नमो-नमो ही क्यों?
यह पहली बार नहीं कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघचालक ने भाजपा के राजनीतिक मामलों में सार्वजनिक दखल दिया हो। पहले भी के. सुदर्शन ने टीवी के कैमरे के आगे आकर कहा था कि वाजपेयी तथा आडवाणी को रिटायर हो जाना चाहिए। दोनों ने उनकी बात अनसुनी कर दी थी। अब फिर संघ प्रमुख मोहन भागवत की टिप्पणी कि ‘हमारा काम नमो-नमो करना नहीं’, से बहस खड़ी हो गई है। जहां भाजपा असहज है वहां भाजपा और विशेष तौर पर नरेंद्र मोदी के विरोधी बाग बाग हैं। वामपंथी अतुल अंजान का कहना है कि ‘संघ सही कह रहा है। अब उन्हें लगने लगा है कि मोदी भस्मासुर बनते जा रहे हैं।’ दिग्विजय सिंह का भी कहना है कि भाजपा मोदी के सामने बौनी हो गई है। शरद यादव का कहना है कि संघ की विचारधारा है कि पहले देश, फिर पार्टी, फिर व्यक्ति लेकिन मोदी ने तो संघ की विचारधारा ही उलट दी है। उनकी विचारधारा तो है कि पहले व्यक्ति, फिर पार्टी, फिर देश।
यह वह नेता है जिन्हें कभी संघ में कुछ अच्छा नहीं लगा पर संघ प्रमुख के बयान ने उन्हें मौका दे दिया है। मोहन भागवत ने इस नाज़ुक मौके पर यह सब क्यों कहा? उनकी टिप्पणी संघ की प्रतिनिधि सभा में कही गई जहां हाज़री सीमित होती है हैरानी है कि यह टिप्पणी मीडिया तक पहुंच गई। बाद में अवश्य कहा गया कि उनके कहने का मतलब गलत लिया गया लेकिन नुकसान तो हो ही गया है। हैरानी और भी है क्योंकि मोदी को यहां तक पहुंचाने में संघ का बड़ा हाथ है। मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार पेश करने का फैसला भी नागपुर में किया गया। यह सही है कि मोदी की कार्यप्रणाली से भाजपा तथा संघ के नेताओं को शिकायत है। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते भी उनका विश्व हिन्दू परिषद के असंतुलित और उग्रवादी नेता प्रवीण तोगड़िया के साथ धारावाहिक झगड़ा रहा है। मोदी ‘एकला चलो रे’ की नीति में विश्वास रखते हैं। सामूहिक नेतृत्व का कोई सवाल ही नहीं उठता। दिल्ली में अशोका रोड का भाजपा मुख्यालय केवल ठप्पा लगाने के लिए रह गया है सारा प्रचार भी नरेंद्र मोदी पर ही केंद्रित है। पार्टी के कई नेता इसी कारण नाराज़ भी हैं। लालकृष्ण आडवाणी ने भी राहुल गांधी के इस कथन का समर्थन किया है कि भाजपा ‘वन मैन पार्टी’ बनती जा रही है। संघ शायद यह भी समझता है कि अगर भाजपा में सामूहिक नेतृत्व खड़ा नहीं किया गया तो बाद में मोदी को संभालना मुश्किल होगा। आखिर वाजपेयी भी संघ की कम ही सुनते थे।
पर पार्टी के अंदर मोदी विरोधियों का दुर्भाग्य है कि लोग उनकी बात नहीं सुन रहे। संघ तथा भाजपा का कार्यकर्ता भी नमो-नमो ही कर रहा है। यह इन सर्वेक्षणों से भी साबित हो रहा जो मोदी की लोकप्रियता को भाजपा की लोकप्रियता से कहीं अधिक दिखा रहे हैं। अगर पश्चिम बंगाल, केरल तथा तमिलनाड़ु जैसे प्रदेशों में पहली बार भाजपा सम्मानजनक जगह पहुंच रही तो वह भी मोदी के कारण ही है। आज अगर भाजपा सत्ता की दहलीज तक पहुंचने में सफल रही है तो यह भी नमो के कारण ही है। मोदी के कई अवतार हैं। वह विकास पुरुष भी है तो चाय वाला भी है। पिछड़े वर्ग से भी है तो हिन्दुत्व का प्रतीक भी है। युवा उनकी तरफ उम्मीद से देख रहे हैं कि वे भारत के साथ उनकी भी तकदीर बदलेंगे। इसलिए जहां मोदी को बाकी नेताओं को साथ लेकर चलना चाहिए वहां बाकियों को भी मालूम होना चाहिए कि अगर उन्होंने सत्ता में आना है तो नमो नमो करना ही होगा। नरेंद्र मोदी की कमजोरियां है, और विशेषताएं हैं। दोनों एक ही पैकेज में मिलेंगी। यह तो स्पष्ट ही है कि उनकी जो लोकप्रियता है उसे कांग्रेस का कोई नेता छू नहीं सकता लेकिन भाजपा में भी कोई ऐसा नेता नहीं जो इस वक्त उनके नज़दीक फटकता हो।
उधर नेता लाल कृष्ण आडवाणी का कहना है कि 55 वर्ष पहले शुरू हुई उनकी राजनीतिक यात्रा अभी खत्म नहीं हुई। अर्थात् वे अभी भी राजनीतिक तौर पर सक्रिय रहेंगे जिसका एक और संकेत वे गुजरात से गांधीनगर से फिर लोकसभा का चुनाव लडऩे की अपनी इच्छा से स्पष्ट कर भी चुके हैं। इसी के साथ यह सवाल भी उठता है कि लाल कृष्ण आडवाणी की इस यात्रा की अंतिम मंज़िल क्या है? क्या वह केवल एक सांसद बन कर संतुष्ट हो जाएंगे जबकि वे नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की सूरत में उनके नीचे मंत्री तो बन नहीं सकते? या क्या वे समझते हैं कि अगर राजग को बहुमत नहीं मिलता तो वे उन पार्टियों को गठबंधन में ला सकेंगे जिन्हें मोदी से एलर्जी है? उनकी 86 वर्ष की आयु है पर सेहत ठीक है। इसके बाद मौका नहीं मिलेगा लेकिन देश बदल चुका है, ज्यादा महत्वाकांक्षी और युवा है। इस स्थिति को आडवाणी ने दिल से स्वीकार नहीं किया। कभी-कभी वे अवश्य कहते रहते हैं कि नरेंद्र मोदी अटलजी से बेहतर प्रधानमंत्री साबित होंगे लेकिन फिर भी कहीं पीएम बनने की कसक है इसीलिए लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं नहीं तो इस उम्र में उन्हें वरिष्ठ लोगों के सदन राज्यसभा में आराम से जाना चाहिए था।
अगर आडवाणीजी का यह इरादा है तो मैं तो यही कहूंगा कि उन्हें यह त्याग देना चाहिए। अगर बैकरूम में कोई फैसला किया गया तो जनता को स्वीकार नहीं होगा। कार्यकर्ता ही विद्रोह कर जाएंगे। मोदी के सिवाय कोई और नाम इस वक्त जनता को स्वीकार नहीं होगा चाहे आडवाणी के अतिरिक्त और भी कुछ नेता हैं जो अस्थिर हालात की सूरत में अपना अवसर देख रहे हैं। नरेंद्र मोदी के स्वभाव को देखते हुए यह संभव भी नहीं प्रतीत होता। अगर प्रयास हुआ तो भाजपा में ऐसी बगावत होगी कि सरकार नहीं बन सकेगी। लाल कृष्ण आडवाणी का भाजपा बनाने में सबसे अधिक योगदान है। अटलजी से भी अधिक। अब फिर हकीकत को स्वीकार करते हुए ऐसी ही त्याग की भावना दिखाने की जरूरत है। देश एक मजबूत विकल्प के लिए तड़प रहा है आडवाणीजी को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ऐसा विकल्प खड़े करने में दिल से सहयोग करना चाहिए लेकिन यह उनकी राजनीतिक यात्रा का अंत नहीं होगा। साढ़े तीन साल के बाद राष्ट्रपति भवन फिर खाली हो जाएगा। उस जगह के लिए लालकृष्ण आडवाणी से बेहतर कोई उम्मीदवार नहीं होगा।
अंत में: राहुल गांधी ने एक बार फिर संघ को गांधीजी हत्या के लिए सीधा जिम्मेवार ठहराया है। जवाहरलाल नेहरू का रवैया अवश्य संघ विरोधी था लेकिन सरदार पटेल मानते थे कि संघ संलिप्त नहीं है जो बात महात्मा गांधी के पौत्र ने पटेल की जीवनी में लिखी भी है। इस किताब में राजमोहन गांधी एक और प्रसंग बताते हैं, ‘पटेल तथा जवाहरलाल की संघ के बारे नज़रिए में भिन्नता थी। नेहरू इसे फासिस्ट संस्था समझते थे जबकि वल्लभभाई इसे देशभक्त, पर भटकी हुई, मानते थे… नेहरू ने वल्लभभाई को बताया था कि बापू की हत्या अलग घटना नहीं थी बल्कि एक बड़े अभियान का हिस्सा था जिसे आरएसएस ने चलाया था। सरदार इससे असहमत थे।’
राहुल वही आरोप दोहरा रहे हैं जो उनका परिवार कहता आया है। वैसे भी इस चुनाव में यह कोई मुद्दा नहीं है। लोग विकास तथा मजबूत नेतृत्व चाहते हैं, वह 66 वर्ष पीछे नहीं जाना चाहते।
नमो-नमो ही क्यों?,
Respected Sir
Mr. Modi still has to prove himself at National Level and country has lot of expectations from him ……….Lets hope our country will get a stable government …
Sir, in my opinion there should be PIL to ban a politician leader to fight from two constituencies … apart from it he/she should be local resident of constituency from which he/she is fighting so as to better understand the problems of local people