
इक कतरा-ए-खून न निकला!
सोनिया गांधी गुस्से में हैं। नटवर सिंह की किताब के जवाब में वह अपनी किताब लिखने की धमकी दे रहीं हैं। अच्छी बात है। जो बड़े राजनीतिक व्यक्तित्व हैं उन्हें बताना चाहिए कि उनके जमाने में क्या घटा और क्यों घटा? आशा है वह इस किताब में यह भी जरूर बताएंगी कि क्या कारण था कि कई वर्ष नफरत करने के बाद उन्होंने राजनीति को उस तरह अपना लिया जैसे एक मछली पानी को अपनाती है? आखिर उन्होंने अपने पति राजीव गांधी को उनकी माता इंदिरा गांधी की हत्या के बाद, उनके अपने शब्दों में, ‘टाइग्रेस की तरह’ प्रधानमंत्री बनने से रोका था। लेकिन राजीव की हत्या के छ: सालों के बाद खुद सोनिया कांग्रेस अध्यक्ष बन गई थीं। सवाल पैदा होता है कि वह खुद दो बार प्रधानमंत्री बनने के लिए भी कैसे तैयार हो गई थीं? एक बार मुलायम सिंह तथा अमर सिंह ने अडिंगा दे दिया तो दूसरी बार 2004 में पुत्र राहुल गांधी ने रोक दिया जो बात नटवर सिंह ने अपनी किताब ‘वन लाईफ इज़ नॉट इनअफ’ में बताई है।
इस रहस्योद्घाटन ने सोनिया गांधी तथा कांग्रेस पार्टी का संकट गहरा दिया है। नेशनल हेराल्ड का मामला पहले ही मां-बेटे को परेशान कर रहा है। पार्टी अपने इतिहास में मिली सबसे बुरी पराजय जहां उसे केवल 44 सीटें मिलीं, से जूझ रही है। महाराष्ट्र, हरियाणा, असम आदि प्रदेशों में बगावत फूट रही है। ऊपर से पुत्र राहुल सिद्ध कर रहा है कि वह सोनिया गांधी की तरह मच्छली नहीं जो पानी में घुसने को खुशी से तैयार हो। उसे तो पानी से नफरत नज़र आती है। आखिर राहुल सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि मां ने बताया था कि ‘सत्ता ज़हर है।’ फिर राहलु खुशी से इस ज़हर को क्यों निगलने के लिए तैयार हो? लेकिन इस वक्त तो नटवर सिंह के उस रहस्योद्घाटन की चर्चा कर रहा हूं कि 2004 में सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री बनने से इन्कार इसलिए नहीं किया था क्योंकि उनकी ‘अंदर की आवाज’ इसके लिए तैयार नहीं थी जैसे उन्होंने बताया था, बल्कि इसलिए कि पुत्र राहुल को डर था कि मां का भी वही हश्र न हो जो पिता राजीव तथा दादी इंदिरा का हुआ था।
राहुल की यह चिंता स्वभाविक थी। लेकिन इस एक घटना से सोनिया के इर्दगिर्द त्याग की जो आभा थी वह लुप्त हो गई और लोगों ने देख लिया कि मामला अंदर की आवाज का नहीं, आतंक का था। इस देश में कुर्बानी करने वालों की बहुत इज्जत है। त्याग का बहुत महत्व है। इसीलिए सोनिया गांधी की 2004 के बाद इतनी इज्जत थी कि उन्होंने प्रधानमंत्री का पद ठुकरा दिया लेकिन अब समझ आ रहा है कि इस बुत के भी रेत के पैरे हैं। जिस निर्णय को उन्होंने अपनी अंतरात्मा को श्रेय दिया था वह वास्तव में उनके आतंकित पुत्र का निर्देश था नहीं तो सोनिया जी तो भारत की प्रधानमंत्री बनने के लिए बिलकुल तैयार थीं। उन्हें कई लोगों ने देवी बना दिया। वह स्टेट्सवूमैन बन गईं। अंतरराष्ट्रीय ख्याति मिल गई। देश में कोई उनकी बराबरी नहीं कर सकता था जबकि 18 मई 2004 को कांग्रेस संसदीय पार्टी की बैठक में देश की जनता के साथ बालीवुड स्टाइल नाटक किया गया। वहां सोनिया का कहना था कि ‘सत्ता ने मुझे कभी भी आकर्षित नहीं किया न ही पद मेरा लक्ष्य रहा है।’ सोनिया के इस महानाटक के बाद तो अब यही कहा जा सकता है कि
बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का,
जो चीरा तो इक कतरा-ए-खून न निकला!
सोनिया गांधी के लिए यह 44 सीटों वाले धक्के से भी बुरा है क्योंकि नटवर सिंह ने एक झटके से उनसे उनकी कथित कुर्बानी छीन ली, त्याग की मूर्ति का मुखौटा उतार दिया और बता दिया कि दस साल से कांग्रेस का नेतृत्व देश के साथ बड़ा धोखा करता आ रहा है। पर मानना पड़ेगा कि सोनिया गांधी कुशल राजनीतिज्ञ हैं। दस साल उन्होंने खामोशी से कुर्बानी का लिबास ओढ़ रखा था यह अच्छी तरह जानते हुए कि यह सच्चाई नहीं है।
असली मामला तो सत्ता पर सोनिया की पकड़ थी जिसके बारे संजय बारू ने भी अपनी किताब में जिक्र किया है। संजय बारू ने बताया है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उनसे कहा था, ‘‘देखिए, आप एक बात समझ लीजिए, मैंने इससे समझौता कर लिया है। सत्ता के दो केन्द्र नहीं हो सकते।’’ अर्थात् डा. मनमोहन सिंह कह रहे थे कि उन्होंने यह बात मान ली थी कि सोनिया गांधी ही सत्ता की केन्द्र हैं। सच्चाई है कि मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाते हुए भी सोनिया ने रिमोट कंट्रोल अपने पास रख लिया था। नटवर सिंह का तो मानना है कि सोनिया अपने पति राजीव से अधिक कुशल राजनीतिज्ञ हैं और जवाहरलाल नेहरू तथा इंदिरा गांधी से अधिक ताकतवर। जवाहरलालजी के जमाने में सरदार पटेल, सी. राजगोपालाचार्य, डा. राजेन्द्र प्रसाद, कृपलानी जैसे बहुत नेता थे। सिंडीकेट को पराजित करने के बाद इंदिरा गांधी भी बहुत ताकतवर हो गई थीं लेकिन इंदिराजी संसद तथा जनता के प्रति जवाबदेह थीं। सोनिया मज़े में रहीं क्योंकि सत्ता का आनंद भोगते हुए वह किसी के प्रति जवाबदेह नहीं थीं। जवाबदेह गरीब मनमोहन सिंह थे। सोनिया को जिम्मेदारी के बिना सत्ता मिली हुई थी।
एक परिवार के हित के लिए देश का इस्तेमाल किया गया। सत्ता पर कब्जा करते हुए सोनिया का लक्ष्य पुत्र राहुल को अगला प्रधानमंत्री बनवाना था पर उनका दुर्भाग्य है कि इस मामले में वह बिलकुल असफल रहीं। अगर वह प्रियंका को आगे करतीं तो शायद अधिक सफल रहतीं। राहुल को राजनीति से नफरत लगती है। इसका कारण भी नटवर सिंह की किताब से स्पष्ट होता है। पहले अपनी दादी की फिर अपने पिता की हत्या का इस नौजवान पर गहरा मनोवैज्ञानिक असर पड़ा लगता है। साफ नज़र आता है कि राहुल गांधी घबराए हुए हैं। छोटी उम्र में उन्होंने बहुत कुछ अप्रिय देख लिया है इसलिए असुरक्षा तथा दुर्बलता झलकती है। एक बार वह कह भी चुके हैं कि ‘वह मुझे भी मार देंगे।’ लोकसभा में विपक्ष का नेता बनने में भी दिलचस्पी नहीं दिखाई। उनकी निरंतर होती विदेश यात्राएं भी चर्चा का विषय हैं। जो जिम्मेदारी मिली है वह मां ने जबरदस्ती थोप दी है। परिवार में हुई दो हत्याएं उन्हें अभी तक परेशान करती हैं।
राहुल गांधी का यह नकारात्मक रवैया समझ आता है। लेकिन अगर इतनी परेशानी है तो उन्हें राजनीति के इस पारिवारिक बिजनेस से किनारा कर लेना चाहिए। वह राजनीति में रहते हुए उससे बाहर नहीं रह सकते। वह या नेतृत्व दें या अलविदा कह दें जैसे कई पुराने दरबारिए अब मांग कर रहे हैं। अमेरिका के एक पूर्व राष्ट्रपति हैरी ट्रूमेन ने सही कहा था, ‘अगर आप ताप नहीं सह सकते तो रसोई में कदम मत रखो।’ इसी के साथ यह सवाल भी उठता है कि क्या नटवर सिंह को अंतरंग बातचीत के बारे रहस्योद्घाटन करना चाहिए था? नटवर सिंह का तर्क है कि क्योंकि सोनिया गांधी पब्लिक फिगर हैं और भारत की सबसे बड़ी राजनेता हैं इसलिए उनके बारे जानकारी देना अनुचित नहीं। यह उल्लेखनीय है कि सोनिया गांधी के इर्दगिर्द जो लोग हैं कोई यह नहीं कह रहा कि नटवर सिंह ने जो कहा वह झूठ है। घर का भेदी लंका ढाए वाली स्थिति है। नटवर सिंह ने अपना बदला ले लिया लेकिन उस वक्त लिया जब सोनिया गांधी तथा कांग्रेस दोनों कमज़ोर पड़ चुके थे। जब तक सोनिया ताकतवर थीं तथा सत्ता उनके हाथ में थी तब तक कुंवर साहिब भी खामोश ही रहे।