चूहे की दहाड़

The Mouse That Roared

1959 में हालीवुड की एक फिल्म आई थी ‘द माऊस दैट रोर्ड’, अर्थात् चूहे की दहाड़। यह फिल्म योरूप की एक काल्पनिक छोटी सी रियासत की कहानी है जिसके अपने फटेहाल हैं। इस स्थिति से निकलने के लिए सियाने यह तरतीब निकालते हैं कि शक्तिशाली अमेरिका पर हमला कर दिया जाए। रणनीति यह थी कि वे हार जाएंगे लेकिन दुनिया की नज़रों में आ जाएंगे इसलिए अमेरिका उनकी मदद करने के लिए मजबूर हो जाएगा। आजकल अरविंद केजरीवाल जिस तरह मीडिया को धमकियां दे रहे हैं और जिस तरह वे वाराणसी से नरेंद्र मोदी को चुनौती देने की तैयारी कर रहे हैं उससे तो इस फिल्म की याद ताज़ा हो जाती है। उनका कहना है कि सारा मीडिया बिका हुआ है और नरेंद्र मोदी को बढ़ावा देने के लिए उसे मोटी राशि दी गई है। इन आरोपों का कोई प्रमाण केजरीवाल नहीं देते। जरूरत ही नहीं समझते। वे हिट एंड रन में विश्वास रखते हैं। टक्कर मारो और आगे भाग जाओ। हर रोज़ कोई न कोई नया उनके निशाने पर रहता है। कईयों को वे जेल भेजने का हुक्म सुना चुके हैं। इस बार निशाना मीडिया पर है कि जब वे सत्ता में आएंगे तो मीडिया वालों को जेल में डाल देंगे। नोट करने की बात है कि उनका कहना है कि ‘जब’ वे सत्ता में आएंगे, यह नहीं कि ‘अगर’ वे सत्ता में आएंगे। वह शख्स जिसकी पार्टी को छोटी सी दिल्ली में भी बहुमत नहीं मिला, देश के मीडिया को चुनौती दे रहा है।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बहुत आलोचना होती रहती है। सोनिया गांधी के विदेशी मूल को लेकर पहले काफी व्यंग्य हुआ। 2002 के दंगों को लेकर मीडिया का एक हिस्सा अभी तक नरेंद्र मोदी पर हमला कर रहा है। चाहे यह कितना भी अप्रिय हो सब इसे लोकतंत्र की भावना में स्वीकार करते  हैं।  किसी भी नेता ने या किसी भी दल ने मीडिया को उस तरह धमकाने की जुर्रत नहीं की जिस तरह इस निक्के हिटलर ने की है। केजरीवाल तो एक नई पार्टी के नेता हैं। यह वह पार्टी है जिससे हमें एक समय बहुत आशा थी पर दिल्ली में 49 दिन का शासन सब कुछ तमाम कर गया। प्रभाव यह मिला कि ‘जाम उन्हें मिला है जिन्हें पीना नहीं आता!’ उनके एक समय के गुरू अन्ना हज़ारे तो उनका नाम तक नहीं लेना चाहते चाहे अन्ना ने ममता बनर्जी के साथ दगा कर खुद को मुलायम सिंह यादव की श्रेणी में गिरा लिया है। वे दूसरे गांधी नहीं हैं; जिस तरह भगत सिंह की तस्वीर लगा कर केजरीवाल क्रांतिकारी नहीं बन सकते।

मीडिया का काम है कि वह सत्ता को शीशा दिखाएं। ठीक है, मीडिया में कमजोरियां हैं। पेड़ न्यूज़ के बारे सही शिकायत की जाती है लेकिन सारा मीडिया बिका हुआ नहीं है। केजरीवाल तथा उनके समर्थक आलोचना को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे। मुझे खुद बहुत गालियां पड़ चुकी हैं पर यह सामान्य बात है। इस व्यवसाय का उपहार है। पर केजरीवाल तो अपना पतन खुद कर रहे हैं। बहुत मुश्किल से एक नई तस्वीर उभर रही थी कि उसे तबाह कर दिया गया। बेहतर होता कि आप दिल्ली में सरकार न बनाती मध्यावधि चुनाव होते तो पूर्ण बहुमत मिलता। लेकिन सरकारी कोठी में शिफ्ट होने की इतनी बेताबी थी कि अस्थिर समर्थन पर सरकार बना ली। बच्चों की कसमें खा कर उन्हें तोड़ दिया। अब सरकारी कोठी में बने रहने का बहाना है कि बेटी की परीक्षा चल रही है, लेकिन आपने शिफ्ट ही क्यों किया जब मालूम था कि सरकार नहीं चलेगी? और अब यह कथित ‘आम आदमी’ मार्केट रेट पर सरकार को किराया देगा। फिर हमने देखा कि किस तरह टीवी चैनल से केजरीवाल अनुरोध कर रहे थे कि वह हिस्सा बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया जाए जहां वे क्रांतिकारी नज़र आते हैं। अर्थात् एक प्रकार से आज के भगत सिंह! मुझे तो इस बात पर भी आपत्ति है भगत सिंह के नाम या चित्र को भुनाने का हमारे छुटभैय्या प्रयत्न करते हैं। कोई गांधी का उत्तराधिकारी बनना चाहता है तो कोई भगत सिंह का जबकि आज के इन डालडा नेताओं का उन महापुरुषों से दूर का भी रिश्ता नहीं। ये नेता तो लहू लगा कर शहीद बनने का प्रयास कर रहे हैं पर सफलता नहीं मिल रही इसीलिए हताशा में गालियां निकालने तक गिर रहे हैं। लेकिन, गाली तो कमज़ोर का हथियार है।

अरविंद केजरीवाल वाराणसी पहुंच गए हैं जहां वे नरेंद्र मोदी का मुकाबला करेंगे। उनका कहना है कि वे देश बचाने आए हैं। टीवी पर उन्हें यह कहते दिखाया गया है कि ‘मुझे यह चुनौती स्वीकार है।’ लेकिन किस ने दी चुनौती? केजरीवाल कहीं से चुनाव लड़ सकते हैं लेकिन इसका कोई मकसद तो होना चाहिए। जनता देश को एक सरकार बनाने के लिए वोट देगी, लेकिन केजरीवाल तो समझते हैं कि यह कोई तमाशा है। जब तक चुनाव ज़ारी रहेंगे वह धारावाहिक किसी न किसी को धमकी/चुनौती देते रहेंगे। मुफ्त का प्रचार मिल जाएगा। गलत रणनीति भी नहीं है, लेकिन उसके बाद क्या? हारने के बाद कह देंगे कि अंबानी तथा अडानी का मनी-पावर जीत गए। लेकिन सवाल तो है कि वे वाराणसी करने क्या जा रहे हैं? क्या उन्होंने दिल्ली को बचा लिया कि अब देश बचाने निकले हैं? लोगों ने उन्हें वाराणसी में बुलाया नहीं, उनकी पार्टी का वहां आधार नहीं, जीत वे सकते नहीं फिर इस कवायद का मकसद क्या है? अब तो आप के अपने ही धड़ाधड़ पार्टी को छोड़ रहे हैं। कुमार बिसवास ही जो राहुल गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं (किस मकसद के लिए?) टिकट बंटवारे को लेकर ऊंची शिकायत कर चुके हैं। उनका कहना था कि उफनती नदी में गंदे नाले आकर मिल रहे हैं। शाजिया इल्मी भी अपनी आधी बगावत कर चुकी हैं। जिन्होंने पार्टी खड़ी की थी वे महसूस करते हैं कि आप तथा दूसरी पार्टियों के बीच कोई अंतर नहीं रहा। यह भी अजब है कि आप ने उस पूर्व अफसर को टिकट दिया है जिसने अशोक खेमका के राबर्ट वाड्रा की ज़मीन के बारे आदेशों को उल्टा दिया था। केजरीवाल के साथ बंगलौर में डिनर करने के लिए प्रति व्यक्ति 20,000 रुपए लिए गए। इस तरह पैसा इकट्ठा करने की प्रथा अमेरिकी राजनीति में है लेकिन केजरीवाल तो आम आदमी हैं। कम से कम उनका ऐसा दावा है। ऐसे डिनर पर आम आदमी की तो कई महीनों की कमाई उड़ जाएगी।

वे चुनौती दे रहे हैं ताकि जिसे चुनौती दी जा रही वह उन्हें मान्यता देने की मेहरबानी करे और उनका धंधा चलता रहे पर आम चुनाव बहुत गंभीर मामला है। न ही वाराणसी नई दिल्ली है और न ही नरेंद्र मोदी शीला दीक्षित हैं। वाराणसी से तो सपा या बसपा भी जीत नहीं सके आप कैसे जीत जाएगी? शायद इतिहास में अपना नाम दर्ज करवाना चाहते हैं कि इस शख्स ने मोदी का मुकाबला किया था। वाराणसी से उन्हें कोई बुलावा नहीं आया। घाटों पर या गलियों में उनके आने पर कोई उत्साह नहीं है क्योंकि लोग जानते है कि दूसरी तरफ वे भावी प्रधानमंत्री की मेज़बानी कर रहे हैं। केजरीवाल उतावले है। एक दम राष्ट्रीय राजनीति में छा जाना चाहते हैं। वे अपनी हैसीयत से अधिक दहाड़ रहे हैं। 16 मई को हकीकत से सामना हो जाएगा।

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.