
छोटे मियां सो छोटे मियां बड़े अब्दुल्ला सुभान अल्लाह!
शेख अब्दुल्ला, फारुख अब्दुल्ला और अब उमर अब्दुल्ला। कश्मीर के किसी भी परिवार को इतना महत्त्व तथा इतनी सत्ता नहीं मिली जितनी अब्दुल्ला परिवार को मिली है। पर अफसोस की बात है कि उमर अब्दुल्ला भी अपने पिता तथा दादा के नक्शे कदम पर चल रहे हैं। हर कुछ समय के बाद देश को धमकी देना शुरू कर देते हैं। परिवार कोई न कोई मसला उठाता रहता है ताकि यह प्रभाव जाए कि जम्मू कश्मीर का बाकी देश के साथ रिश्ता अनिश्चित है और अगर अधिक परेशान किया गया तो हम बगावत तक कर सकते हैं। बिहार में गिरिराज सिंह के बयान कि जो नरेंद्र मोदी की आलोचना करते हैं उनके लिए देश में कोई जगह नहीं वे पाकिस्तान जा सकते हैं, पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उमर अब्दुल्ला का कहना है कि वे पाकिस्तान जाने के लिए तैयार हैं और वे इसके लिए उड़ान पकडऩे दिल्ली भी नहीं जाएंगे बल्कि श्रीनगर-मुजफ्फराबाद बस के द्वारा उस तरफ चले जाएंगे।
लेकिन क्या उमर अब्दुल्ला ने यह नहीं देखा कि जिस पाकिस्तान जाने की वह धमकी दे रहे हैं उसकी हालत क्या है? यहां तो वह तथा उनके पिताश्री जो भी कहे उसे बर्दाश्त किया जाता है, उनकी खुशामद की जाती है, पर पाकिस्तान में विरोध की हालत क्या है यह पत्रकार हामिद मीर तथा रज़ा रूमी पर हुए हमलों से पता चलता है। नवाज शरीफ के पहले ग्यारह महीने में 8 पत्रकार मारे जा चुके हैं। वहाँ तो हालत है कि ‘जो सर उठा कर चले वह बेसर के हो गए!’ क्या उमर अब्दुल्ला जिन्हें अपना दैनिक ट्विटर बहुत पसंद है उस देश की घुटन में रह सकते हैं? क्या ऐसे फटेहाल देश में वह अब्दुल्ला परिवार रह सकता है जिसे यहां भारी शानोशौकत और मौज मस्ती में रहने की आदत है? अक्तूबर 1996 में फारुख अब्दुल्ला ने हुर्रियत के नेताओं को कहा था कि अगर वे कश्मीर के भारत के साथ विलय पर सवाल करते रहेंगे तो वे अपना बोरिया बिस्तर बांध कर पाकिस्तान जा सकते हैं। अलगाववादियों ने इस टिप्पणी पर बहुत आपत्ति की थी लेकिन एक भी आदमी पाकिस्तान नहीं गया। आज भी जाने को तैयार नहीं होंगे क्योंकि वहां वह आज़ादी नहीं मिलेगी जो यहां मिलती है और जिसका वे गलत इस्तेमाल लगातार करते रहते हैं। लेकिन इसी विलय को लेकर खुद अब्दुल्ला परिवार कुछ कुछ समय के बाद सवाल करता रहता है।
चाहे उमर अब्दुल्ला हो या उनके वालिद हों या ये अलगाववादी हों उन्होंने देश को धमकी देना कला में परिवर्तित कर लिया है नहीं तो जम्मू कश्मीर के निर्वाचित मुख्यमंत्री को बिहार के एक गुमनाम भाजपा नेता पर प्रतिक्रिया व्यक्त करने की जरूरत ही नहीं थी। ऐसी मानसिकता बना ली है कि भड़कने तथा भड़काने के लिए तैयार रहते हैं। मौका मिलना चाहिए। जिस देश ने उन्हें इतना कुछ दिया उसे ब्लैकमेल करने का लगातार प्रयास किया जाता है। पर जो वे कहते हैं उसका सारे देश पर असर होता है। देश के कुछ शिक्षा संस्थानों में कश्मीरी छात्रों के साथ जो बदसलूकी हो रही है वह निंदनीय है। उमर अब्दुल्ला इसके लिए अनावश्यक नरेंद्र मोदी को जिम्मेवार ठहराते हैं जबकि इसका कारण कश्मीरी नेताओं के लगातार वे बयान हैं जो देश की जनता को चुभते हैं। इन पर रोक लगनी चाहिए।
उमर अब्दुल्ला का कहना है कि कश्मीर सांप्रदायिक प्रदेश नहीं है। कश्मीर ने दुनिया को कश्मीरियत तथा सहिष्णुता दी है। उन्होंने 1947 का भी ज़िक्र किया जब बाकी देश में नफरत की आग फैल रही थी तो कश्मीर सांप्रदायिक सद्भाव की मिसाल था। यह बात तो सही है पर अब क्या हो गया? वह ‘कश्मीरियत’ तब कहां थी जब कश्मीरी पंडितों को वहां से जबरन निकाला गया था? और क्या यह हकीकत नहीं कि कुछ वर्ष छोड़ कर जम्मू-कश्मीर पर अब्दुल्ला परिवार का ही शासन था? तो क्या इस हालत के लिए यह परिवार जिम्मेवार नहीं है? इन्होंने कश्मीर को शांत होने ही नहीं दिया और अपनी कुर्सी कायम रखने के लिए माहौल में स्थाई उत्तेजना कायम रखी गई। अब नरेंद्र मोदी को लेकर लोगों को भड़काया जा रहा है। फारुख साहिब का कहना है कि मोदी को वोट देने वालों को समुद्र में डूब जाना चाहिए। साथ वे कहते हैं कि ‘भारत कभी भी सांप्रदायिक नहीं हो सकता। अगर यहां सांप्रदायिक तत्व सत्ता में आ गए तो कश्मीर इसका हिस्सा नहीं रहेगा।’ फिर वही पुरानी धमकी। क्या फारुख अब्दुल्ला समझते हैं कि कश्मीर का माहौल इस वक्त धर्मनिरपेक्ष है? अगर ‘धर्मनिरपेक्ष’ है तो कश्मीरी पंडित कश्मीर से बाहर धक्के क्यों खा रहे हैं? वास्तव में इस देश की हज़ारों साल की धर्मनिरपेक्षता की परंपरा को सबसे बड़ा धक्का कश्मीर में लगा या जब अगस्त-सितंबर 1989 में कश्मीरी पंडितों की हत्याएं शुरू हो गई। उस वक्त मुख्यमंत्री कौन था? क्या उस वक्त के मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला साहिब जवाब देंगे कि उनकी धर्मनिरपेक्षता तड़प क्यों नहीं उठी और उन्होंने कश्मीरी पंडितों को सुरक्षा देने तथा उनके पलायन से रोकने का प्रयास क्यों नहीं किया?
कश्मीरी पंडितों का पलायन इस देश की धर्मनिरपेक्षता पर सदैव धब्बा रहेगा। उमर अब्दुल्ला का कहना है कि उन्हें मोदी से सैक्यूलरिज्म का लैक्चर नहीं चाहिए। ठीक है पर किसी और से तो लें ताकि कश्मीर को 1947 वाला कश्मीर बनाया जा सके जहां सब बराबर, महफूस तथा सुखी थे। 1947 के बाद से ही अपनी कुर्सी कायम रखने तथा केंद्र को ब्लैकमेल करने के लिए नैशनल कांफ्रेंस ने कट्टरवाद तथा अलगाववाद को यहां जीवित रखा है। जब मिलिटैंट जनवरी 1990 में पंडितों का उत्पीड़न कर रहे थे तो फारुख अब्दुल्ला वादी को छोड़ कर चले गए थे। बड़ी संख्या में युवा पाकिस्तान से हथियारों की ट्रेनिंग प्राप्त कर लौटे थे। सरकार ने अपनी जिम्मेवारी को बिल्कुल छोड़ दिया था और बागियों के आगे लगभग समर्पण कर दिया था। लेखक राहुल पंडित ने लिखा है कि कश्मीर को अब्दुल्ला परिवार से अधिक किसी ने क्षति नहीं पहुंचाई, ‘कश्मीरी पंडितों की पहली हत्या के बारह दिन के बाद फारुख अब्दुल्ला यामिनी कृष्णामूर्ति के साथ नृत्य कर रहे थे।’ पंडितों की संस्था पानून कश्मीर का कहना है कि 1947 के बाद से ही कश्मीर के अल्पसंख्यक समुदाय को सामाजिक अलगाववाद, राजनीतिक उत्पीड़न तथा आर्थिक निचोड़ का सामना करना पड़ा है। और यह शिकायत गलत नहीं।
कश्मीर में अलगाववाद तथा विरोध की भावना नेताओं ने ही कूट-कूट कर भर दी है। प्रदेश को सदैव अशांत रखा गया। अब जबकि मोदी ने पंडितों के पलायन के लिए अब्दुल्ला परिवार को जिम्मेवार ठहराते हुए उन्हें आयना दिखा दिया तो फिर धमकियों पर उतर आए। ‘कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं रहेगा।’ यह धमकी बार-बार क्यों दी जाती है? क्या किसी में हिम्मत है कि वह कश्मीर को भारत से छीन सके? पाकिस्तान प्रयास करता करता खुद को तबाह कर गया। अब भी ऐसे भड़काने वाले बयान उस वक्त दिए जा रहे हैं जब कश्मीर में एक बार फिर अतिवादी तत्व उभर रहे हैं। हिज़बुल मुजाहिद्दीन गर्मियों में आग लगाने की तैयारी कर रहा है। लै. जनरल (रिटायर्ड) सईद अता हसनैन ने चेतावनी दी है कि कश्मीर इतना ‘रैडिकल’ हो रहा है जितना पहले कभी नहीं था। जिम्मेवार लोगों का दायित्व है कि ऐसी स्थिति को शांत करे लेकिन यहां एक कह रहा है कि ‘मैं पाकिस्तान चले जाऊंगा’ तो दूसरा कह रहा कि ‘कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं रहेगा।’ कोई जवाब नहीं कि कश्मीरियत वाले कश्मीर में पंडित क्यों नहीं है? इसका जवाब देने की जगह फारुख साहिब मोदी को वोट देने वालों को समुंदर में डूब जाने के लिए कह रहे हैं। ऐसा होने से पहले जिनकी लाजवाब कमजोरी, घोर लापरवाही तथा शर्मनाक अवसरवादिता के कारण पंडित घर छोडऩे के लिए मजबूर हुए और आज तक लौट नहीं सके, वह प्रायश्चित्त के तौर पर श्रीनगर की डल झील में डुबकी तो लगा लें!
छोटे मियां सो छोटे मियां बड़े अब्दुल्ला सुभान अल्लाह!,