इनके साथ सिल्क या कॉटन या खद्दर, कोई रूट नहीं चाहिए
आप उन्हें जितना भी गुजरात में फाफड़ा और ढोकला खिला लो चीन की हरकतें नहीं बदलेंगी। वास्तव में उनके राष्ट्रपति शी जिनपिंग की यात्रा मुंह का ज़ायका कड़वा कर गई है। सवाल यह है कि यह कैसा देश है कि अपने राष्ट्रपति की भारत यात्रा के दौरान भी उसकी सेना घुसपैठ करती गई? यात्रा का माहौल ही तहस नहस कर दिया गया। ऐसा ही उस वक्त हुआ था जब चीन के प्रधानमंत्री ली कियांग भारत आए थे। जो गर्मजोशी अहमदाबाद में देखी गई वह नई दिल्ली में गायब थी। इनके तो नेता को बुलाना ही खतरे से खाली नहीं! कई करार हुए लेकिन जो मामला दोनों के रिश्तों में तनाव डालता है उस पर न कोई सहमति, न कोई समझौता, उलटा तनाव। जिनपिंग का कहना है कि भारत-चीन सीमा तय नहीं इसलिए ऐसी घटनाएं होंगी और ऐसी घटनाओं से रिश्तों पर असर नहीं पडऩा चाहिए। यह तो बात सही है कि सीमा तय नहीं पर यह इसलिए है कि चीन इसके लिए तैयार नहीं और जब दोनों तरफ की सेनाएं आमने सामने खड़ी हों तो रिश्तों पर असर कैसे नहीं पड़ेगा? चीन यह नहीं समझता कि भारत एक लोकतंत्र है जहां जनता की राय विदेश नीति को प्रभावित करती है। भारत की जनता का चीन के प्रति अविश्वास कम होने की जगह बढ़ा है। हमारी पीढ़ी 1962 को अगर भूल नहीं सकी तो नई पीढ़ी चीन के आक्रामक तथा झगड़ालू रवैये को पचा नहीं रही।
जिनपिंग न केवल देश के राष्ट्रपति हैं तथा वहां की ताकतवर कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख हैं बल्कि वह चीन की 15 लाख सेना के भी प्रमुख हैं। एक प्रकार से वह चीन के सुप्रीमो हैं। उनका अपनी सेना पर नियंत्रण है फिर बटालियन स्तर पर (1000) चीनी सैनिक हमारे क्षेत्र में क्या कर रहे हैं? या उल्टा यह इरादा था कि भारत को बता दिया जाए कि अगर आप हमारे अनुसार नहीं चलते तो सीमा पर दबाव बढ़ जाएगा? यह भी उल्लेखनीय है कि चीन का निवेश जिसका 100 अरब डालर का शोर था वह भी कम होकर 20 अरब डालर रह गया जो जापान के 35 अरब डालर से बहुत कम है। चीन खुद को एक महाशक्ति समझता है और चाहता है कि उसके सारे पड़ोसी देश उसके आगे नतमस्तक हों। वैसे भी आर्थिक सहयोग से चीन की नीति में अधिक अंतर आने वाला नहीं। जापान ने वहां 100 अरब डालर का निवेश किया है पर बदले में टापुओं को लेकर टकराव मिला। प्रधानमंत्री मोदी ने भी जापान की अपनी यात्रा के दौरान ‘विस्तारवाद की जगह विकासवाद’ की बात कह चीन को संदेश भेज दिया था लेकिन चीन की नीति में कुछ परिवर्तन नहीं हुआ। आने वाले दिनों में दबाव बढ़ सकता है। चीन भारत को अपने बराबर नहीं समझता। केवल अमेरिका को बराबर समझते हैं। हमें गंभीरता से तब ही लेते हैं जब हम अमेरिका के नजदीक जाने लगते हैं। क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से भारत-अमेरिका सम्बन्धों की गर्मजोशी कम हो गई है इसलिए चीन ने हमारी परवाह करना बंद कर दिया है। हां, जापान के साथ घनिष्ठ होते हमारे सम्बन्ध उन्हें चुभते हैं।
उनकी अर्थव्यवस्था हमसे चार गुणा बड़ी है। चीन का मुकाबला करने के लिए हमें बेहतर आर्थिक दर चाहिए। चीन एक सख्ती से नियंत्रित समाज है जबकि भारत एक अव्यवस्थित लोकतंत्र है। लेकिन भारत का अपना महत्व है। प्रधानमंत्री की जापान यात्रा यह बढिय़ा संदेश दे गई है। शी जिनपिंग की भारत यात्रा से ठीक पहले राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की वियतनाम यात्रा, जिसके साथ चीन के बराबर के तनावपूर्ण सम्बन्ध हैं, के द्वारा भी भारत यह संदेश भेज रहा है कि हमारे पास भी दूसरे विकल्प हैं। अगर पाकिस्तान उनका ‘हर मौसम का साथी’ है तो हमें भी बता देना चाहिए कि जापान और वियतनाम भी हमारे ‘हर मौसम के साथी’ हो सकते हैं। वह जानते हैं कि भारत से बड़ा बाजार उन्हें नहीं मिल सकता। वहां तीन दर्जन कारखाने ऐसे हैं जो केवल भारत के देवी-देवताओं की मूर्तियां बनाते हैं। शी जिनपिंग पाकिस्तान नहीं गए क्योंकि इस्लामिक आतंकवाद से उन्हें भी अपने कुछ क्षेत्रों में खतरा है। पाकिस्तान की जर्जर हालत अब चीन के लिए बोझ बनती जा रही है। जापान यात्रा के दौरान मोदी-अबे गर्मजोशी चीन में नोट कर ली गई होगी। आस्ट्रेलिया ने भी अपनी नीति में परिवर्तन कर भारत को यूरेनियम देना मान लिया है। इस बारे नई दिल्ली में तिब्बतियों के प्रदर्शन की अधिक छूट देकर भारत ने एक और संदेश भेज दिया है कि हमारे पास भी एक तुरूप का पत्ता है लेकिन असली मसला सीमा पर तनाव का है। चीनी मामलों के विशेषज्ञ मिनशिन पी ने यात्रा से पहले लिखा था, ‘हमारे सामने यह दुर्लभ मौका है जब दो मजबूत नेता चीन-भारत सीमा विवाद पर समझौता कर सकते हैं। वास्तव में शी की यात्रा की सफलता का आंकलन करने के लिए यह देखना होगा कि इस मुद्दे पर कोई घोषणा हुई है या नहीं।’
जिस तरह चीन ने इस यात्रा के दौरान लद्दाख में घुसपैठ की है उसके बाद तो आंकलन यही कहेगा कि यह यात्रा सफल नहीं रही बल्कि यह रिश्तों को अधिक तनावग्रस्त छोड़ गई है।
इस समय चीन की यह हरकत सचमुच विस्मय करने वाली है जिसका कोई तार्किक औचित्य नज़र नहीं आता। यह भी हो सकता है कि चीन की व्यवस्था के अंदर भारत को लेकर राय विभाजित हो और एक पक्ष हमें दबाव में रखना चाहता है। यह भी हो सकता है कि पीएलए पाकिस्तान की सेना की तरह भारत के साथ अच्छे रिश्तों से अप्रसन्न है इसलिए इस वक्त यह घुसपैठ की गई। लेकिन मुझे एक और बड़ा कारण भी नज़र आता है। चीन नरेन्द्र मोदी तथा नई सरकार की परीक्षा ले रहा है। वह मोदी सरकार की प्रतिक्रिया देखना चाहते थे कि वह दब जाते हैं या जवाब देते हैं? अफसोस की बात है कि यह मौका था जब दोनों भारत तथा चीन अगर दोस्ती नहीं तो सामान्य रिश्तों की नींव रख सकते थे क्योंकि 30 वर्षों के बाद चीन तथा भारत दोनों के पास मजबूत नेतृत्व है जिनका अपनी अपनी सरकार पर नियंत्रण है।
चीन को भी समझना चाहिए कि उसकी ताकत की भी सीमा है। वह एक सुपरपावर है पर ऐसा सुपरपावर है जो मित्रविहीन है। जो मित्र हैं, जैसे पाकिस्तान या उत्तरी कोरिया, वह बोझ अधिक हैं। अमेरिका भी एक सुपरपावर है पर उसके साथ नाटो देश हैं। ब्रिटेन, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, जर्मनी, जापान, तुर्की जैसे मजबूत देश हैं। चीन के पास क्या है? मालदीव, बर्मा या श्रीलंका आदि चीन का प्रभाव नहीं बढ़ा सकते। चीन अपने इर्दगिर्द सभी समुद्री रास्तों पर अपना प्रभुत्व चाहता है जिसके कारण उनका लगभग सारे एशिया के साथ टकराव है। विशेष कोशिश है कि हिन्द महासागर में भारत का प्रभाव कम हो जाए।
एशिया में जो भी बड़े देश हैं सबके साथ चीन का झगड़ा है, तनाव है। उसकी बड़ी अर्थव्यवस्था, सेना तथा नौसेना के बावजूद वह अकेला है। आंतरिक लोकतंत्र नहीं है जो कभी भी समस्या खड़ी कर सकता है। इस वक्त ताकत के नशे में चीन बेधड़क अपनी धौंस की नीति पर चल रहा है इसलिए उसे संदेश भेजना जरूरी है कि हमें किसी सिल्क या कॉटन या खद्दर मार्ग में दिलचस्पी नहीं होगी जब तक सीमा का मामला तय नहीं हो जाता। इस वक्त तो यहां लोकराय ‘हिन्दी-जापानी भाई-भाई’ कह रही है और चीन के प्रति सावधान रहने को कह रही है। प्रधानमंत्री ने यह कह कर कि ‘अगर दांत का दर्द हो तो सारा शरीर काम नहीं करता’, बात अच्छी तरह से समझा दी थी।