
मुद्दत से आरज़ू थी सीधा करे कोई!
भारत ने पाकिस्तान के साथ सचिव स्तर की वार्ता रद्द कर दी है। भारत ने पाकिस्तान को स्पष्ट कर दिया था कि अगर वह कश्मीरी अलगाववादियों से बात करता है तो भारत के साथ वार्ता नहीं हो सकती। वार्ता रद्द किए जाने को कश्मीर के अंदर मिलिटैंट्स की बढ़ी हुई गतिविधियों तथा नियंत्रण रेखा तथा सीमा पर उधर से लगातार फायरिंग के संदर्भ में भी देखा जाना चाहिए। सोमवार को 20 बीएसएफ चौकियों पर हमला किया गया। क्योंकि पाकिस्तान सम्भला नहीं इसलिए वार्ता रद्द करने का कठोर निर्णय लिया गया जिसके बारे इकबाल के साथ कहा जा सकता है,
मुद्दत से आरज़ू थी सीधा करे कोई!
इस आकस्मिक कदम से कई बातें निकलती हैं,
एक, अगर अतीत में पाक नेताओं की हुर्रियत वालों से वार्ता के बावजूद भारत-पाक वार्ता चलती रही तो इस वक्त क्या हो गया कि उसे रद्द किया जा रहा है? टीवी चैनलों पर पाकिस्तान की तरफ से हिस्सा लेने वाले लोग भी हक्के-बक्के नज़र आए कि अब इतनी कठोरता क्यों? आखिर एक समय तो पाकिस्तान की विदेशमंत्री हिना रब्बानी जब वार्ता के लिए भारत आईं तो भारत के विदेश मंत्री से मिलने से पहले उन्होंने कश्मीर के अलगाववादियों से मुलाकात की। तब भारत ने आपत्ति नहीं की, अब क्यों? इसका जवाब है कि दो गलतियां मिलकर एक सही नहीं होतीं। अगर अतीत में गलती की गई तो इसे दोहराने की जरूरत नहीं। दूसरा, कहा गया कि इससे नवाज शरीफ की स्थिति और खराब होगी जो पहले ही अपने देश में बुरी तरह से घिरे हुए हैं। यह भी कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में अपने देश में भारी ऐतराज के बावजूद नवाज शरीफ ने शामिल होकर दोस्ती का हाथ बढ़ाया था पर भारत ने वार्ता रद्द कर उन्हें करंट दे दिया। यह सही है कि कभी कभार नवाज शरीफ साहब अच्छी बातें करते हैं लेकिन इसके बावजूद क्या कारण है कि भारत के खिलाफ आतंकी घटनाएं तथा सीमा पर फायरिंग नहीं रुक रही? इसका अर्थ है कि (क) या नवाज शरीफ भारत को दबाव में रखना चाहते हैं या (ख) उनके पल्ले कुछ नहीं। दोनों ही हालत में उनकी चिंता क्यों की जाए?
तीसरा, पाकिस्तान को यह संदेश भेजने की बहुत जरूरत थी कि वह दोस्ती तथा दुश्मनी की दोनों किश्तियों पर सवार नहीं हो सकता। हमारी संसद पर हमला हुआ, जम्मू कश्मीर विधानसभा पर हमला हुआ, हमारे शहरों, बाजारों, मंदिरों पर हमले हुए। कारगिल हुआ। कराची से लोग भेज कर मुम्बई पर 26/11 का हमला करवाया गया। इसके बावजूद भारत दोस्ती का प्रयास करता रहा। कारगिल के बावजूद परवेज मुशर्रफ को आगरा बुलाया गया। मुम्बई के बावजूद शरम-अल-शेख में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने उनके प्रधानमंत्री गिलानी से हाथ मिलाया। मेरा मानना है कि अगर हम इतनी शरीफ प्रतिक्रिया व्यक्त न करते तो मुम्बई पर हमला न होता। चौथा, कश्मीरी अलगाववादियों के साथ वार्ता से पाकिस्तान को मिलता भी क्या है सिवाय इसके कि भारत को वह चिढ़ा रहे हैं? वादी में इनका महत्व केवल यह है कि पाकिस्तान इन्हें दावत देता है। इनके साथ बहुत उदारता दिखाई गई है। रॉयलटी की तरह बर्ताव किया जाता है। हम इन्हें सुरक्षा भी देते हैं तथा जब ‘गिलानी साहिब’ बीमार पड़ते हैं तो एम्स में मुफ्त इलाज भी करवाते हैं जबकि कश्मीर में यह लोग नाक में दम कर रखते हैं। इन्हें इनकी जगह दिखाने का भी समय आ गया है।
पांच, अब भारत-पाक रिश्तों का क्या बनेगा? देश के अंदर पाक समर्थक कथित उदारवादी लॉबी बहुत परेशान है। इस कदम को नरेन्द्र मोदी सरकार का ‘कूटनीतिक अनाड़ीपन’ कहा जा रहा है। इन लोगों से पूछना है कि जो कूटनीतिक तौर पर बहुत सियाने थे वह कौन से तारे तोड़ लाए? क्या हमारे खिलाफ आतंकवाद खत्म हो गया? क्या सीमा पर फायरिंग रुक गई? क्या साजिशें रोक दी गईं? क्या खुला व्यापार शुरू हो गया। अगर नहीं तो ‘सियानी कूटनीति’ से मिला क्या? पाकिस्तान कैसा महसूस करेगा अगर हम बलूच अलगाववादियों को अपने इस्लामाबाद स्थित दूतावास में वार्ता के लिए बुलाना शुरू कर दें? उन गरीबों को तो वहां शायद गोलियों से उड़ा दिया जाएगा। भारत की तरफ से संदेश स्पष्ट है कि हम 25 वर्षों से दुश्मनी बर्दाश्त कर रहे हैं, और 25 वर्ष भी बर्दाश्त करने की क्षमता रखते हैं। विदेश सचिव स्तर की वार्ता से एक सप्ताह पहले इन फिज़ूल कश्मीरी अलगाववादी नेताओं से वार्ता कर पाकिस्तान की सरकार ने अव्वल दर्जे की मूर्खता