नौकरशाह और चुनाव
एक नया विवाद खड़ा हो गया है। भाजपा ने वर्तमान सरकार द्वारा नए थलसेनाध्यक्ष की प्रस्तावित घोषणा को लेकर आपत्ति की है। जनरल बिक्रम सिंह जुलाई में रिटायर हो रहे हैं। परंपरा है कि नए थलसेनाध्यक्ष की घोषणा नियुक्ति से तीन महीने पहले कर दी जाती है जिसका मतलब है कि यह घोषणा अब हो जानी चाहिए। भाजपा का कहना है कि जो सरकार जाने वाली है उसे ऐसी नियुक्ति नहीं करनी चाहिए। इसी महीने मनमोहन सिंह सरकार एडमिरल धवन को नए नौसेना अध्यक्ष घोषित कर चुकी है। इस पर तो आपत्ति नहीं की गई पर नए थलसेना अध्यक्ष को लेकर तीखा ऐतराज़ जताया जा रहा है। सरकार का कहना है कि नए थलसेनाध्यक्ष की नियुक्ति उसके अधिकार क्षेत्र में आती है। चुनाव आयोग की भी ऐसी किसी नियुक्ति के बारे कोई पाबंदी नहीं है। 31 जुलाई को जनरल बिक्रम सिंह रिटायर हो रहे हैं और संभावना है कि उनकी जगह लै. जनरल दलबीर सिंह सुहाग लेंगे। जब जनरल वी.के. सिंह थलसेनाध्यक्ष थे तो उन्होंने लै. जनरल सुहाग की पदोन्नति पर पाबंदी लगाई थी कि उत्तर पूर्व में खुफिया आप्रेशन के दौरान वे अपनी जिम्मेवारी से भाग गए थे लेकिन जनरल बिक्रम सिंह ने यह पाबंदी हटा दी थी जिसके बाद लै. जनरल सुहाग सिंह की पदोन्नति की गई। सरकार का कहना है कि यह नियुक्ति गैर-राजनीतिक है और वरिष्ठता को देखते हुए की जा रही है। जहां तक वरिष्ठता का सवाल है नए नौसेनाध्यक्ष की नियुक्ति के वक्त सबसे वरिष्ठ एडमिरल शेखर सिन्हा को नज़रंदाज किया गया। शायद इसलिए कि वे नौसेना की पश्चिमी कमान को देख रहे थे जहां पनडुब्बियों में दुर्घटनाएं हुई थी।
किसी भी सेना के अध्यक्ष की नियुक्ति राजनीति का मामला नहीं होना चाहिए। जनरल वी.के. सिंह ने कभी भी इस बात को नहीं छिपाया कि उन्हें जनरल बिक्रम सिंह तथा जनरल सुहाग अपने उत्तराधिकार के रूप में पसंद नहीं हैं। लेकिन आखिर में यह मामला केंद्रीय सरकार तथा रक्षा मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र का है। जनरल वी.के सिंह ने जो राय देनी थी वह कागज़ो में दे चुके हैं उस राय को मानना या न मानना सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है। वैसे भी जनरल वी. के. सिंह अधिक मुखर रहे हैं। दिलचस्प है कि 2004 में नए नौसेनाध्यक्ष एडमिरल अरुण प्रकाश की नियुक्ति की घोषणा हार मानने से दो दिन पहले 11 मई को एनडीए सरकार ने की थी। इसलिए अब भाजपा आपत्ति नहीं कर सकती। सरकार ने नए लोकपाल की नियुक्ति अगली सरकार के लिए छोड़ दी है। पहले यहां भी प्रयास किया गया पर मामला बहुत उलझा हुआ है इसलिए समझदारी दिखाते हुए कदम वापिस ले लिया गया। लेकिन थलसेनाध्यक्ष की नियुक्ति का मामला अलग है इस पर राजनीति नहीं होनी चाहिए।
इसी के साथ यह सवाल भी उठता है कि पूर्व नौकरशाहों को राजनीति में दाखिल होना चाहिए या नहीं? इस बार कई पूर्व अफसरों को राजनीतिक दलों ने खुशी से प्रवेश दिया है। क्योंकि भाजपा के सत्ता में आने की संभावना है इसलिए एक पूर्व थलसेनाध्यक्ष, एक पूर्व गृह सचिव, एक पूर्व रॉ प्रमुख सब भाजपा में शामिल हो चुनाव लड़ रहे हैं। तृणमूल कांग्रेस तथा बसपा भी अफसरशाहों को टिकट दे चुके हैं। पर क्या यह जायज़ है? क्या पूर्व सिविल या पुलिस या सैनिक अधिकारियों को राजनीति में कदम रखना चाहिए? अमेरिका में आईज़नहावर जो सेनाध्यक्ष रहे थे, राष्ट्रपति बन चुके हैं। फ्रांस में जनरल डी गॉल राष्ट्रपति बने थे और दमदार प्रशासन दिया था। वहां यह उचित समझा गया पर क्या यह यहां उचित होगा? पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल वी.पी मलिक का कहना है कि ‘पूर्व फौजी अच्छे राजनेता बन सकते हैं।’ उनका कहना है कि धर्मनिरपेक्षता, अनुशासन, ईमानदारी, वफादारी तथा दोस्ती सशस्त्र सेनाओं के मूलभूत सिद्धांत हैं। इसके कुछ अपवादों के बावजूद फौजी देश की अच्छी सेवा कर सकते हैं और जनता में उनकी अच्छी छवि है। लेकिन जनरल मलिक को एक चिंता अवश्य है कि राजनीति की छवि बहुत गिर चुकी है। पूर्व फौजियों के लिए इन बिछी हुई सुरंगों पर से गुज़रना और अपनी ईमानदारी कायम रखना एक चुनौती होगी।
जहां पूर्व फौजियों या अफसरों के राजनीतिक दलों में शामिल होने या चुनाव लडऩे पर कोई पाबंदी नहीं वहां याद रखने की जरूरत है कि हमारी सिविल सर्विस जिसका काम निर्वाचित सरकार के आदेशों का पालन करना है को राजनीतिक तौर पर तटस्थ रखा गया है, जैसा इंग्लैंड में है। अमेरिका में ऐसा नहीं। वहां राजनीतिक दल अपने चहेतों को उच्च पदों पर तैनात करते हैं और उनकी वफादारी इन दलों के प्रति होती है। हमारे यहां यह वफादारी निर्वाचित सरकार, कोई भी हो, के प्रति समझी जाती है ताकि अगर सरकार बदल जाए तो समस्या न आए। ऐसी स्थिति में अगर रिटायर हो कर या उससे पहले कोई नौकरशाह किसी दल में शामिल होता है तो यह सवाल जरूर उठेगा कि सरकार में रहते हुए उसके निर्णयों के पीछे उस राजनीतिक दल का हित तो नहीं जुड़ा था? इसी को देखते हुए 2012 में चुनाव आयोग ने यह सिफारिश की थी कि किसी नौकरशाह को रिटायर होने तथा राजनीति में प्रवेश करने के बीच कुछ अवधि होनी चाहिए। सरकार ने यह सिफारिश मानी नहीं। सरकार का तर्क है कि चुनाव लडऩे का अधिकार नागरिक अधिकारों में शामिल है और इस पर पाबंदी नहीं लगाई जानी चाहिए। लेकिन मैं जरूर मानता हूं कि पूर्व नौकरशाह के रिटायरमैंट के बाद राजनीति में प्रवेश में कुछ समय सीमा होनी चाहिए नहीं तो ‘कंफलिक्ट ऑफ इंटरेस्ट’ अर्थात् हितों का टकराव हो सकता है। हाल ही में हम पूर्व गृहसचिव आर के सिंह जो भाजपा में शामिल हैं तथा गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के बीच काफी तू-तू, मैं-मैं हो चुकी है। मैं इसे सही नहीं समझता। बेहतर तो होगा कि पूर्व नौकरशाह राजनीति से दूर रहें। अगर यह नहीं हो सकता तो उनके सरकारी सर्विस छोडऩे तथा राजनीति में प्रवेश करने में कम से कम दो साल का फासला होना चाहिए।