इस ‘कश्मीरियत’ के क्या मायने?

 इस ‘कश्मीरियत’ के क्या मायने?

यह अच्छी बात है कि मेरठ के निजी विश्वविद्यालय ने उन 67 कश्मीरी छात्रों का निलंबन वापिस ले लिया जिन्हें एशिया कप में भारत-पाक मैच के बाद पाकिस्तान की जीत पर खुशी मनाने तथा पाकिस्तान के पक्ष में नारे लगाने के लिए बाहर निकाला गया था। लेकिन यह प्रकरण बहुत असुखद सवाल भी छोड़ गया है। ये छात्र प्रधानमंत्री की छात्रवृत्ति योजना के अंतर्गत यहां भेजे गए थे फिर भी उस हरकत में लग गए जो निश्चित तौर पर उत्तेजना पैदा करने वाली थी और जिसे बाकी के छात्र बिल्कुल पसंद नहीं करते। ठीक है यह आयु ऐसी है जहां कई प्रकार की बेवकूफियां की जाती हैं लेकिन यह घटना एक बार फिर देश विरोधी मानसिकता को प्रदर्शित करती है जिसे कश्मीर वादी में नेताओं द्वारा पाला तथा प्रेरित किया जाता है। दशकों से कश्मीर में यह मानसिकता फैलाई जा रही है कि जो ‘इंडिया’ के खिलाफ है उसका जश्न मनाया जाना चाहिए। इन छात्रों ने वही किया जो इन्हें सिखाया गया कि भारत को लताड़ों और भारत के दुर्भाग्य (चाहे वह क्रिकेट में ही हो) पर तालियां बजाओ।

कश्मीरी बार-बार Alienation अर्थात् पृथक्करण की अपनी भावना का ज़िक्र करते हैं। यह वह ब्लैकमेल है जिसका बहुत इस्तेमाल हो चुका है। लेकिन क्या कभी इन लोगों, विशेष तौर कश्मीरी नेताओं, ने यह सोचा है कि इन हरकतों का बाकी देश में क्या असर पड़ता है? प्रायः कश्मीरी शिकायत करते हैं कि उन्हें बाकी देश में शक की निगाह से देखा जाता है क्या इसका कारण भी ये मेरठ जैसी घटनाएं नहीं हैं जिनकी प्रतिक्रिया होती है? कश्मीरियों का हित इसी में है कि वे देश की मुख्यधारा में शामिल हो कर देश की तरक्की का हिस्सा बनें लेकिन आज़ादी के बाद से सिखाया यह गया है कि वे अलग हैं। वे भारत का इस्तेमाल तो कर सकते हैं लेकिन अलग रह कर और अपनी Alienation का ढिंढोरा पीट फायदा उठाते रहते हैं। प्रति व्यक्ति कश्मीरियों को जो केंद्रीय मदद मिलती है वह किसी और प्रदेश के लोगों से कहीं अधिक है, बिहार तथा उड़ीसा जैसे पिछड़े प्रदेश के लोगों को भी नहीं मिलती। कश्मीरी तो अपना बिजली का बिल भी ठीक से अदा नहीं करते जिसका रंगीन भाषा में वर्णन फारुख अब्दुल्ला कर चुके हैं। फिर भी पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगते रहते हैं। ये लोग क्यों नहीं समझते कि बाकी देश की भी भावना है जिसका उल्लंघन नहीं होना चाहिए।

जब हुर्रियत वाले हर पाकिस्तानी लीडर को मिलने पहुंच जाते हैं और भारतीय नेताओं से मिलने से इंकार करते हैं तो इसकी प्रतिक्रिया होती है। जब उमर अब्दुल्ला जैसा नेता अनावश्यक कश्मीर के संघ के साथ विलय का मामला खोलने का प्रयास करता है तो इसकी प्रतिक्रिया होती है। पहले ही बड़ी शिकायत है कि कश्मीरी पंडितों को वहां से निकाल दिया गया। वास्तव में Alienation तो उनकी हुई है। अपने घरों से तथा अपनी ज़मीन से उन्हें अलग कर दिया गया। कश्मीर एकमात्र क्षेत्र है जहां मुसलमान बहुसंख्यक हैं वहां के अल्पसंख्यकों के साथ क्या सलूक किया गया? यह केवल भारत जैसा उदार देश है जो बर्दाश्त कर गया नहीं तो तिब्बत में चीनियों ने तथा क्रीमिया में रूस ने जो किया वह हमारे सामने ही है। यहां कश्मीरी नेताओं को विशेष सुरक्षा मिलती है। बीमार होते हैं तो दिल्ली में उनका मुफ्त इलाज करवाया जाता है फिर भी वह भारत विरोधी भावना को उबालते रहते हैं। इनकी इस शरारत का शिकार ये गुमराह हुए 67 नादान छात्र हुए हैं। लीडरों की अपनी दुकानदारी चल रही है लेकिन आम कश्मीरी का तो इस ‘कश्मीर बनाम इंडिया’ मानसिकता से नुकसान हो रहा।

जनसंघ के समय से ही पार्टी के तीन विशेष सिद्धांत रहे हैं, समान नागरिक कानून, राम मंदिर तथा धारा 370 का विरोध। समान नागरिक कानून तथा राम मंदिर को तो भाजपा पहले छोड़ चुकी है पर अब लगता है कि धीरे धीरे धारा 370 का विरोध भी नरम किया जा रहा है। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने इस पर बहस को आमंत्रित किया है कि इसका फायदा हुआ है या नहीं? इससे एक कदम आगे जाते हुए पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कह दिया कि पार्टी को इस धारा को संविधान में रखने पर कोई आपत्ति नहीं होगी अगर इससे प्रदेश का विकास हुआ है या लोगों का कल्याण हुआ है। ‘अगर’ जरूर लगाया गया पर संकेत और संदेश तो यही है कि भाजपा इस मुद्दे पर अपने कदम पीछे ले रही है। क्या भाजपा तथा उसके नेताओं को अभी तक मालूम नहीं कि इस धारा का जम्मू कश्मीर तथा देश को फायदा हुआ है या नहीं?

कई दशकों से जनसंघ और फिर भाजपा धारा 370 को जम्मू कश्मीर के बाकी देश के साथ विलय में बाधा बताते आ रहे हैं। श्यामा प्रसाद मुखर्जी की कुर्बानी भी इसी कारण हुई थी। इस मुद्दे पर कलाबाजी खा कर भाजपा अपने आप को अधिक उदार साबित करने का प्रयास कर रही है लेकिन जनता तो इस कलाबाजी से भौंचक्की रह गई है कि पार्टी के मूल सिद्धांत कहां गए? आखिर धारा 370 का देश को फायदा क्या हुआ है? प्रदेश भी पिछड़ा है। केंद्र से आर्थिक सहायता पर निर्भर है। इसी धारा के कारण बाकी देश वहां निवेश नहीं कर सकता। बेरोजगारी बढ़ रही है जो सड़कों पर बार-बार प्रदर्शन से पता चलती है। पत्थरबाजी एक व्यवसाय बन चुका है। हां, चंद कश्मीरी मुस्लिम विशिष्ठ परिवार हैं जिन्हें यह स्थिति बहुत माफिक बैठ रही है। राजनीति और प्रशासन इनके कब्ज़े में है। कभी कभार प्रदेश के देश के साथ विलय का मामला उछाल कर, जैसा वर्षों से अब्दुल्ला परिवार करता आ रहा है, वे केंद्र को ब्लैकमेल करने का प्रयास भी करते हैं। अलगाव भी वहां एक व्यवसाय बन गया है। हड़तालों तथा प्रदर्शनों से कश्मीर का क्या सुधार हुआ है? मिलिटैंसी का भी बड़ा कारण है कि धारा 370 के कारण अलगाव की भावना का पोषण किया गया। यह जानकारी भी बड़ी दिलचस्प होगी कि कितने ऐसे अलगाववादी नेता हैं जो दोनों तरफ से पैसे लेते हैं? इनकी आमदन का साधन क्या है?

इसी धारा का घातक परिणाम है कि कश्मीरी पंडितों को कश्मीर से निकाल दिया गया। उमर अब्दुल्ला का कहना है कि कश्मीरी पंडितों में सुरक्षा भरने के प्रयासों में गति लाने की जरूरत है लेकिन यह होगा कैसे? ट्विटर के द्वारा तो हो नहीं सकता। जिन लोगों ने कश्मीरी पंडितों को वहां से निकलने पर मजबूर कर दिया वे आज भी उन्हें वापिस आने की सूरत में उन्हें धमकियां दे रहे हैं। कड़वी हकीकत है कि कश्मीरी पंडित भारत मां की वे अभागी देशभक्त औलाद हैं जिसे देश भूल गया है। लावारिस छोड़ दिया गया है। यह देश का सबसे शिक्षित समुदाय है लेकिन 25 वर्षों से देश में धक्के खा रहा है। जम्मू कश्मीर की सरकारें उनकी वापिसी के बारे पूरी तरह से बेईमान रही हैं। रूचि ही नहीं है।

पिछले सप्ताह जम्मू में नरेंद्र मोदी का कहना था कि ‘वाजपेयी द्वारा दिखाए रास्ते इंसानियत, लोकतंत्र तथा कश्मीरियत को हम आगे बढ़ाएंगे।’ जहां तक इंसानियत और लोकतंत्र की बात है यह तो होना ही चाहिए पर ‘कश्मीरियत’ से क्या मायने? अगर कश्मीरियत भाईचारा तथा सद्भावना की प्रतीक समझी जाती है तो क्या कारण है कि लाखों कश्मीरी पंडित आज कश्मीर से बाहर भटक रहे हैं? इस नसली सफाई को रोकने के लिए ‘कश्मीरियत’ क्यों नहीं तड़प उठी? 25 वर्षों के बाद भी आज वह अपने घर नहीं लौट सकते फिर यह कश्मीरियत किस काम की? ‘आईडिया ऑफ इंडिया’ पर एक बढिय़ा लेख में शबाना आज़मी ने लिखा है, ‘अगर आप एक कश्मीरी हिन्दू तथा एक कश्मीरी मुसलमान को देखें तो अपनी सांस्कृतिक पहचान तथा अपनी कश्मीरियत के कारण उनमें कश्मीरी मुसलमान तथा तमिलनाडु के मुसलमान के बीच से बहुत अधिक सांझ है…।’ किस सांझ या कश्मीरियत की बात कर रही है शबाना आज़मी? पंडित तो कश्मीर में रहे नहीं, फिर कैसी सांझ? कैसी कश्मीरियत? और क्या कारण है कि कई दूसरे मुद्दे उठाने वाले शबाना आज़मी जैसे सामाजिक एक्टिविस्ट ने कभी कश्मीरी पंडितों के साथ हुए जुल्म का मामला नहीं उठाया?

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Chander Mohan is the grandson of the legendary editor of Pratap, Mahashya Krishan. He is the son of the famous freedom fighter and editor, Virendra. He is the Chief Editor of ‘Vir Pratap’ which is the oldest hindi newspaper of north west india. His editorial inputs on national, international, regional and local issues are widely read.