हनीमून पांच साल कैसे चले?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शिकायत है कि दूसरी सरकारों को 100 दिन हनीमून पीरियड मिला था उन्हें तो 100 घंटे भी नहीं मिला और विवाद शुरू हो गए। प्रधानमंत्री शायद रेलवे के किराए तथा भाड़े में वृद्धि या हिन्दी को ‘थोपने’ के कथित प्रयास को लेकर उठे विवादों की तरफ इशारा कर रहे थे। इसके अतिरिक्त पूर्व थलसेनाध्यक्ष वी के सिंह द्वारा आने वाले थलसेनाध्यक्ष लै. जनरल दलबीर सिंह सुहाग पर ट्विटर में टिप्पणी, राज्यमंत्री निहालचंद मेघवाल पर बलात्कार का आरोप तथा स्मृति ईरानी की शैक्षणिक योग्यता के बारे विवाद को लेकर निश्चित तौर पर कुछ बहस हुई है। जिस तरह रेल यात्रा तथा भाड़ा अचानक बढ़ा दिया गया उससे सबको झटका लगा है। चीनी मिलों को बचाने के लिए उपभोक्ता पर बोझ क्यों डाला गया? सरकार इस मामले में जवाबदेह है। विशेष तौर पर इसलिए भी क्योंकि लोगों को नरेंद्र मोदी की सरकार से बहुत आशाएँ हैं कि वह हालात को सुधारेगी और महंगाई कम करेगी पर यहां तो रेल बजट से कुछ दिन पहले किराया भाड़ा बढ़ाया गया। ऐसा तो यूपीए सरकार करती रही। रेलमंत्री सदानंद गौडा केवल रहस्यमय ढंग से मुस्कराते रहे लेकिन बताने का कष्ट नहीं किया कि इतनी बड़ी छलांग लगाने की जरूरत क्या है? महाराष्ट्र में चुनाव के कारण फिर लोकल ट्रेन किराए में रोल बैक भी किया गया।
बहुत जरूरी है कि सरकार तथा जनता के बीच संवाद रहे। पिछली सरकार के पतन का बड़ा कारण था कि प्रधानमंत्री तथा कांग्रेस का नेतृत्व जनता से कटा हुआ था। प्रधानमंत्री मोदी खुद बढिय़ा वार्ताकार हैं। उनका जनता के साथ संवाद केवल इसलिए खत्म नहीं होना चाहिए क्योंकि अब वह विपक्ष के नेता नहीं, प्रधानमंत्री बन गए हैं। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने देश को बहुत विषम परिस्थिति में संभाला था लेकिन उन्हें अहसास था कि उन्हें देश की जनता को साथ लेकर चलना है इसलिए हर स्तर पर संवाद कायम रखा गया। वे संसद में पूरा समय गुजारते थे, मुख्यमंत्रियों को नियमित राष्ट्रीय मुद्दों पर पत्र लिखते, अखबारों में लेख लिखते थे। प्रधानमंत्री मोदी को यह परंपरा कायम रखनी चाहिए। अब तो सोशल मीडिया द्वारा संवाद कायम करना आसान भी बहुत हो गया है। सरकार की उपलब्धियों, नाकामियों, चुनौतियों सब के बारे जनता को मालूम होना चाहिए। आज के भारत में खामोश रहने का विकल्प किसी राजनेता के पास उपलब्ध नहीं हैं। विशेष तौर पर वरिष्ठ मंत्री जनता के सामने आए और बात करे पर यहां तो हर्षवर्धन यह ही नहीं तय कर पा रहे कि स्कूलों में सैक्स शिक्षा होनी चाहिए या नहीं? उनकी पहली बात सही थी कि इसकी कोई जरूरत नहीं क्योंकि बच्चों को अपनी पढ़ाई पर केंद्रित करना चाहिए। सैक्स की झिझक रहनी चाहिए लेकिन अंग्रेजी मीडिया में हमले के आगे हर्षवर्धन मुरझा गए और सही कही गई बात पर मुकर गए। मीडिया, विशेष तौर पर अंग्रेजी मीडिया जिसका अपना एजेंडा है, का सामना कैसे करना है इसकी मंत्रियों के लिए वर्कशाप लगाना जरूरी है। उनके आगे नतमस्तक होने की जरूरत नहीं। रविशंकर प्रसाद, प्रकाश जावेड़कर, स्मृति ईरानी, निर्मला सीतारमन जैसे भाजपा के पूर्व प्रवक्ता सही ट्रेनिंग दे सकते हैं।
जहां सरकार के लिए यह सबसे बड़ी समस्या है कि लोग समझते हैं कि नरेंद्र मोदी आकाश से तारे तोड़ लाएंगे वहां सबसे बड़ी राहत है कि विपक्ष है ही नहीं। कोई राजनीतिक ताकत नहीं जो सरकार के ‘हनीमून पीरियड’ में खलल डाल सके। संसद में आठवीं या नौवीं पंक्ति में दुबके बैठे राहुल गांधी इस सरकार के लिए चुनौती नहीं हो सकते।
राहुल गांधी ने तो नेतृत्व का अपना दावा उस वक्त ही खो दिया था जब लोकसभा में मल्लिकार्जुन खडग़े को कांग्रेस का नेता बनाया गया। आगे आकर नरेंद्र मोदी का मुकाबला उन्होंने नहीं किया जिससे यह प्रभाव मिला कि दम ही नहीं हैं। राहुल गांधी पर जिस तरह जबरदस्ती सोनिया महानता थोपने की कोशिश कर रही है उसके बारे तो कहा जा सकता है,
निज़ामें मैकदा बिगड़ा है इस कदर साकी
कि जाम उन्हें मिला है जिन्हें पीना नहीं आता!
कोई और पार्टी होती तो पार्टी अध्यक्ष उस पार्टी उपाध्यक्ष को बर्खास्त कर देती जिसने पार्टी को जड़ से उखाड़ दिया है लेकिन कांग्रेस पार्टी को गांधी परिवार की निजी जायदाद समझा जाता है जो बात नैशनल हैरल्ड को परिवार द्वारा हथियाने के मामले से भी सिद्ध हो रहा है। दिग्विजय सिंह का कहना है कि राहुल को विपक्ष का नेता बन कर विरोधियों को जवाब देना चाहिए लेकिन अंग्रेजी का मुहावरा कहता है कि आप घोड़े को पानी तक तो ले जा सकते हो, उसे पीने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। यहां तो घोड़ा पानी को पीना तो क्या, पानी को देख कर ही बैक मार रहा है!
ए.के.एंटनी का मानना है कि पार्टी की अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीति के कारण उसकी धर्मनिरपेक्षता पर सवाल उठ रहे हैं। बात बिल्कुल सही है। सोनिया गांधी को शाही इमाम से समर्थन प्राप्त करने से क्या हासिल हुआ? चुनाव से पहले मैंने लिखा था कि नरेन्द्र मोदी के पीछे हिन्दू इकट्ठे हो रहे हैं क्योंकि वे कांग्रेस की तुष्टिकरण की नीति से खफा हैं। सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी ने हिन्दुओं की भावनाओं की परवाह नहीं की जिसका खामियाजा भुगतना पड़ा। लेकिन कांग्रेस ने इस पराजय से कुछ नहीं सीखा जो महाराष्ट्र चुनाव से पहले मुसलमानों को आरक्षण देने के प्रयास से पता चलता है। न यह आरक्षण संविधान के अनुसार है, न ही मुसलमान झांसे में आएंगे, लेकिन कांग्रेस इस तरह फंसी हुई है कि वह ही नुस्खा बार बार आजमाया जा रहा है जो पहले फेल हो चुका है।
सोनिया गांधी ने कांग्रेस को बिल्कुल अपने परिवार की दुकान बना दिया है। फैमिली इज कांग्रेस कांग्रेस इज फैमिली। पार्टी के अंदर भी विद्रोह नहीं हो रहा क्योंकि नाराजगी के बावजूद यह समझ लिया गया है कि नेता फैमिली के बीच से ही होगा। मां-बेटा नहीं तो बेटी। बगावत होने की कोई संभावना नहीं। न ही कोई संभावना है कि राहुल गांधी के रहते पार्टी फिर उभर सकती है। भाजपा की तरह नीचे से एक जननेता नहीं उभर सकता। न ही अटल बिहारी वाजपेयी तथा लाल कृष्ण आडवाणी की तरह दो सांसदो से पार्टी को खड़ा करने का दम ही नज़र आता है।
विपक्ष का इस तरह कमजोर होना देश के हित में नहीं है लेकिन यह आज की हकीकत है कि विपक्ष अपनी अनुपस्थिति के लिए उपस्थित है! प्रधानमंत्री मोदी की स्थिति वही है जो 1952 में प्रधानमंत्री नेहरू की थी या 1971 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की थी या 1984 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी की थी। मोदी भी उसी तरह राजनीतिक क्षितिज पर बुलन्द हैं। न पार्टी के बाहर न पार्टी के अंदर कोई मुकाबला है। लाल कृष्ण आडवाणी भी अब कह रहे हैं कि उन्होंने ट्रिपल सैंचरी लगाई है। पर इस पब्लिक के प्रति प्रधानमंत्री को सावधान रहना चाहिये क्योंकि यह चंचल मिजाज है। अगर इसी तरह महंगाई बढ़ती जाएगी तो हनीमून जल्द खत्म हो जाएगा। क्योंकि यह जनता ही है जो इस हनीमून को पांच साल चला सकती है और यह जनता ही है जो इसे अचानक खत्म कर सकती है।