि चाहे येड़ा है पर मेरा है! केजरीवाल कुछ भी कर लें, दिल्ली में अराजक स्थिति पैदा कर दें, गणतंत्र दिवस परेड में रुकावट डालने की धमकी दें, पुलिस को बगावत के लिए उकसाएं, पर जहां तक कांग्रेस का सवाल है उसका ‘हाथ’ आप के साथ ही रहेगा? जो व्यक्ति मानता है कि वह ‘अराजकतावादी’ है उस पर कांग्रेस मेहरबान कैसे? कांग्रेस की हालत तो इतनी खराब हो गई कि आप से घबरा कर उसने अपने नारे से ‘आम आदमी’ का ज़िक्र तक हटा दिया।
यह सचमुच एक पहेली है कि कांग्रेस ने आप की सरकार को समर्थन क्यों दिया? आखिर आप का सारा अभियान दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार के कथित भ्रष्टाचार पर आधारित था। अब फिर वे फाईलें खंगालने की धमकी दे रहे हैं। गृहमंत्री पर रिश्वत लेने का आरोप लगा रहे हैं। मैं यह बिल्कुल मानने को तैयार नहीं कि राहुल गांधी या कांग्रेस के नेतृत्व को मालूम नहीं था कि केजरीवाल तथा आप के साथ क्या समझौता किया जा रहा है। यह तो गांधी परिवार की पुरानी आदत है कि जो उपलब्धि है वह तो उनकी है पर जो असफलता है या गलती है वह किसी और की है। जिधर हवा का रुख उधर यह परिवार। लेकिन मूल प्रश्न जो एक बुझारत से कम नहीं, कि कांग्रेस तथा आप का मेल कहाँ है? इसका जवाब यही है कि सारी कवायद भाजपा, विशेषतौर पर नरेंद्र मोदी को रोकने की है। कांग्रेस को खुद जीतने की चिंता कम है नरेंद्र मोदी को हराने की अधिक। समझा गया कि आप मोदी का शहरी वोट काट सकती है, लेकिन केजरीवाल ने अपने पांव पर कुल्हाड़ा चला दिया। जो हालत दिल्ली की एक महीने में बना दी गई भाजपा शांति, सभ्य राजनीति तथा स्थायित्व का टापू नज़र आती है। संक्षिप्त समय के लिए लगा था कि आप भाजपा के उत्थान में रुकावट डाल देगी। मीडिया भी प्रधानमंत्री पद के तीन उम्मीदवार, नरेंद्र मोदी, राहुल गांधी तथा अरविंद केजरीवाल की बात कर रहा था लेकिन 34 घंटों में सब कुछ पलट गया।
धरना दिल्ली पुलिस का नियंत्रण लेने तथा पांच पुलिस कर्मियों के निलंबन को लेकर दिया गया लेकिन इसे वापिस केवल दो पुलिस कर्मियों को छुट्टी पर भेजने पर ही कर लिया गया। अब केजरीवाल इसे ‘जनता की जीत’ बता रहे हैं। क्या दो दिन नई दिल्ली को ठप्प इसलिए किया गया ताकि दो पुलिसकर्मियों को छुट्टी पर भेजा जा सके? यह संक्षिप्त प्रकरण आप के नेता का बहुत असुखद चित्र पेश कर गया कि वे दिल्ली की सरकार की बड़ी जिम्मेवारी संभालने के लिए मानसिक तौर पर फिट नहीं हैं। यह कहना कि हां, मैं अराजकतावादी हूं, तथा गणतंत्र दिवस परेड में बाधा डालने की धमकी देना हिमाकत तथा घमंड दोनों का अश्लील मिश्रण पेश करती हैं। आप के नेता कह रहे हैं कि राष्ट्रपति की ‘अराजक राजनीति’ के बारे टिप्पणी ‘जोक’ है, सुप्रीम कोर्ट गलत है, मीडिया तो बिका हुआ है ही। सब गलत है केवल वेही सही हैं। दूसरों के विचारों के प्रति असहिष्णुता दिखाई जा रही है।
उनसे बहुत आशा थी कि वे हमारी राजनीति में नया अध्याय शुरू करेंगे। उनके कारण बाकी राजनीतिक दल भी दिशा परिवर्तन के लिए मजबूर हो गए और लोगों की शिकायतों के प्रति अधिक संवेदनशील बन रहे हैं। लेकिन खुद मिले भारी समर्थन से केजरीवाल संतुलन खो बैठे। केवल वे ही नहीं बल्कि उनके साथी भी इस तरह इतराने लगे थे कि जैसे यह देश उनके कदमों में हैं। खुद केजरीवाल मीडिया को कांग्रेस तथा भाजपा से मिले होने का आरोप लगा रहे हैं। उनका कहना है कि धरने पर बैठना असंवैधानिक नहीं है लेकिन उनका धरना कानून का उल्लंघन था क्योंकि वहां धारा 144 लगी हुई थी। अगर वह जंतर-मंतर पर चले जाते तो मामला इतना बड़ा न बनता। सवाल यह भी उठता है कि क्या एक मुख्यमंत्री इस तरह धरना दे सकता है? अरविंद केजरीवाल अपने व्यक्तिगत स्तर पर धरना दे सकते थे पर दिल्ली के मुख्यमंत्री का धरना मर्यादा का निश्चित उल्लंघन है।
आगे क्या? बेहतर होगा कि केजरीवाल आंदोलन का रास्ता छोड़ सही प्रशासन देने का प्रयास करें। दिल्ली पुलिस की जो विचित्र स्थिति है इसके बारे उनकी शिकायत जायज़ लगती है। दिल्ली सरकार वहां कानून और व्यवस्था कायम नहीं रख सकती अगर पुलिस पर उनका कोई नियंत्रण नहीं होगा। इस स्थिति पर संसद में गौर होना चाहिए। योगेन्द्र यादव जिन्हें मैं बहुत समझदार व्यक्ति समझता था, का कहना है कि ‘सरकार भी चलाएंगे आंदोलन भी करेंगे’ यह सही नहीं। हां, अगर आंदोलन में इतनी रुचि है तो बेहतर होगा कि धमकियां देने की जगह आप इस्तीफा दे कर धरने पर बैठ जाए। दो किश्तियों पर सवारी की सुविधा उन्हें और उपलब्ध नहीं होगी। उनके रवैये में स्पष्ट विरोधाभास नज़र आता है। एक तरफ वे उस राजनीति का विरोध करते नज़र आते हैं जैसी इस देश में प्रचलित है तो दूसरी तरफ इसी राजनीति का फायदा उठा कर कुर्सी में कायम है। एक तरफ वर्तमान व्यवस्था का लाभ-उठा कर वे हकूमत में हैं तो दूसरी तरफ इसे ही लताडऩे के लिए आंदोलन का सहारा ले रहे हैं और भविष्य में भी ऐसा और करने की धमकी दे रहे हैं। हमें व्यवस्था बदलनी है उसे उखाडऩा नहीं। याद रखना चाहिए कि जयप्रकाश नारायण का अंत भी एक निराश व्यक्ति का अंत था। देश अराजक स्थिति को कभी बर्दाश्त नहीं करेगा। न ही वह उस मुख्यमंत्री को भी बर्दाश्त करेगा जो मानता है कि अराजकता ही असली गणतंत्र है। हमें भारत में माओ त्सी तुंग का अर्ध-लोकतांत्रिक अवतार नहीं चाहिए।
येड़ा है पर मेरा है ,