
बदलने की इंतज़ार में है फिज़ा
इतनी आशा किसी को नहीं थी। मैं दो साल से लिखता आ रहा हूं कि विकल्प केवल नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार है। मैं यह भी लिखता रहा हूं कि कांग्रेस 100 का आंकड़ा पार नहीं करेगी लेकिन यह कल्पना में भी नहीं सोचा था कि भाजपा को ऐसा छप्पड़ फाड़ जनसमर्थन मिलेगा। यह भी कल्पना नहीं थी कि कांग्रेस का इतना बेड़ागर्क होगा कि सौ से आधी सीट रह जाएंगी। जो ‘बौखलाए हुए चूहे’ हैं उन्होंने प्रियंका के प्यारे भाई की इतनी दुर्गत कर दी कि विपक्ष के नेता बनने योग्य भी नहीं छोड़ा। जनादेश स्पष्ट है। लोगों ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भरोसा व्यक्त किया है। जैसे मैंने पिछली बार भी लिखा था ‘केवल मोदी!’ आडवाणीजी का कहना है कि लोगों ने भ्रष्टाचार तथा वंशवाद के खिलाफ मतदान किया। यह सही है पर इससे भी अधिक यह मोदी के पक्ष में सकरात्मक मत है। विकासशील, पारदर्शी, ईमानदार, जवाबदेह, संवेदनशील सरकार के लिए नरेंद्र मोदी के पक्ष में विशाल जनादेश दे दिया गया। अगर मोदी की जगह लाल कृष्ण आडवाणी का नेतृत्व होता तो कतई यह जनादेश नहीं आता। और लोगों ने मोदी को बंधन मुक्त बना दिया है। वह किसी पर आश्रित नहीं। न पार्टी के अंदर उन पर दबाव बन सकेगा न ही गठबंधन साथी ही ब्लैकमेल कर सकेंगे। देश को अपने अनुसार बदलने तथा आगे ले जाने के लिए मोदी आज़ाद है। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव तथा मायावती भी उन्हीं के कारण ध्वस्त हुए हैं। इन लोगों ने जात पात की राजनीति बहुत कर दी लोग अब विकास के लिए तरस रहे हैं।
सैक्यूलर कैंप सदमें में हैं। नरेंद्र मोदी के खिलाफ हर तरह की बदतमीज़ी की गई। चुन चुन कर गालियां निकाली गई। सबसे आगे वह असंतुलित महिला ममता बनर्जी निकल गई लेकिन मोदी कह सकते हैं,
कोई मुझे मिटाएगा क्या बद्दुआ के साथ
थोड़ा बहुत मेरा भी रिश्ता है खुदा के साथ!
2014 के चुनाव की कहानी नरेंद्र मोदी की कहानी है। यह सही है कि उन्होंने सुपर समार्ट अभियान चलाया था। उन्हें इस बात का भी फायदा हुआ कि कांग्रेस के बड़े तीन- मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी तथा राहुल गांधी अधिकतर अपने-अपने किलों में बंद रहे। ऐसे में मोदी के लिए मैदान खाली था। तीसरे मोर्चे को किसी ने गंभीरता से नहीं लिया जो पश्चिम बंगाल में वाम की गत से पता चलता है। प्रकाश करात अपनी पार्टी के पतन की अध्यक्षता कर रहे हैं। टीवी चैनलों पर मोदी के खिलाफ बोलने वाले सैक्यूलर बुद्धिजीवी समझ नहीं पा रहे कि इतना ज़ोर का झटका कैसे लगा? यह अंग्रेजी मीडिया वाले हकीकत से कटे रहते हैं। आज देश का खोया हुआ आत्मविश्वास वापिस आ रहा है। इस जीत में युवाओं की बड़ी भूमिका है। उन्हें जात-पात की चिंता नहीं। उन्हें ‘परिवार’ की ‘कुबार्नियों’ की परवाह नहीं। वे भविष्य की तरफ देख रहे हैं। अगली सरकार के लिए अर्थ व्यवस्था को गति देना तथा महंगाई पर काबू पाना बड़ी चुनौती होगी। लेकिन इस जनादेश का एक पहलू नहीं भूलना चाहिए चाहे इसका ज़िक्र कम होगा। देश के बहुसंख्यकों ने नरेंद्र मोदी को चुना है। ध्रुवीकरण का जवाब उलटे ध्रुवीकरण से दिया गया। उनके पीछे हिन्दू इकट्ठे खड़े हो गए थे। कथित सैक्यूलर पार्टियों की तुष्टिकरण की नीति से तंग आकर लोगों ने उस व्यक्ति तथा उस पार्टी को समर्थन दिया जो दिखावा नहीं करता। जिसे टोपी डालने की जरूरत नहीं।
लोक की ताकत ने उन्हें ध्वस्त कर दिया जो समझते थे कि उन्हें शासन करने का ईश्वरीय अधिकार प्राप्त है। प्रियंका वाड्रा का कहना था कि ‘हमने’ दिल्ली से पैसे भेजे थे। जनता का पैसा है जनता को मिला है प्रियंका मिडलवोमन कैसे बन गई? अहंकार इतना है कि सोनिया गांधी तथा राहुल गांधी ने अभी तक मोदी को बधाई भी नहीं दी। इन लोगों ने सोचा भी नहीं था कि जनता उनसे किस कदर कुढ़ी हुई है,
हो जाता है जिन पे अंदाज़े खुदाई पैदा
हमने देखा है वह बुत्त तोड़ दिए जाते हैं!
हम निश्चित तौर पर गांधी परिवार के बुत्त की शुरूआत के टूटने को देख रहे हैं। सोनिया गांधी तथा राहुल गांधी के अनेतृत्व ने पार्टी को उस जगह ला मारा जहां पार्टी एमरजैंसी के बाद के चुनाव में भी नहीं थी। कैसे समझ लिया गया कि जनता यह पचा जाएगी कि वे तो देश को लैक्चर देते रहें और दामादजी अपनी जयदाद बढ़ाते जाएं? गांधी परिवार की पराजय इस जनादेश का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है पर असली कहानी नरेंद्र मोदी के उत्कर्ष की है। सुषमा स्वराज उन्हें जीत का श्रेय न दें या लाल कृष्ण आडवाणी हिचकिचाएं पर हकीकत यही है कि लोगों का जनादेश मोदी के लिए है। लोग ऐसा प्रधानमंत्री चाहते हैं जो तिनकों का बना हुआ न हो। जिसे निर्णय लेने के लिए पीछे की तरफ देखना न पड़े। जो अपना मालिक खुद हो। यह सही है कि संसदीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री की भी सीमाएं होती हैं। वे ‘फर्स्ट अमंग इक्वलज़’, अर्थात् बराबरों में पहले होते हैं पर मनमोहन सिंह का कष्टदायक परीक्षण देखने के बाद लोग चाहते हैं कि सत्ता, जिम्मेवारी तथा जवाबदेही एक ही दफ्तर में हो। नहीं चाहते कि आदेश किसी का हो जवाबदेही किसी और की हो। प्रतिभा आडवाणी का कहना है कि उनके पिता को पद उनके स्तर के अनुसार मिलना चाहिए। यह बात तो सही है पर पद प्राप्त करना जरूरी है क्या? क्या इस उम्र में आडवाणी एक एल्डर स्टेटसमैन की भूमिका नहीं निभा सकते जो दलगत राजनीति और पद की लालसा से ऊपर उठ कर देश को दिशा दे? आडवाणी ने अपने ब्लॉग में कुछ लोगों के ‘निजी एजंडे’ की शिकायत की थी। वह दिन कब आएगा जब वे अपना निजी एजेंडा छोड़ेंगे?
लोग अधीर हैं। उनके बहुत अरमान हैं। पहले दिन से काम करना पड़ेगा क्योंकि मोदी की छवि ऐसी है कि उन्हें कर्मयोगी समझा जाता है। लोगों ने जात-पात तथा भूगौलिक सीमाओं से ऊपर उठ कर 30 साल के बाद एक पार्टी को अपना बहुमत दिया है। अब कमज़ोर सरकार से मुक्ति मिलनी चाहिए। लोगों का दैनिक जीवन बेहतर होना चाहिए। महंगाई पर नियंत्रण की तत्काल जरूरत है। यह आसान काम नहीं होगा विशेष तौर पर जब खराब मानसून की भविष्यवाणी की जा रही है। शिक्षा तथा स्वास्थ्य पर अधिक खर्च की जरूरत है। बिजली उत्पादन अधिक चाहिए। अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए औद्योगिक निर्माण तेज़ करना होगा। रोज़गार की उपलब्धि बेहतर करने के लिए यह बहुत जरूरी है। नरेंद्र मोदी ने एक तरफ 100 नए शहर बसाने की तथा दूसरी तरफ घर-घर में टायलेट बनाने की जरूरत पर बल दिया है। अर्थात् देश की मूलभूत समस्याओं के बारे सोच है। चिंतन किया जा चुका है। मालूम है कि किधर से किधर जाना है।
उनकी आज लोकप्रियता जवाहरलाल नेहरू तथा इंदिरा गांधी से कम नहीं लेकिन जितनी बड़ी लोकप्रियता है उतनी बड़ी जिम्मेवारी भी है। पहली जरूरत है कि भारत सरकार का इकबाल कायम हो। उनका ट्रैक रिकार्ड बताता है कि अगर कोई कर सकता है तो केवल नरेंद्र मोदी कर सकते हैं। मैं डा. मनमोहन सिंह को स्वामी विवेकानंद का यह कथन याद करवाना चाहता हूं, ‘ किसी समाज का पतन अपराधियों की कारगुज़ारी से नहीं, अच्छे लोगों की निष्क्रियता से होता है।’ अब जबकि ऐसे नेता विदा ले रहे हैं और वह व्यक्ति सत्तारूढ़ हो रहा है जो स्वामीजी का भक्त है, देश में खुशी, उत्साह तथा जोश का माहौल। गुजरात का चायवाला देश का प्रधानमंत्री बनने जा रहा है। यह लोकतंत्र का उत्सव है। उन पर बहुत बोझ है क्योंकि उनसे बहुत आशा है इसलिए बधाई देते हुए इन्कमिंग पीएम नरेंद्र मोदी से कहना चाहूंगा,
जरूरत आज है बज़में अमल सज़ाने की,
उठ और उठ कर बदल दे फिज़ा ज़माने की!
और फिज़ा कह रही है कि वह बदलने की इंतज़ार में है!
बदलने की इंतज़ार में है फिज़ा,