‘मयखाने’ में कांग्रेस
सोनिया गांधी ने जामा मस्जिद के इमाम सईद अहमद बुखारी को बताया कि कुछ हिचकिचाने के बाद उन्होंने राजनीति में प्रवेश करने का फैसला इसलिए किया ताकि ‘सैक्यूलरिज़्म’ को बढ़ाया जा सके। अभी तक तो यही समझा गया था कि कांग्रेस पार्टी में अपने परिवार की परम्परा कायम रखने के लिए सोनिया ने राजनीति में कदम रखा था लेकिन यहां वह इमाम बुखारी से कह रही थी कि नहीं, सब कुछ धर्मनिरपेक्षता के कारण किया गया। और इस कथित धर्मनिरपेक्षता को बचाने के लिए उन्होंने किस का सहारा लिया? इमाम बुखारी! जिनका कहना है कि फिरकापरस्ती भ्रष्टाचार से बड़ी बुराई है। पर एक तरफ धर्मनिरपेक्षता तो दूसरी तरफ इमाम बुखारी? क्या कांग्रेस की अध्यक्षा को इसमें विरोधाभास नज़र नहीं आया? इमाम बुखारी जो सदा से ही मुस्लिम कार्ड खेलते आ रहे हैं का धर्मनिरपेक्षता से क्या रिश्ता है? और उनसे सोनिया गांधी ने कहा भी क्या? कि वह यह देखे कि मुस्लिम वोट
बंट न जाए। धर्म के नाम पर शर्मनाक ढंग से सियासत की जा रही है पर फिर भी सब कुछ ‘सैक्यूलर’ है?
जामा मस्जिद के इमाम पिता-पुत्र ने राजनीतिक दलों को कभी भी निराश नहीं किया। दिल्ली की सबसे मशहूर मस्जिद के अपने इमाम पद का इस परिवार ने सदा ही दुरुपयोग किया है पर कांग्रेस भी क्या राजनीति कर रही है? क्या अपने दस साल के शासन के बारे उनके पास बताने को कुछ नहीं कि उसे अपने पक्ष में मुस्लिम वोट डलवाने के लिए इमाम की शरण में जाना पड़ रहा है? मुसलमानों के नाम पर जो स्कीमें जारी की गई वे क्यों कामयाब नहीं हुई? हैरानी यह भी है कि आज के युग में जबकि देश आगे की तरफ देख रहा है कांग्रेस पार्टी 19वीं सदी की राजनीति कर रही है। आज के युग में इमामों की बात कौन सुनता है? जामा मस्जिद के इर्दगिर्द दुकानदारों पर उनका प्रभाव अवश्य है लेकिन उस घेरे के बाहर तो कोई प्रभावित नहीं होता। क्या कांग्रेस पार्टी ने आधुनिक बनने के सारे प्रयास छोड़ दिए? रोटी, कपड़ा, मकान, रोजगार, शिक्षा, विकास, स्वास्थ्य आदि के मुद्दे खत्म हो गए कि इमाम की शरण में जाना पड़ा?
भाजपा और नरेंद्र मोदी पर वोट के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का आरोप लगाने वाली कांग्रेस पार्टी खुद भी यही करती नज़र आ रही है। इस नीति के बारे तो यही कहा जा सकता है:
कथनी और करनी में फर्क क्यों है या रब्ब
वो जाते थे मयखाने में कसम खाने के बाद!
और यह भी नहीं कि मुसलमान इमाम बुखारी की बात सुनने को तैयार हो जाएंगे। कई मुस्लिम बुद्धिजीवी कह रहे हैं कि बुखारी महज़ इमाम है वह मुफ्ती नहीं कि उनका फैसला मानना पड़े। थियेटर निर्देशक आमिर रज़ा का कहना है कि ‘मुसलमान कोई माल नहीं जो बेचा जा सके।’ बुखारी साहिब भी कई पैंतरे ले चुके हैं। 2012 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने समाजवादी पार्टी को समर्थन दिया था। उससे पहले वे बसपा समेत कई अन्य पार्टियों को समर्थन दे चुके हैं। अब झुकाव कांग्रेस की तरफ है। सोनिया गांधी मोदी का हौवा दिखा कर अल्पसंख्यकों को भयभीत कर अपनी तरफ खींचने का प्रयास कर रही है। विडंबना है कि मोदी का सारा अभियान विकास तथा भविष्य पर केंद्रित है भारत की तरक्की पर केंद्रित है जबकि सोनिया गांधी एक बार फिर उसी घिसीपिटी राजनीति का सहारा ले रही है जिसे जनता रद्द कर चुकी है। यह स्वीकार कर लिया गया है कि राहुल सफल नहीं हो रहे इसलिए कांग्रेस अध्यक्षा खुद मैदान में कूद पड़ी है लेकिन जो राजनीति वह अब कर रही है इसका नुकसान हो रहा है। सोनिया गांधी के पतन पर अफसोस है। अपनी सत्ता के आखिरी दिनो में वह सिद्धांतों से यह घिनौना समझौता कर रही है। ‘कुर्बानी’ से शुरू हुई उनकी राजनीति का क्या घटिया अंत होगा कि उन्हें इमाम बुखारी से समर्थन की गुहार करनी पड़ी।
असली सवाल तो यह है कि लोग क्या चाहते हैं? क्या उन्हें धर्म/जाति की चिंता है या आर्थिक मुद्दे हावी हो रहे हैं? लोक फाऊंडेशन द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार ‘अच्छी आर्थिकता का मतलब अच्छी राजनीति है।’ अर्थात् लोगों का अधिक ध्यान आर्थिक विषयों पर है। कुछ सालों में लोग घिसीपिटी जाति या मजहब पर आधारित राजनीति से हट रहे हैं। मुसलमान भी अब आर्थिक मामलों को प्राथमिकता दे रहे हैं। आखिर अगर विकास होगा तो मुसलमानों को भी बराबर का फायदा होगा। यह संभव नहीं कि विकास की दर मुसलमानों को अछूता छोड़ जाएगी। पहला बड़ा मुद्दा महंगाई है। 2009 में जब मनमोहन सिंह की सरकार बनी थी तो उन्होंने 90 दिनों में महंगाई को काबू करने का वादा किया था लोग आज तक इंतज़ार कर रहे हैं। सरकार महंगाई के कई तर्क देती है कि लोग अधिक खर्च रहे हैं, अधिक खा रहे हैं, अधिक कपड़े डाल रहे हैं पर जनता इन तर्कों से प्रभावित नहीं है। दूसरा बड़ा मुद्दा बेरोजगारी है। आर्थिक दर गिरी है जिससे बेरोजगारी बढ़ी है। यूपीए I में आर्थिक दर 9 प्रतिशत के करीब थी जो यूपीए II में गिर कर 5 प्रतिशत से नीचे आ गई है। इससे रोजगार का पहिया धीमा पड़ गया है। देश तेज़ी से युवा हो रहा है शिक्षा का विस्तार हो रहा है। पढ़े-लिखे बेरोजगार किसी भी समाज को अस्थिर करने की क्षमता रखते हैं। अगली सरकार के लिए यह विशेष चुनौती होगी।
तीसरा मुद्दा भ्रष्टाचार है। यूपीए II के दौरान जो महाघोटाले हुए हैं वे लोगों के दिमाग पर छा गए हैं। इस देश से भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता लेकिन इसकी दर तो कम हो सकती है। मनमोहन सिंह सरकार के समय तो यह बेलगाम हो गया था। ऐसी पारदर्शी व्यवस्था चाहिए जो भ्रष्टाचार की गुंजायश को कम कर दे। चौथा लोग सुशासन तथा जवाबदेह प्रशासन चाहते हैं। वास्तव में अगर शासन अच्छा होगा तो बाकी सभी जरूरतें खुद ही पूरी हो जाएंगी। सरकार ऐसी चाहिए जो संवेदनशील हो तथा जिसका लोगों के साथ सम्पर्क हो। आज सरकारी सेवाओं का जो बुरा हाल है वह इसी ढील का परिणाम है। पांचवां मुद्दा धर्मनिरपेक्षता का है। कांग्रेस तथा वामदल इसे अधिक उठाते रहते हैं क्योंकि इससे उनके अस्तित्व को वैचारिक वैधता मिलती है पर अब यह मुद्दा ज्वलंत नहीं रहा। अगर लोगों की इस सैक्यूलर नॉन-सैक्यूलर बहस में दिलचस्पी होती तो वामदल हाशिए पर न चले जाते। इसका एक और प्रमाण भी है। नीतीश कुमार एनडीए को छोड़ गए थे क्योंकि उनके अनुसार वह अपने ‘सैक्यूलर सिद्धांतों’ से समझौता नहीं कर सकते। लेकिन नौ महीने में ही नरेंद्र मोदी का रूतबा बहुत ऊपर चले गया जबकि नीतीश नीचे गिरते जा रहे हैं। नीतीश का मानना था कि 2014 का अभियान सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता पर चलाया जाएगा और वे कथित धर्मनिरपेक्ष नेताओं की अगली पंक्ति में अपनी जगह बनाना चाहते थे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ क्योंकि लोगों का ध्यान इस बार आर्थिक मुद्दों पर है, सुशासन पर है। भावनात्मक मुद्दों से लोगों को बहुत बेवकूफ बनाया जा चुका है। इस बार न 1984 के दंगे, न 2002 के दंगे, न गांधीजी की हत्या, न गांधी परिवार का योगदान ही मुद्दा है। लोग सीधी तरह से अच्छे प्रशासन के लिए तरस रहे हैं। यह चुनाव सबसे ‘धर्मनिरपेक्ष’ चुनाव होगा। जहां तक इमाम साहिब की सिफारिश का सवाल है, वे हर चुनाव में किसी न किसी के गले में धर्मनिरपेक्षता का खोटा गोल्ड मैडल डाल देते हैं। इसका माकूल जवाब देने की जरूरत है, लेकिन मतदान द्वारा।
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